अमेरिका के हैवीवेट बौक्सिंग चैम्पियन जौय फ्रेजर ने अपनी सफलता का एक मात्र कारण शुभ संभावनाओं से भरा पूरा चिंतन और ईश्वर विश्वास को बताया है। फ्रैजर को अपने जीवन काल में धार्मिक पुस्तकें पढ़ने और देवालयों में जाकर देवाराधना करने में गहन अभिरुचि थी। बचपन से ही बौक्सर बनने की मान्यता उसके अन्तः करण में जम चुकी थी और तद्नुरूप प्रयत्न भी जुटते चले गये। इतना ही नहीं आर्की मूर जैसे प्राणवान, आत्म विश्वासी एवं प्रतिभा के धनी व्यक्ति की संगति पाकर उसका संकल्प और भी दृढ़ होता चला गया। यद्यपि फ्रैजर की आर्थिक स्थिति अनुकूल नहीं थी, फिर भी उसने अपनी मनःस्थिति को विचलित नहीं होने दिया। फलतः वर्ष 1964 में टोकियो में आयोजित ओलम्पिक गेम्स में यू.एस.ए. की तरफ से प्रतिनिधि चुना गया।
परमात्मा का अनुग्रह भी पुरुषार्थी को ही प्राप्त होता है। फ्रैजर मैच के बाद जीतता चला गया। किन्तु कुछ दिनों बाद अवरोध भी सामने आये सेमी फाइनल के एक मैच में उसके बाँये हाथ का अंगूठा टूट गया था। फिर भी उसने अपने मनोबल को गिरने नहीं दिया और विरोधी परिस्थितियों में भी फाइनल गेम को जीत सकने में सफल रहा। स्वर्ण पदक विजेताओं की शृंखला में अपना नाम दर्ज करा सका।
फ्रैजर ने अपनी सफलता के रहस्य को प्रकट करते हुए बताया है कि सेमीफाइनल की रात्रि को मैंने एक होटल में अपना कमरा बंद करके गर्म पानी से स्नान किया और परमात्म सत्ता के ध्यान में अवस्थित हो गया। अचानक ही मेरे अंतराल कुछ ऐसे प्रेरणास्पद शब्द सुनाई देने लगे कि तुम्हारे पिताजी का तो पूरा बायाँ हाथ ही नहीं रहा था, फिर भी वे 13 बच्चे और माँ के जीवन निर्वाह की व्यवस्था भली प्रकार जुटाने में सफल रहे, पर तुम्हारा तो एक मात्र अँगूठा ही टूटा है इस आत्म प्रेरणा ने ही मेरी प्रसुप्त प्रतिभा को जगाया जिसके फलस्वरूप चैम्पियन बनने का सौभाग्य मिला। उनका कहना है कि ईश्वर की शक्ति पर विश्वास रखने का एक ही प्रतिफल होता है आत्म-विश्वास की जाग्रति। जिससे चिंता को विधेयात्मक दिशा मिलती और असंभव दिखने वाले कार्य भी संभव होते जाते हैं।
इस संदर्भ में अमेरिका के सुप्रसिद्ध मनोविज्ञानी डॉ. नौर्मन विन्सेट पील ने अपनी पुस्तक ‘ट्रैजरी आफ करेज एण्ड कान्फीडेन्स‘ में लिखा है कि व्यक्ति के अंतरंग से आत्म-विश्वास की आशा-उत्साह भरी किरणें फूट पड़ें तो सफलता मिल कर रहती है। चार शब्दों का जादुई फार्मूला ’इट कैन बी डन’ अर्थात् ‘यह कार्य किया जा सकता है। ‘को प्रस्तुत करते हुए उनने बताया है कि इस तरह कि उत्साह वर्धक विचारों को पनपने से असंभव दिखने वाला कार्य भी संभव हो जाता है ईश्वरीय सत्ता में विश्वास रहने के कारण ही इस तरह के संकल्प पूरे होते देखे गये हैं। अंधविश्वासोँ और अंध मान्यताओं का शिकार बनने पर तो व्यक्ति को निराशा और हताशा के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता अपने भीतर से उत्साह जगाने पर ही दैवीय चेतना सहायक के रूप में सिद्ध होती है।
संसार में ऐसे कितने ही व्यक्ति हुए हैं। जिनने विपन्नता एवं कठिन परिस्थितियोँ के बीच रहकर भी आत्म-विश्वास एवं ईश्वरीय आस्था के बल पर उसका डटकर मुकाबला किया और क्रमशः प्रगति करते हुए चरम उत्कर्ष पर पहुँचे। संकल्प बल जगते ही प्रयास भी तद्नुरूप चल पड़ते हैं। और अदृश्य सहायता भी मिलती है।
इंग्लैण्ड में जन्मी मैरी बेकर एडी का बाल्यकाल बड़ी विपन्न एवं विषम परिस्थितियों से गुजरा। उसके माता-पिता सामान्य कृषक एवं धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। छठी संतति होने एवं विपन्नता के कारण उसके उपयुक्त भरण-पोषण की सुविधा नहीं जुट पाई तो शारीरिक रुग्णता का शिकार बनना पड़ा। पर उसकी धार्मिक निष्ठा और ईश्वर विश्वास में कमी नहीं आई। बारह वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उसे एकाएक दैवी चेतना की सत्प्रेरणा उभरी कि आत्म-विकास और जनमानस के कल्याण हेतु कुछ कर गुजरना चाहिए। मैरी ने कविता लिखना आरंभ कर दिया जिन्हें स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित किया गया। मैरी ने ईसा की रोगोपचार संबंधी उपदेश कथाओं ‘गोस्पैल स्टोरीज ‘का स्वाध्याय बड़ी अभिरुचि के साथ किया और तद्नुरूप ईश्वर उपासना, साधना, और आराधना का उपक्रम भी बिठाती चली गयी। फलतः आरोग्य लाभ भी हस्तगत हुआ।
इतना ही नहीं आत्म-विश्वास और ईश्वर विश्वास की सम्मिलित शक्ति से उत्पन्न प्राण ऊर्जा से चिकित्सा उपचार की विधि व्यवस्था से लोगों को भली-भाँति अवगत कराने के लिए उसने कई व्याख्यान भी दिये। अपने गहन अध्ययन, अन्वेषण, और अनुभवों के आधार पर मैरी ने ’साइंस एण्ड हैल्थ’ नामक एक पुस्तक लिखी जिसे दस वर्ष बाद प्रकाशित किया गया। मैरी ने मनोकायिक औषधि और आइंस्टीन द्वारा प्रतिपादित पदार्थ और चेतना के संबंधों का लंबे समय तक अध्ययन किया जो उसके कार्य में सफलता का आधार बन गया। उसकी चिकित्सा प्रणाली का मूलभूत आधार व्यक्त अलौकिक विज्ञान ’इंम्परसनल मैटाफिजीकल साइंस’ था। जिसमें व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं को महत्व न देकर सार्वभौमिक नियम व्यवस्था के अनुरूप चिंतन, चरित्र एवं व्यवहार का स्वरूप निर्धारित किया जाता है। उसकी दृष्टि में यदि विश्वव्यापी दैवी चेतना के संदेशोँ को ग्रहण कर लिया जाय और तद्नुरूप सन्मार्ग पर अग्रसर होने का प्रयास भी चल पड़ें तो स्वास्थ संवर्धन के साथ ही समग्र प्रगति का द्वार भी खुल सकता है। आस्था ही वह मूल तत्व है जो परमात्मा सत्ता को सत्पात्र पर अपना प्यार बखेरने के लिए विवश कर देती है। इसे इस घटना के माध्यम से भी समझा जा सकता है।
अमेरिकी पादरी एवं मनोविज्ञानी विन्सेंटपील ने अपनी उक्त पुस्तक ”ट्रैजरी आफ करेज एण्ड कान्फीडेन्स” में इस तथ्य की पुष्टि एक घटना के माध्यम से की है। युद्ध के समय एक बालक बुरी तरह घायल हो गया जिसे अस्पताल में भर्ती कर दिया गया। बच्चे की माँ को इस बात की सूचना भिजवा दी गयी कि आपका बच्चा जल्दी ही दम तोड़ने वाला है। वह दौड़ती हुई अस्पताल पहुँची और अपने बेटे से मिलने के लिए आग्रह करने लगी। लेकिन चिकित्सकों के मुँह से यही निकला कि बच्चा अपनी जिन्दगी और मौत के मध्य की स्थिति से गुजर रहा है। मामूली सी उत्तेजना भरा माहौल उसकी जीवन लीला को समाप्त कर सकता है। वह इस समय अचेतन अवस्था में पड़ा है उसे कोई आभास नहीं है कि मुझसे मिलने के लिए कौन आया है? माँ ने यह शर्त मान ली कि वह बच्चे के पास किसी तरह का कोई शब्द मुँह से नहीं निकालेगी और न ही किसी तरह का शोर-शराबा मचायेगी। मात्र बेटे के पास थोड़ी देर बैठने की ही इच्छा प्रकट की। चिकित्सकगण महिला की करुण और ममता भरे भावों को देखकर द्रवित हो उठे और मिलने की आज्ञा दे दी। पर शर्त ज्यों की त्यों बनी रही कि बच्चे के पास बैठकर मुँह से कोई शब्द न निकालें। माँ बच्चे के पास बैठी और अपने पवित्र अन्तःकरण से ईश्वर से प्रार्थना करने लगी। बच्चे की आँखें बन्द थीं। माँ ने उसकी भौंहों पर धीरे-धीरे हाथ फेरा। बिना नेत्र खोले ही बच्चा बोल उठा कि माँ तुम आ गई। माँ के स्नेह सद्भाव का हाथ उसके लिए दैवी अनुकंपा, आशीर्वाद-वरदान के रूप में फलित होने लगा और वह जल्दी आरोग्य लाभ प्राप्त कर सका।
डॉ.रौबर्ट ऐन्थाँनी ने अपनी पुस्तक ‘टोटल सैल्फ कान्फीडेन्स’ में आत्म विश्वास की शक्ति को सर्वोपरि बताया है। मनुष्य की शारीरिक मानसिक गतिविधियों का निर्धारण भी उसी आधार पर होता है। कार्य में निष्क्रियता और सक्रियता का अनुमान आत्मबल की न्यूनाधिकता से ही लगाया जा सकता है। इस तथ्य की पुष्टि के लिए उनने एक महिला का उदाहरण प्रस्तुत किया है। सम्मोहन विद्या का प्रयोग करके महिला के मन-मस्तिष्क में एक ही बात कूट-कूट कर भर दी गयी है कि वह टेबल पर रखी पेंसिल को इधर-उधर खिसका नहीं सकती है। इस तरह का विश्वास में मन में जम जानें का प्रतिफल था कि उसे मामूली सा कार्य भी असंभव दिखने लगा। यदि उसे अपने अंतर्मन की प्रसुप्त क्षमता का आभास रहा होता तो वैसी स्थिति का सामना करना नहीं पड़ता। आत्म-विश्वास गंवा देने के यही परिणाम सामने आते हैं। प्रसुप्त चेतना की जाग्रति से ही मनुष्य को अपनी असीम सामर्थ्य का पता चलता है आत्म विश्वास ही इसका मूल आधार है।