व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की धुरी-अध्यात्म

November 1993

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन एवं मानव समाज में सुख-शाँति की परिस्थितियां किस आधार पर बनेंगी यदि इस प्रश्न का संक्षिप्त सा उत्तर दिया जाये, तो वह होगा मनुष्य में मनुष्यता विकास से। इसी को प्रकारांतर से व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास भी कह सकते हैं। व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास का तात्पर्य मात्र शारीरिक स्वस्थता एवं बौद्धिक प्रखरता के युग्म को मानना भूल होगी। इसका सही व स्वस्थ स्वरूप सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को व्यक्तित्व में विकसित करने से प्रकट होता है।

मानवी समाज में व्यक्ति के भिन्न-भिन्न स्तर दिखाई देते हैं। एक से काय-कलेवर के होते हुए भी गुण, कर्म स्वभाव का अंतर ही एक की अपनी अलग पहचान बना देता है। मानवी मूल्यों की अवहेलना कर उलटी राह पर चलने वाले नर पशु, नर पिशाच की श्रेणी में गिनें जाते हैं। तो साँस्कृतिक एवं सामाजिक आदर्शों के अनुरूप जीवन पद्धति पर चलने वाले महा-मानव की श्रेणी में जा विराजते हैं। मनोवैज्ञानिकों के अन्दर जिज्ञासा बराबर बनी रही है कि परिपक्व व्यक्ति की पहचान क्या है?उसके सही लक्षण क्या हैं?

इस संदर्भ में प्रो.जी. डब्लू. आलपोर्ट ने अपने मंतव्य इस प्रकार प्रकट किये हैं-”व्यक्ति की परिपक्वता, अपने गुणों के विस्तार एवं कमियों को खुले दृष्टिकोण से स्वीकार कर सुधारने की वृत्ति के साथ आती है। ”एक परिपक्व व्यक्ति के जीवन दर्शन में एकरूपता का समावेश होता है। उसके अन्तस् में मानव मात्र के कल्याण की भावना विकसित होती है, जिसके आधार पर वह समता, सौहार्द, सहयोग तथा मैत्री पूर्ण व्यवहार करता दिखाई देता है।

मूर्धन्य मनीषी अब्राहम एच.मैसलो ने अपनी पुस्तक “टुवार्डस ए साइकोलॉजी ऑफ बीइंग“ में परिपक्व व्यक्तित्व की व्याख्या करते हुए लिखा है कि हर व्यक्ति आत्म सिद्धि प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर है। यही उसकी समस्त क्रियाओं की अभिप्रेरणा है। किन्तु जब तक व्यक्ति अपने में सादगी, शालीनता, सच्चरित्रता जैसे आध्यात्मिक गुणों का विकास नहीं कर लेता उसके व्यक्तित्व में परिपक्वता और सर्वांगीण उन्नति नहीं आती। आत्म सिद्धि उसके बाद का अगला चरण है। मैसलो के शब्दों में इस प्रकार का व्यक्तित्व जीवन और समाज के यथार्थ को भली भाँति ग्रहण करता है। उसके जीवन में अधिक सहजता होती है। वह जीवन की समस्याओं को तटस्थ होकर समझता है और उनका समाधान ढूँढ़ता है। स्वयं समस्याओं से प्रभावित नहीं होता। मैसलो के ऐसे व्यक्तित्व की परिकल्पना में और गीता के समत्व भाव से युक्त पुरुष में कोई अंतर नहीं है। गीता के दूसरे अध्याय के 48वें श्लोक में भगवान कृष्ण कहते हैं। ”योगस्थ कुरु कर्माणि संगं त्यकत्वा धनंजय।” अर्थात् आसक्ति को त्याग कर सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित होकर कर्मों को करने वाला व्यक्ति समत्व-भाव से युक्त मनुष्य है। मनोवैज्ञानिकों साईमंडस ने भी परिपक्व व्यक्ति को “आँतरिक द्वन्द्वों और बाह्य दुर्गुणों से मुक्त बतलाया है। ”पाश्चात्य मनोविज्ञान में परिपक्व व्यक्तित्व का जो स्वरूप उभर कर आता है उसमें भी भारतीय दर्शनों एवं मनोविज्ञान के परिपक्व व्यक्तित्व की अवधारणा का ही समावेश दिखाई देता है।

भारतीय जीवन दर्शन का निचोड़ हमें गीता में मिलता है। अतः गीता में वर्णित आदर्श पुरुष की व्याख्या से हमें पूर्व के मनोविज्ञान में परिपक्वता की परिभाषा मिलती है। इसके अनुसार व्यक्ति के स्वभाव एवं स्वरूप में तीन गुणों की प्रधानता होती है। ये गुण हैं सत्व, रज और तम। इन्हीं तीन गुणों से प्रभावित समूचा मानव समुदाय दिखाई देता है। लेकिन सभी व्यक्तियों में इन तीन गुणों की मात्रा समान रूप से नहीं होती। गुणों की मात्राओं का भेद व्यक्ति के व्यक्तित्व में परिपक्वता संबंधी भिन्नता भी उत्पन्न करता है। सत्व, गुण की प्रधानता से व्यक्ति ज्ञान पर बल देता है। शरीर स्वास्थ अच्छा होता है। सत्व गुण की विशेषता है निर्मलता। इस गुण की प्रधानता लिए व्यक्ति मन में सुख और ज्ञान के प्रति आसक्ति बनाये रखने के कारण श्रेष्ठ होते हुए भी जीवन में कठिनाईयां को अनुभव करता है। रजोगुण प्रधान व्यक्ति में आसक्ति अत्यधिक होती है और इस कारण वह विभिन्न प्रकार की तृष्णाओं और कामनाओं से ग्रस्त रहता है। तमोगुण से प्रभावित व्यक्ति अज्ञानी होता है। वह लापरवाही से काम करता है। उसमें आलस्य प्रमाद एवं विभिन्न प्रकार के भ्रमों की प्रधानता होती है।

तात्पर्य यह है कि इन कमियों के रहते व्यक्ति गीता के अनुसार परिपक्व नहीं होता। परिपक्वता के लिए व्यक्ति का गुणातीत भाव में प्रतिष्ठित होना आवश्यक है। गीताकार ने ऐसे व्यक्ति की व्याख्या करते हुए कहा है -वह निरंतर आत्म भाव में स्थित होकर दुःख सुख को समान समझने वाला है। धैर्यवान है, प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है, वह निंदा स्तुति में भी समान भाव वाला है। वह संपूर्ण कार्यों में कर्तापन के अभिमान से रहित रहता है?इसके अनुसार परिपक्व व्यक्ति के लक्षण स्थिति-प्रज्ञ व्यक्ति ही परिपक्व व्यक्ति है।

श्री अरविंद ने अपने सर्वांगपूर्ण योग-दर्शन में व्यक्तित्व की व्याख्या चेतना के विभिन्न स्तरों एवं सोपानों के संदर्भ में की है। उनके अनुसार-मानवीय व्यक्तित्व के वल चेतन और अचेतन मन का अच्छा या बुरा संगठन नहीं है। उसका अति महत्व यदि मानवी विकास क्रम उच्चतर अवस्थाओं की ओर अग्रसर हो रहा है तो अवश्य ही वे उच्चतर अवस्थायें सम्भावनाओं के रूप में उसकी प्रकृति में आज भी अति चेतन में निहित है। इसलिए यह भाग महत्वपूर्ण है। मानव का विकास मार्ग जिसे वह तय कर चुका है उसके अवचेतन को निर्धारित करेगा। वे कहते हैं कि मनुष्य के अवचेतन में स्थित भूत संस्कार मात्र ही वर्तमान व्यवहार को ही नहीं बनाते, वरन् अति चेतन का प्रभाव भी उस पर रहता है, जिसके बल पर मनुष्य का व्यक्तित्व रूपांतरित होता है। परिपक्व व्यक्तित्व के संदर्भ में भी अरविंद का बल उस आध्यात्मिक तत्व पर है, जिसकी उपलब्धि होने पर व्यक्ति पर शाँति, आनंद और प्रकाश की प्राप्ति करता है। वही व्यक्ति अपने अंतरमन में प्रकाश पुँज पा सकते हैं, जिसे उन्नत होने, ऊपर उठने, विकसित होने, की सच्ची, गंभीर सतत् अभिलाषा, इच्छा तथा आकाँक्षा है। वह परिपक्व व्यक्तित्व के लिए त्याग को आवश्यक मानते हैं।

आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी दृष्टि को सीमित तथा क्षणिक स्वार्थों से हटायें, अहंकार की बेड़ियों को तोड़ें और स्नेह-सौजन्य के आधार पर कुटुम्बकम्’की भावना को अंगीकार करें। यह छोटा चरण भी व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की दिशा में महत्वपूर्ण कदम साबित होगा। इसी के सहारे विश्व वसुंधरा पर सुख-शाँति का साम्राज्य स्थापित हो सके गा। समय की माँग भी यही है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118