कुँडलिनी महाशक्ति व उसकी संसिद्धि

November 1993

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मानवी -काया एक समूचा ब्रह्मांड है। जो कुछ इस सुविस्तृत ब्रह्मांड में है, स्रष्टा ने उसे बीज रूप में मानवी पिंड में सँजो दिया है। आत्मसत्ता में सन्निहित विश्व की इन समस्त विभूतियों को यदि साधनात्मक उपचारों द्वारा खोजा और जगाया जा सके तो जीवात्मा को देवात्मा एवं परमात्मा बनने का अवसर मिल सकता है। इस अन्वेषण प्रयास को ”ब्रह्म विद्या” और जागरण प्रक्रिया को ‘ब्रह्मतेज - सम्पादन’कहते हैं। इस संदर्भ में शरीर स्थित सूक्ष्म चैतन्य केन्द्रों को जाग्रत एवं जीवंत करने और उनके ब्रह्मबल से उच्चकोटि का लाभ उठाने की प्रक्रिया कुँडलिनी जागरण के नाम से जानी जाती है।

कुँडलिनी जागरण के माहात्म्य की योगशास्त्रों में जितनी चर्चा हुई है उतनी और किसी साधना के संबंध में सार्वभौम स्तर पर नहीं मिलती। योगवशिष्ठ, तेज बिन्दूपनिषद्, योग चूड़ामणि, ज्ञान संकलिनी तंत्र, शिवपुराण, देवी-भागवत्, शाण्डिल्योपनिषद्, मुक्तिकोपनिषद्, हठयोग -प्रदीपिका, कुलावर्ण -तंत्र, योगिनी-तंत्र, घेरंड-संहिता, कंठश्रुति, ध्यान बिंदूपनिषद्, रुद्रयामलतंत्र, योगकुण्ड-लिन्योपनिषद्, शारदा तिलक आदि ग्रन्थों में इस विद्या के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। उसके विधानों और विवरणों में तो थोड़ा बहुत अंतर है, पर यह मान्यता सर्वविदित है कि आँतरिक आत्मिक शक्तियों को प्रसुप्ति से जाग्रति में बदलने, जाग्रति को प्रचंड बनाने में कुँडलिनी जागरण प्रक्रिया से असाधारण सहायता मिलती है।

कुँडलिनी क्या है?इसके संबंध में शास्त्रों और तत्वदर्शियों ने अपने - अपने अनुभव के आधार पर कई अभिमत व्यक्त किये हैं। ज्ञानार्पण तंत्र में कुँडलिनी को विश्व जननी और सृष्टि संचालिनी शक्ति कहा गया है-”शक्ति कुँडलिनी विश्व-जननी व्यापार वद्धोद्यता। ”विश्व व्यापार एक घुमावदार उपक्रम के साथ चलता है। परमाणु से लेकर ग्रह नक्षत्रों और आकाश गंगाओं तक की गति परिभ्रमण-परक है। हमारे विचार और शब्द जिस स्थान से उद्भूत होते हैं, व्यापक परिभ्रमण करके वे अपने उद्गम केन्द्र पर ही लौट आते हैं। यही गतिचक्र भगवान के चार आयुधों में से एक है। महाकाल की परिवर्तन प्रक्रिया इसी को कहा जा सकता है। जीव को चक्रारुढ़ मृतिका पिंड की तरह यही घुमाती है और कुम्हार जैसे अपनी मिट्टी से तरह-तरह के पात्र-उपकरण बनाता है उसी प्रकार आत्मा की स्थिति को उठाने-गिराने की भूमिका भी वही निभाती है। कुँडलिनी सृष्टि संदर्भ में समष्टि और जीव संदर्भ में व्यष्टि संचार करती है।

अध्यात्म ग्रंथों में विशेषता उपनिषदों में कुँडलिनी महाशक्ति की चर्चा हुई है, पर उतने को ही पूर्ण पक्ष नहीं मान लेना चाहिए। उतने से आगे एवं अधिक भी बहुत कुछ कहने, जानने और खोजने योग्य शेष रह जाता है। इन अपूर्ण घटकों को मिलाकर हमें वस्तुस्थिति समझने अधिक जानने के लिए अपना मस्तिष्क खुला रखना चाहिए।

‘कठोपनिषद्’के यम-नचिकेता संवाद में जिस पंचाग्नि विद्या की चर्चा हुई है, उसे कुँडलिनी महाशक्ति की विधि-विवेचना कहा जा सकता है। ‘श्वेताश्वेतर उपनिषद् में उसे’योगाग्नि’कहा गया है और बताया गया है कि इसके जागरण से मनुष्य का शरीर योगाग्निमय हो जाता है। वह रुग्णता, वार्धक्य एवं मृत्यु पर विजय पा लेता है-यथा-

’नतस्य रोगों न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्। ’

दैनिक योग प्रदीपिका में उसे ‘स्पिरिट फायर’कहा गया है। जानवुडरफ सरीखे सुप्रसिद्ध तंत्रावेषी उसे ‘सर्पेन्टाइन फायर’नाम देते रहे हैं। थियोसोफिकल सोसायटी की संस्थापिका मेडम ब्लैवेट्स्की ने उसे विश्वव्यापी विद्युत शक्ति “कास्मिक इलेक्ट्रिकसिटी” नाम दिया है। उनने उसकी विवेचना विश्व विद्युत के समतुल्य चेतनात्मक प्रचंड प्रवाह के रूप में की है।

अपने ग्रंथ-”वायस आफ दि साइलेन्स” में उनने कहा है कि सर्पवत् या बलयान्विता गति अपनाने के कारण उस महाशक्ति को कुँडलिनी कहते हैं। इस सामान्य गति को योग साधक अपने शरीर में चक्राकार बना लेता है। इस अभ्यास से उसकी वैयक्तिक शक्ति बढ़ती है। कुँडलिनी विद्युतीय अग्नि युक्त गुप्त शक्ति है। यह वह प्राकृतिक शक्ति है जो सेन्द्रिय एवं निरीन्द्रिय प्राणियों और पदार्थों के मूल में विद्यमान है।

ब्रह्मांड में दो प्रकार की शक्तियाँ काम करती हैं एक लौकिक-सेकुलर और दूसरी आध्यात्मिक-स्प्रिचुअल। इन्हें फिजीकल एवं मेटाफिजीकल भी कहते हैं। कुँडलिनी ब्रह्मांडव्यापी आध्यात्मिक शक्ति है। यद्यपि यह साधक द्वारा उच्चस्तरीय साधना करने पर जाग्रत होती है, पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह साधक की अपनी उपार्जित पूँजी है। यह एक प्रचंड विश्वव्यापी दिव्य शक्ति है जिसे उपयुक्त सत्पात्र अपनी आत्मिक संपदा और सशक्तता बढ़ाते हैं। उस उपार्जित संपदा के आधार पर साँसारिक वैभव और आत्मिक वर्चस्व का दुहरा लाभ मिलता है।

पिछले दिनों कुँडलिनी महाशक्ति की सत्ता तो स्वीकार की गयी, पर वैज्ञानिक क्षेत्रों में उसे किन्हीं शारीरिक क्षमताओं का एक रूप देने का प्रयत्न किया गया है। शरीर विज्ञानियों ने उसे नाड़ी संस्थान से उद्भूत ‘ग्नवर्स फोर्स’ कहा है। मूर्धन्य विज्ञानवेत्ता डॉ. रेले ने अपने बहुचर्चित ग्रंथ -”मिस्टिरियस कुँडलिनी“ में उसकी वेगस नर्व्स के रूप में व्याख्या की है। माँसपेशियों और नाड़ी संस्थान के संचालन के काम आने वाली सामर्थ्य को ही अध्यात्म प्रयोजनों में काम करने पर कुँडलिनी संरक्षक बनने का वे प्रतिपादन करते हैं। उनके मतानुसार यह शक्ति जब नियंत्रण में आ जाती है तो उसके सहारे शरीर की ऐच्छिक और अनैच्छिक गतिविधियों पर इच्छानुसार नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। वह आत्म नियन्त्रण बहुत बड़ी बात है। इसे प्रकारांतर से व्यक्तित्व के अभीष्ट निर्माण की तदनुसार भाग्य निर्माण की सामर्थ्य कह सकते हैं। वे इसी रूप में कुँडलिनी का गुणगान करते और उसकी उपयोगिता बताते हुए उसके जागरण का परामर्श देते हैं।

डॉ. रेले की उक्त पुस्तक की भूमिका तंत्र मर्मज्ञ सर जॉन वुडरफ ने लिखी है। जिसमें उन्होंने रेले के इस अभिमत से असहमति प्रकट की है कि वह शरीर संस्थान की विद्युतधारा मात्र हे। उन्होंने लिखा है-’वह एक चेतन और महान सामर्थ्यवान शक्ति है- ग्राण्डपोटेन्शियल है जिसकी तुलना अन्य किसी पदार्थ या प्रवाह से नहीं की जा सकती। उनके अनुसार नाड़ी शक्ति कुँडलिनी का एक स्थूल रूप ही है, वह मूलतः नाड़ी संस्थान या उसका उत्पादन नहीं है। वह न कोई भौतिक पदार्थ है और न मानसिक शक्ति। वह स्वयं ही इन दोनों प्रवाहों को उत्पन्न करती हैं। स्थिर सत्यस्टेटिक रियल और गतिशील सत्य-फैनामिक रियल एवं अवशेष शक्ति ”रेजीडुअल पावर” के समन्वित प्रवाह की तरह इस सृष्टि में काम करती है। व्यक्ति की चेतना में वह प्रसुप्त पड़ी रहती है। इसे प्रयत्नपूर्वक जगाने वाला विशिष्ट सामर्थ्यवान बन सकता है।

विज्ञान की भाषा में कुँडलिनी को जीवनी शक्ति अथवा जैव चुम्बकीय विद्युत कहते हैं। इसका केन्द्र मस्तिष्क माना गया है, तो भी यह रहस्य अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ कि मस्तिष्क को अपनी गतिविधियों के संचालन की क्षमता कहाँ से मिलती है?योगशास्त्र इसका उत्तर मूलाधार में निहित काम बीज की ओर संकेत करते हुए बताता है कि अव्यक्त मानवी सत्ता को व्यक्त होने का अवसर इसी केन्द्र से मिलता है। वही काम तंत्र के विभिन्न क्रियाकलापों के लिए आवश्यक प्रेरणा भी देती हैं। यही वह चुम्बकीय ‘क्रिस्टल’है जो काया के ट्रांजिस्टर को चलाने वाला आधार खड़े करता है। काम-शक्ति के प्रकटीकरण का अवसर जननेन्द्रिय के माध्यम से मिलता है, अतः उस स्थान पर अव्यवस्थित मूलाधार चक्र को कुँडलिनी केन्द्र एवं संक्षेप में ‘कुँड’कहते हैं।

हठयोग के व्याख्याकारों ने वस्ति क्षेत्र के गह्वर में अंडे की आकृति वाले ‘कंद’ के साथ उसका संबंध जोड़ा है। शिव संहिता में कहा गया है गुदाद्वयं गुलतश्चोर्ध्वं मेढ्रैकाँगुलतस्त्वधः एवं चास्ति समं कदं समता चतुरंगलम्। अर्थात् गुदा से दो अंगुल ऊपर और लिंगमूल से एक अंगुल नीचे चर अंगुल विस्तार ‘कंद’ का प्रमाण है। इसी में आगे उल्लेख है-’गुदा एवं शिश्न के मध्य में जो योनि है-वह पश्चिमाभि मुखी अर्थात् पीछे का मुख है, उसी स्थान में ‘कंद’है और इसी स्थान में सर्वदा कुँडलिनी स्थिति है।

कुँडलिनी परिचय में स्थान-स्थान पर स्वयंभू लिंग की चर्चा है। बहुत स्थानों पर उसे ‘कंद’भी कहा गया है। यह क्या है?इसे जानने के लिए स्थूल शरीर से संबंधित शरीर शास्त्र और सूक्ष्म शरीर संबंधित शरीर अध्यात्म शास्त्र का पर्यवेक्षण किया जा सकता है। शरीर में यह घटक सुषुम्ना का मेरुदंड का नीचे वाला अंतिम छोर है जिसे ’काँडा इक्वाइना’भी कहते हैं। मेरुदंड मस्तिष्क से प्रारंभ होकर चेचु (काक्सीक्स) की अंतिम कशेरुका तक जाती है। और इसके बाद रेशमी धागों की भाँति शुँडाकृति हो जाती है। उसके अंत में अगणित पतले-पतले धागों से पैदा हो जाते हैं। जिससे नाड़ी तंतुओं का एक सघन गुच्छा तैयार हो जाता है। इसी गुच्छक को ‘काँडा इक्वाइना’ कहते हैं। सूक्ष्म शरीर के ‘कंद’ का इसे प्रतिनिधि कहा जा सकता है। शरीर शास्त्र की दृष्टि से यही स्वयंभू लिंग है। मूलाधार चक्र में ‘आधार’शब्द इसी स्थान के लिए व्यवहृत हुआ है। रीढ़ की अंतिम चार अस्थियों के सम्मिलित सुच्चय को भी कई मनीषियों ने कंद बताया है। मल-मूत्र छिद्रों के मध्य स्थान पर मूलाधार चक्र बताया गया है। उसे चमड़ी की ऊपर सतह नहीं मान लेना चाहिए, वरन् उस स्थान की सीध में ठीक ऊपर प्रायः तीन अंगुल ऊँचाई पर अव्यवस्थित समझना चाहिए। इस तरह मूलाधार मल-मूत्र छिद्रों के मध्य वाली सीध पर अंतः गह्वर में स्थित मानना चाहिए। कुँडलिनी को ‘सार्वभौमिक जीवन तत्व’कहा गया है। इसके भीतर आकर्षण और विकर्षण की दोनोँ ही धारायें विद्यमान हैं। भौतिक विज्ञान की दृष्टि से उन प्रवाहों को जैवीय विद्युत एवं जैव चुंबकत्व कह सकते हैं। मनीषी हर्बर्ट स्पेन्सर के अनुसार इसे -”ऐसेन्स ऑफ लाइफ“ जीवन सार कहा जा सकता है। बाइबिल के अनुसार यही तत्त्व महान सर्प है। अध्यात्मशास्त्र इसे ब्रह्माग्नि कहते हैं और इसका केन्द्र ब्रह्मरंध्र को मानते हैं। वहाँ से यह मूलाधार की ओर दौड़ती और वापस आती है। पाश्चात्य मनीषी आर्थर एवलन ने इसी को संग्रहित शक्ति बताया है और कहा है कि ‘जो महत् ब्रह्म सत्ता -ग्रेट कास्मिक फोर्स ब्रह्मांड का सृजन एवं धारण करती है, उसकी व्यक्ति देह में अवस्थित प्रतिनिधि सत्ता का नाम कुँडलिनी महाशक्ति है। ’स्वामी विवेकानन्द के अनुसार -”वह केन्द्र, जहाँ समस्त अवशिष्ट संवेदनायें संचित संग्रहित हैं, मूलाधार चक्र कहलाता है। वहाँ पर कुँडलिनी शक्ति कहा जाता है। प्राणायाम व योग साधना द्वारा इसे जगाया जा सकता है। ”

‘षट्चक्र निरूपण’ के अनुसार मूलाधार स्थित त्रिकोण के भीतर स्वर्ण के समान स्वयं भूलिंग है, जिस पर कमल तन्तु के समान ब्रह्मद्वार को अपने मुख से ढके हुए विद्युत एवं पूर्ण चन्द्रमा की आभायुक्त अतिसूक्ष्म कुँडलिनी शक्ति सो रही है। इसी तरह योगकुण्डल्युपनिषद् में उल्लेख है कि मूलाधार के मध्य वह आत्मतेज, ब्रह्मतेज रूपी कुँडलिनी निवास करती है। वही जीव की जीवनी शक्ति है, प्राणशक्ति है। वह तेजस् रूप है। इसी में आगे -1/43-45 श्लोकों में वर्णन है कि इस अग्नि मंडल में साधक का जब, अपान प्राण, जाकर मिलता है तो अग्नि की लपटें और तीव्र हो जाती हैं। उस अग्नि से गरम होने पर सोई हुई कुँडलिनी जगती हैं और लाठी से छेड़ने पर सर्पिणी जिस प्रकार फुंसकार कर उठती हैं, वैसे ही यह कुँडलिनी भी जाग्रत होती है। जाग्रत कुँडलिनी षट्चक्र वेधन करती हुई सहस्रार में पहुँचती है। जो इस रहस्य को जानता है ब्रह्मवर्चस् प्राप्त करता है, नर से नारायण बनने का अवसर प्राप्त करता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118