“लोकमान्य तिलक काँग्रेस अधिवेशन में भाग लेने लखनऊ आये। वहाँ उनका कार्यक्रम इतना व्यस्त था कि अपने निजी कार्यों के लिए भी समय निकालना बहुत मुश्किल था। बड़ी कठिनाई से वे भोजन का अवकाश पा सके। भोजन के समय परोसने वाले स्वयं सेवक ने कहा ”महाराज! आज तो आप को बिना पूजापाठ के ही भोजन करना पड़ा। ”लोकमान्य गम्भीर हो गये और बोले- ”अभी तक जो हम कर रहे थे वह भी एक प्रकार की पूजा थी “मात्र कर्मकाण्डों की लकीर पीटना ही पूजा नहीं है। समाज सेवा भी एक प्रकार की पूजा है, आराधना है।”
“राजा एक ऐसे विनम्र आदमी की खोज में था जिसे मंत्री बनाया जा सके। उसने अपने दूत भेजे और राज्यभर में से अति विनम्र आदमी खोज लाने को कहा। दूत एक गाँव में ठहरे और रात्रि विश्राम किया। उन्होंने देखा इस व्यक्ति के पास छः मंजिला हवेली है। नौकर चाकर, वाहन इत्यादि सब कुछ है। फिर भी फटे कपड़े पहनें फिरता है और कंधे पर मछली पकड़ने वाला जाल भी लिये घूमता है। उन्होंने पूछा ”भाई अब काहे की कमी है। इस जाल क्यों लटकाए घूमते हो। “उस व्यक्ति ने कहा ”यों ही। मैं धनवान अवश्य बन गया हूँ किंतु अपने पुराने समय को न भूल जाऊँ याद बना रहे इसलिए जाल लटकाए रहता हूँ “सिपाहियों ने सोचा इस व्यक्ति से अधिक विनम्र और कौन होगा? इसे तो अपने धन पर भी अहंकार नहीं है। इतनी बड़ी हवेली है। फिर भी फटा कोट पहनने में नहीं झिझकता। उसे चुन लिया गया और राजा के पास ले जाकर प्रस्तुत किया। राजा ने सब कुछ सुनने के बाद मंत्री पद नियुक्ति कर दी। जिस दिन से वह मंत्री बना कि उसने जाल एक तरफ फेंक दिया और फटे पुराने वस्त्र उतारकर कीमती पोशाक पहनकर राज भवन पहुँचा। तब लोगों ने पूछा ”अरे तुम्हारा जाल कहाँ गया। जिसे तुम अहंकार गलाने, सादगी बताने को लटकाए फिरते थे।” वह व्यक्ति बोला– ”अब जब मोटी मछली ही फँस गई तो अब जाल को कब तक लटकाए फिरूं। प्रभुता पा लेने, काम बन जानें के उपराँत पुरानी लीक पर फिर कितने लोग चलते हैं। ”