प्रायश्चित नहीं परिमार्जन

November 1993

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

चित्तौड़ कौन जाएगा? महर्षि हारीत के आश्रम में प्रत्येक अंतवेसी के सम्मुख आज यह प्रश्न है। महर्षि ने कल सायंकालीन संध्या समाप्त करने के बाद सूचित कर दिया था कि चित्तौड़ का राजपुरुष सवेरे प्रतीक्षा करेगा। मध्याह्नोत्तर प्रस्थान का समय है और अब तक निश्चय नहीं हो सका कि यह गौरव किसे प्राप्त होगा।

महर्षि हारीत के आश्रम का कोई भी छात्र किसी शासक के मार्ग निर्देश करने की योग्यता रखता है किंतु, कुछ ऐसे ब्रह्मचारी हैं जो गुरुदेव के श्री चरणों से पृथक् होना नहीं चाहते। कुछ ने नैष्ठिक रूप से आश्रम स्वीकार किया है। जिनका अध्ययन समाप्त नहीं हुआ उनके लिए तो कोई प्रश्न नहीं है। सबसे मुख्य बात यह है कि इस समय चित्तौड़ पुरी का नागरिक समुदाय अनेक कारणों से तर्कशील होकर सनातन सदाचार पथ से अस्त-व्यस्त हो रहा है। चित्तौड़ नरेश बाप्पा रावल चाहते हैं कि राजगुरु के पद पर जिस विभूति की प्रतिष्ठा हो उनका शील एवं तप लोगों में सात्विकता एवं श्रद्धा का संचार करे।

बात ठीक भी है, धर्म का पालन केवल भय से ही कब तक होगा। उसका स्थान तो अंतर में होना चाहिए। नम्रता के ये मूर्तिमान स्वरूप छात्र इनके मन में नहीं आता कि उनके संयम तप ने उनके संकल्प में वह शक्ति दे दी है कि राजगुरु के पद पर रहना तो दूर वे यहाँ से केवल सोच लें तो संपूर्ण अव्यवस्था दूर हो जाये। अधर्म तथा उसके परिकर अधिष्ठाता देवताओं में इतना साहस ही नहीं है। कि वे इन तपोमूर्तियों के संकल्प क्षेत्रों की ओर दृष्टिपात भी करें।

“आचार्य चरण जिसे आज्ञा दें..”बात तो इतनी निश्चित है कि उसमें सोचने समझने को कुछ रह ही नहीं जाता। गुरुदेव जिसे आज्ञा देंगे, उसे जाना ही पड़ेगा। उसकी योग्यता एवं शक्ति का प्रश्न ही कहाँ रह जाता है तब?गुरुदेव की आज्ञा उनका आशीर्वाद कौन नहीं परिचित है उन सर्व समर्थ की शक्ति से? इसी शक्ति के कुछ कणों को पाकर ही तो बाप्पा रावल सामान्य भील बालक से चित्तौड़ नरेश बन सके। इसी शक्ति की प्रचण्ड ऊर्जा के समक्ष दुर्धर्ष और बर्बर अरबों के प्रचण्ड आक्रमण विफल हुए। लेकिन वे किसे आज्ञा देंगे ?असमंजस संकोच, हिचक और इसलिए भी यह सब कि प्रथम बार गुरुदेव ने किसी को आज्ञा न देकर छात्रों पर यह बात छोड़ दी है कि वे स्वयं निश्चय करें।

महर्षि पीपल वृक्ष के नीचे बनी वेदी पर बैठ चुके हैं और आप सब की प्रतीक्षा कर रहें हैं। सुमंत ही गुरुदेव का सबसे प्रिय शिष्य है। वह है भी आश्रम में सबसे अल्पवयस्क, सबसे चपल, सबकी सेवा में पटु और सबका स्नेह पात्र। सबको ढूंढ़-ढूँढ़ कर वह सन्देश सुना आया।

दिन का प्रथम प्रहर बीत चुका था। दिशाएँ वेद मंत्रों के सर स्वर पाठ से पवित्र हुई और हवन का सुरभित धुँआ तो अब भी गगन में कुण्डलियाँ बनाता उठ रहा है। पीपल की अरुण, मृदुल कोपलों की छाया में वेदिका पर जैसे मूर्तिमान अग्नि देव विराजमान हैं और अब उनके चारों ओर ये बल्कलधारी धूमिल, रुक्ष केशों वाले युवकों के रूप में मानों नम्रता, शील, सत्य, त्याग आदि सद्गुण ही एकत्र हो गये हैं।

“ब्राह्मण का तप एवं त्याग इसीलिए है कि उससे विश्व को अभय तथा शाँति का वरदान प्राप्त हो। ”महर्षि ने एक बार देख भर लिया अंतेवासियों की ओर और फिर उनका घन गम्भीर स्वर दिशाओं के साथ श्रवणों को पवित्र करने लगा। तर्क मन की चंचलता की ही एक मोहक वृत्ति है और श्रद्धा है जगन्नियंता का मंगल वरदान। तर्क का मायाजाल मानव का मन अपने प्रमाद एवं दोष को समर्थन देने के लिए फैलाता है। इसका परिणाम है असंयम, जिसका फल अशाँति एवं क्लेश है। ब्राह्मण अपने त्याग तप एवं आचरण से माया मुग्ध मानव के मन का तर्क जाल छिन्न करके उसमें श्रद्धा -आस्था का अमर प्रकाश प्रदीप्त करता है।

आचार्य हारीत के साथ जैसे आश्रम के सब चर -अचर मूक हो गये। वायु तक निस्तब्ध हो उठी निःशब्द शाँति और उसमें एक अद्भुत संकोच पूर्ण अव्यक्त भाव। अन्तेवासियों ने मस्तक झुका लिए थे।

“चित्तौड़ नरेश बहुत खिन्न हैं। ”पुत्र के समान प्रिय प्रजा का अस्त व्यस्त भाव किसे खिन्न नहीं करेगा। उन्हें एक ब्राह्मण चाहिए। तुममें से कौन उन अभीप्सु को आशीर्वाद देगा?आचार्य ने दृष्टि चारोँ ओर घुमाई।

“हममें जो कुछ भी है, वह श्री चरणों का प्रसाद ही है। हमार पास अपनी तो त्रुटियाँ प्रमाद एवं क्षुद्रता ही हैं। ”बन्धु वर्ग के संकोच का भार बड़े ही उठाते हैं। नैष्ठिक व्रती सत्यसंघ जी ने सब को प्रसन्न कर दिया। बड़ी नम्रता से अंजलि बाँधे खड़े हो गये -श्री चरण आशीर्वाद दे सकते हैं महाराज को। उस आशीर्वाद का वहन करने की जिसे आज्ञा होगी उसकी योग्यता का प्रश्न ही कहाँ रह जाता है।

“राजपुरुष को यहीं बुला लो। महर्षि ने एक क्षण कुछ सोच कर सुमंत की ओर संकेत किया सुमंत तो संदेश सुनाने के लिए तैयार ही बैठा था।

आचार्य अभय चित्तौड़ के राजगुरु का आसन भूषित करेंगे। राजपुरुष ने आकर प्रणाम किया महर्षि हारीत के चरणों में और जैसे ही वह हाथ जोड़ कर खड़ा हुआ, महर्षि ने अपना निर्णय सुना दिया। “

“अभय। “राजपुरुष नाम सुनकर ही चौंका और जब उसने निर्दिष्ट आचार्य अभय को देखा, उसका मुख सूख गया।

“अभय। “सभी ब्रह्मचारी चौंके। उन्हें अपने गुरुदेव के इस निश्चय का अनुमान भी नहीं हो सकता था। यह अभय ब्राह्मण है, यह बात तो उसके द्वारा सबसे ज्ञात है, किन्तु यह गुरुदेव का न तो छात्र है, न ब्रह्मचारी ही। इसने तो कुछ दिन हुए जब नियमित संध्या प्रारंभ की है। क्या हुआ जो वह प्रतिभा संपन्न है, इसमें त्याग और तप भी है तो सोचा भी नहीं जा सकता।

ब्रह्मचारियों को स्मरण है कि जब यह आश्रम में आया था तब इसका शरीर मलिन हो रहा था। इसके वस्त्र फटे थे। गुरुदेव ने सबको मनाकर दिया था परिचय पूछने के लिए किन्तु इसका प्रमाद, इसका औधत्य इसका कठोर शरीर सब ऐसा लगता है, जैसे यह कोई डकैत हो।

लेकिन धीर-धीरे वह विनम्र होता गया बड़ा मधुर कंठ पाया है इसने प्रतिभाशाली भी है यह। भजन तो बड़े ही मोहक स्वर से गाता है। गुरुदेव ने इसे आदेश दिया है। बड़ी मनोरम व्याख्या करता है, गूढ़ पदों की। ”शरीर में शक्ति है, बुद्धि में योग्यता है, स्वभाव में नम्रता है। ”ब्रह्मचारियों अपना समाधान कर लिया जब स्वयं महर्षि ने आदेश दिया, तो इसमें भ्रम का स्थान कैसे हो सकता है?

श्रद्धा के स्वरूप ब्रह्मचारी गण आश्वस्त हो जाये, महर्षि की शक्ति एवं सम्मान से प्रभावित राजपुरुष मस्तक झुका कर किसी प्रकार तैयार हो जाये। लेकिन उसे तो मालूम है कि वह क्या है। वह कैसे अपने को भूल जाय। वह उठा और आर्तभाव से महर्षि के चरणों पर गिर पड़ा। बड़ा करुण रुदन था उसका। सभी स्तब्ध थे।

“मेरे बच्चे!”महर्षि उसके सिर पर हाथ रखते हुए बोले उनकी वाणी में अपार वात्सल्य था-”तुम इतने कातर क्यों हो रहे हो। तुम चित्तौड़ के लोगों के शील, स्वभाव, विचार शैली से परिचित हो। मनुष्य को अपने किये हुए का परिमार्जन करने को सदा प्रस्तुत रहना चाहिए। जब एक अपना सुधार कर लेता है, उसका उज्ज्वल आदर्श दूसरों के हृदय को प्रकाशित कर देता है। संग का प्रभाव सब पर पड़ता है। चाहे वह कोई भी क्यों न हो। ”

“आचार्य! मैं तो दस्यु हूँ मैंने भयवश ही यहाँ आश्रय लिया था। किन्तु श्री चरणों के साश्रिध्य ने अब इस हीन हृदय में इतनी शक्ति दे दी है कि आपके आदेश से प्रायश्चित का वह स्वागत कर सके। “उसने अपने को स्थिर कर लिया।

“सो कुछ नहीं। ”महर्षि की वाणी में आश्वासन और आशीर्वाद दोनों थे - ‘तुम्हें प्रायश्चित के साथ परिमार्जन करना है और सच्चा प्रायश्चित तो है पश्चाताप। उसे जहाँ भी तुम जाग्रत कर दोगे वहीं हृदय परिशुद्ध हो जाएगा। ”

“आचार्य अभय की यात्रा व्यवस्था तुमने कर ली होगी। ”राजपुरुष ने केवल मस्तक झुका कर स्वीकृति सूचित की। अभय ने पुनः मस्तक रखा महर्षि चरणों में। उन्हें आशीर्वाद के साथ जो ब्रह्मचारियों का सौहार्द भरा संदेश एवं अनुगमन मिला था, वह प्रसन्न कर सका या नहीं, यह कहना कठिन है। कहा इतना ही जा सकता है कि उन्होंने अपने को स्थिर रखा और किसी प्रकार विदा हुए आश्रम से।

नगर के प्रवेश द्वार पर ही चित्तौड़ नरेश बप्पा रावल महारानी के साथ अभ्यर्थना के लिए खड़े हुए थे। महाराज प्रणाम के लिए झुके, इसके पूर्व ही वह दो कदम पीछे हटते हुए बोले’राजन् आपने मुझे पहचाना नहीं। आपके सम्मुख कुख्यात लंपट दस्यु अभय खड़ा है। मैं अपने योग्य दण्ड के लिए प्रस्तुत होकर आया हूँ। ”

बप्पा रावल के अधरों पर हल्की सी स्थिति रेखा झलकी। उनके स्वर में महर्षि हारीत के प्रति गहरी श्रद्धा और निष्ठ थी-’दस्यु श्रेष्ठ अभय को भूल जाना सम्भव नहीं है और जिसके नेत्र इतना पहिचानने में भी प्रमाद करें, वह क्या शासक होने योग्य है लेकिन भगवन्! जब कुत्सित लौह पारस का स्पर्श करके स्वर्ण बन जाता है उसकी पूर्वाकर्ती तो कोई अर्थ नहीं रखती। उसे आभूषण बनाने को उत्सुक न हो, ऐसा हीन बुद्धि कौन होगा? मैं तो परम भाग्य शाली हूँ। महापुरुष तो अपने संग से स्वर्ण नहीं पारस बना दिया करते हैं। औरों को मुझे अपने आचार्य के आसन पर ऐसे ही पारस के पूजन का अवसर मिला है। ”

“मेरे पूर्व अपराध ऐसे नहीं जिन्हें क्षमा किया जा सके। “ अभय को महाराज की श्रद्धा पर आश्चर्य हो रहा था। ये जानबूझ कर पहिचान कर भी क्योँ मुझे आचार्य मानते जा रहे है।

“जब कोई तपोधन अपने वरद हस्त से किसी के मस्तक का स्पर्श कर देते हैं, यमराज में भी साहस नहीं रह जाता उसके पुर्वापराधों पर विचार करने का। “महाराज का निश्चय भ्राँतिहीन था। “अब विकृतियों का परिमार्जन आप स्वयं करेंगे मैं तो केवल आज्ञावर्ती हूँ। ”

महर्षि हारीत के विदा होते समय के आदेश अभय के अन्तःकरण में स्पष्ट हो गए। प्रायश्चित नहीं परिमार्जन। अंततः उसी के अनुगामियोँ के प्रभाव से चित्तौड़ पुरी में यह अश्रद्धा एवं अव्यवस्था करना है। उसका आश्रम की ओर मुख करके महर्षि को प्रणाम करके वह विकृतियों के परिमार्जन के लिए कृत संकल्प हो गए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118