वेदाँत की भाषा में परमात्म सत्ता का काव्य

November 1993

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अनंत आकाश के गर्भ में यह सारा दृश्य पदार्थ एक छोटे -से घटक के रूप में रह रहा है। यहाँ जो कुछ समग्र है, वह व्यापक है। उसकी इकाइयाँ दिखती तो अलग-अलग हैं, पर वे परस्पर इतनी अधिक गुँथी हुई हैं कि उन्हें तत्वतः पृथक कर पाना किसी प्रकार संभव नहीं। मोटे तौर पर किसी भी पदार्थ को तोड़ा और बिखेरा जो सकता है।

चाहे परमाणु की अंतर्देशीय संरचना पर दृष्टि डालें, चाहे सौर-परिवार की गतिविधियों को देखें अथवा ब्रह्मांडीय ग्रह-तारकों या निहारिकाओं को सर्वत्र एक ही नियम काम करता दिखाई देगा। इसी प्रकार स्थूल परिधि से आगे जितनी गहराई में उतरते चले जायेंगे, उतना ही यह स्पष्ट होता जायेगा कि इस विश्व में मात्र एक ही दिव्य शक्ति संचारित हो रही है। उसी की हलचलें तरह-तरह के पदार्थ एवं दृश्य उपस्थित करती रहती हैं। उसी सृजन, अभिवर्धन और परिवर्तन का त्रिविध क्रियाकलाप चलता रहता है। इन सब प्रसार विस्तार पर गहराई में उतरने पर मात्र एक ही तत्व शेष रह जाता है, जिसे ब्रह्म प्रकृति अथवा दोनों की संयुक्त सत्ता -अर्धनारी नटेश्वर पुरुष प्रकृति का गुँथन ही कहा जा सकता है। इसी स्थिति का वर्णन’ सियाराममय सब जग जानी’के रूप में किया है और उसे भगवान का रूप में नमन, अभिनंदन किया है।

प्रगतिशील विज्ञान अब वयोवृद्ध वेदाँत के साथ विचार -विमर्श कर रहा है और लड़ाई समाप्त करके चिरस्थायी समझौते की तैयारी कर रहा है। नवीनतम खोजें पदार्थ की जड़ तक पहुँचते -पहुँचते मात्र एक ही शक्ति का अस्तित्व शेष बचता देखती है। यह शक्ति जड़ नहीं वरन् विचारपूर्ण है। व्यवस्था और संतुलन उसकी नीति है। ऐसा कर सकना विवेकशील के लिए ही संभव हो सकता है। विवेकयुक्त सर्वव्यापी शक्ति को ब्रह्म नाम दिया जाय या और कोई। निष्कर्ष वहीं पहुंचता है जहाँ एक ही सर्वव्यापी शक्ति के क्रीडा कल्लोल के अतिरिक्त और कुछ भी शेष नहीं रह जाता है।

सामान्यतः भले ही किसी अनजान द्वारा इस तथ्य पर विस्मय व्यक्त किया जाय कि परमाणु का अधिकाँश भाग रिक्त (स्पेस )है और शेष अत्यन्त हिस्से में ही इलेक्ट्रान, प्रोट्रान, न्यूट्रान आदि विद्युत प्रवाह है, किंतु वेदाँत के अनुयायियों के लिए यह कोई नवीन तथ्य नहीं है। वेदाँत के अनुसार द्रव्य का उद्गम आकाश से हुआ है, इसलिए द्रव्यमय जगत की प्रत्येक वस्तु तथा प्रत्येक कण में आकाश(स्पेस)की उपस्थिति अनिवार्य है। परमाणु के शेष हिस्से में विभिन्न विद्युत प्रवाहों की सक्रियता ऊर्जा का ही सूक्ष्म रूप है। वेदाँत की भाषा में यही प्राण है।

विकिरण यद्यपि अति सूक्ष्म तथा वेगवान होता है तो भी वह द्रव्य के ही स्तर का है। वेदाँत की मान्यता है कि प्रकाश दिक् काल में ही विस्तृत व क्रियाशील रहता है। सर्वोच्च सत्ता रेडियेशन के क्षेत्र से परे है। कठोपनिषद् में उसका वर्णन करते हुए कहा गया है ‘वहाँ न तो सूर्य प्रकाशित होता है, न चन्द्रमा और न नक्षत्र ही। ’प्रकाश के ये प्रवाह वहाँ नहीं पहुँच सकते। फिर नाशवान अग्नि की तो बात ही क्या ?पदार्थ विज्ञान भी आज चेतना -तरंगों के अनंत विस्तार के द्वार पर आ पहुँचा है डाल्टन ने जब परमाणु की धारणा विज्ञान जगत को दी, उस समय से परमाणु को पदार्थ का मूल कारण माना जाता रहा है, पर अब यह धारणा सम्पूर्ण ध्वस्त हो चुकी है।

एक सामान्य व्यक्ति की अनुभूति यही होती है कि यह वस्तु जगत रूप, रंग और ठोसपन से बना है, किंतु यह अवास्तविक है- यह समझ अब विज्ञान की धीरे-धीरे विकसित होती जा रही है। संभवतः इसी कारण से पदार्थ विज्ञानी एडिंगटन ने अपनी रचना’ दि नेचर ऑफ दि फिजीकल वर्ल्ड ‘में लिखा है-’पदार्थ की तीन अवस्थाओं के अतिरिक्त एक चौथी प्लाज्मा अवस्था है। इस अवस्था में द्रव्य को और अधिक तापमान देने से वह अदृश्य शक्ति में रूपांतरित हो जाता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि पदार्थ की मूल सत्ता अव्यक्त है। जो व्यक्त है, वह उसकी छाया जैसा है। ’

पहले जो परमाणु अविभाज्य माना जाता था, आज उसका विभाजन और विस्फोट अनंत शक्ति और ज्ञान का स्रोत बन गया है। यह पाया गया है कि परमाणु में दो विद्युत धाराएँ हैं। केंद्रीय नाभिक तथा परमाणु के मुख्य भाग में धनात्मक विद्युत होती है और केन्द्रीय भाग के बाहरी हिस्से के चारों ओर ऋणात्मक विद्युतधारा से भरे इलेक्ट्रान होते हैं। केन्द्रीय नाभिक में भी दो भिन्न-भिन्न कण होते हैं, जिन्हें न्यूट्रान और प्रोट्रान कहते हैं। अपने स्वाभाविक रूप में परमाणु विद्युतवेशी नहीं होता, क्योंकि उसके भीतर की धनात्मक और ऋणात्मक विद्युत धाराएँ सदा समान होती हैं। ऋणावेशी इलेक्ट्रान और धनावेशी प्रोट्रान परस्पर संतुलन कायम रखते हैं। इस प्रकार परमाणु सौर व्यवस्था का एक लघु बिंब मात्र होता है।

लेकिन परमाणु -सिद्धान्त के क्षेत्र में सर्वाधिक रोमाँचकारी खोज तब हुई, जब वैज्ञानिकों ने गैस की तह से अवयवों को गुजारा। अवयव आर- पार हो गये। तब परमाणु के ठोस होने की धारणा खंडित हो गई, क्योंकि ये अवयव कहीं भी न तो टकराये न ही किसी अवरोध द्वारा रोके जा सके। परीक्षणों से यह भी ज्ञात हुआ कि परमाणु का नाभिक सूर्य की तरह और उसके चतुर्दिक् परिक्रमात इलेक्ट्रान ग्रह नक्षत्रों जैसे है। इस प्रकार परमाणु सौर-मंडल का ही एक छोटा नमूना सिद्ध हुआ। यह भी ज्ञात हुआ कि एक इलेक्ट्रान का व्यास संपूर्ण परमाणु के व्यास का 50 हजारवाँ हिस्सा है और नाभिक का व्यास भी लगभग उतना ही है। इस प्रकार पूरे परमाणु का करीब शत-प्रतिशत हिस्सा ‘स्पेस’ है। यदि मनुष्य शरीर के भीतर के समस्त परमाणुओं को इस प्रकार दबाया जाय कि उनमें से प्रत्येक का यह रिक्त ‘स्पेस ‘भर जाये तथा वे परस्पर अधिकतम सघन हो जायें तो फिर मनुष्य का शरीर एक ऐसे छोटे से धब्बे या बिंदु की तरह हो जायेगा कि वह किसी श्रेष्ठ ?अति संवेदनशील’इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप ‘से ही देखा जा सके।

प्रयोगों से यह भी विदित हुआ कि पदार्थ का सारभूत अंश, कण के रूप में नहीं तरंगों के रूप में है। इसी आशय का मंतव्य प्रकट करते हुए ’दि लिमिटेशन ऑफ साइंस’में विज्ञानवेत्ता डी. सुलीवान लिखते हैं-’इस प्रकार यह पहला संकेत था, जो कि आधुनिक विज्ञान की ओर ये आया कि पदार्थमय जगत का मूलभूत स्वरूप वस्तुतः पदार्थ कण के रूप में नहीं, अपितु तरंगों के रूप में है। विश्लेषण की अंतिम अवस्था में पदार्थ बिल्कुल क्षीण हो गया और उसकी सत्ता अज्ञात तरंगों में समाहित होती दीखने लगी। ”दि फिलॉसफी ऑफ फिजीकल साइन्स ‘में एडिंगटन लिखते हैं-’पदार्थ की मूल सत्ता कण और तरंग दोनों रूपों में है। कण इसलिए कि वह पदार्थ का हिस्सा है और तरंग इसलिए कि वह अत्यन्त सूक्ष्म है। ”दि मिस्टीरियस यूनीवर्स ‘में जेम्स जीन्स भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। वे कहते हैं कि वस्तुतः हम जिस पदार्थ की दुनिया में रहते हैं, उसका आदि रूप तरंग है। वस्तुएँ विखंडित होने के उपराँत अंततः इसी तरंग में परिवर्तित हो जाती है।

प्रयत्न और परिश्रम से किये गये प्रयोगों तथा एकत्रित और विश्लेषित आँकड़ों एवं नित नवीन अनुसंधानों द्वारा भौतिक विज्ञानी जिस तथ्य के निकट पहुँचे हैं, वह यही कि विश्व -ब्रह्मांड की संरचना में समरसता और आँतरिक संगीत है और वह अत्यन्त सूक्ष्म, अति निपुण गणितीय मस्तिष्क का ही सुन्दर सुविस्तृत प्रकाशन है। प्रकृति राज्य की नियामक शक्तियों के रूप में वे कारण और क्रम -व्यवस्था ही पाते हैं। विज्ञान के विभिन्न सिद्धान्तों, नियमों का समन्वय अद्वैत वेदाँत की दिशा में ही होता दीख रहा है। वैज्ञानिक, दार्शनिक पॉल आर. हेल का कथन है-’सम्पूर्ण सृष्टि की एक अंतिम सुनिश्चित व्याख्या की खोज करता हुआ वैज्ञानिक चिंतन अद्वैतवादी है। ’

मैटर के कण ‘इलेक्ट्रान ‘द्रव्य कण भी हैं तथा तरंग भी। उसी प्रकार ‘रेडियेशन’ के पार्टिकल ‘फोटान’ तरंग भी हैं तथा द्रव्य भी। इस प्रकार मैटर और रेडियेशन की पृथक सत्ताएँ खतरे में पड़ गई हैं और वे दोनों एक ही मूल सत्ता एक ही यथार्थ के अंग मात्र प्रतीत होते हैं। इसीलिए वाल्टर फ्रैंकलीन अपनी रचना ‘क्वाण्टम गौड’ में लिखते हैं -’पदार्थ और प्रकाश भले ही बाह्य दृष्टि को दो पृथक अस्तित्व जान पड़ते हों, पर मूलतः वे एक ही सत्ता की दो भिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। इसे अब विज्ञान भली भाँति स्वीकारने लगा है और यह भी पुष्ट हो चला है कि विशेष परिस्थितियोँ में एक का दूसरे में रूपांतरण संभव है। ’इस प्रकार विज्ञान ने भी इसे लगभग अंगीकार कर लिया है कि मैटर और रेडियेशन दो भिन्न वस्तु न होकर एक ही मूलसत्ता के दो पहलू हैं। वह सत्ता समयानुसार दोनोँ में से कोई भी रूपाकार कभी भी ग्रहण कर सकती हैं पर इन सभी परिवर्तनों के बीच सदा वही मूलसत्ता विद्यमान रहती है। उसका संपूर्ण योग सदा एक-सा बना रहता है -ऐसी, विज्ञान के पदार्थ संरक्षण के महत्वपूर्ण सिद्धाँत की मान्यता है। स्पष्टतः यह वेदाँत की प्रसिद्ध अवधारणा ‘पूर्णमदः पूर्णमिदं ‘के ही अनुरूप है, जिसमें कहा गया है-’पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते। ’

चेतना और पदार्थ का द्वैतभाव अब मिट चला है। विश्व का निर्माण और नियंत्रण करने वाली शक्ति का अनुभव आधुनिक वैज्ञानिकों को होने लगा है तथा इस शक्ति से मानवीय चेतना की समानता की भी अनुभूति की जा रही है। विज्ञान ”एकाब्रहम द्वितीयो नास्ति“ की पुष्टि और समर्थन के द्वार पर आ पहुँचा है -विज्ञान और अध्यात्म की मिलन वेला आ उपस्थित हुई है।


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