मंत्र सिद्धि के आधार स्तंभ

November 1993

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कई व्यक्ति मंत्र, जप या पूजा पत्री के विधि- विधानों को ही उपासना की समग्रता समझ बैठते हैं और जब कोई सत्परिणाम हाथ नहीं लगता तो उसकी निरर्थकता की शिकायत करते हैं। इन दिनों आस्तिकता पर दुहरी मार पड़ रही हैं। एक ओर विज्ञान और बुद्धिवाद ईश्वरीय सत्ता को प्रत्यक्ष न देख पाने से उसकी सत्ता को अस्वीकार करता है। अधिक से अधिक यह मानता है कि प्रकृति या ‘इकॉलाजी’ संदर्भ किसी प्रकार पदार्थ और प्राणी समुदाय का व्यवस्था - परक संतुलन बिठाये हुए है। इसमें भक्ति, करुणा, अनुकंपा जैसा कोई तत्व नहीं है और न कर्म फल सिद्धान्त कसौटी पर खरा उतरता है। आत्मा को वह चलते-फिरते पौधे की हलचल गिनता है। इस प्रकार भौतिकवाद को नास्तिकवाद के समीप ही मानना चाहिए।

दूसरी ओर प्रच्छन्न नास्तिकवादी है जो पूजा, पुजापे की रिश्वत देकर या जीभ की लपालपी से उलटे सीधे सभी कामों की मनोकामना पूरी कराना चाहते हैं। साथ ही स्वर्गलोक में राजशाही मौज मजा करने के रंग -बिरंगे सपने देखते हैं। सपने की अवधि तो किसी प्रकार कट जाती है, पर जब विलंब होने लगता है तो प्रत्यक्ष वैभव हाथ आया न देखकर परोक्ष स्वर्ग पर से भी आस्था खो बैठते हैं। साहस के अभाव में मन की बात तो नहीं कह पाते, पर मानने लगते हैं कि ईश्वर का पल्ला पकड़ना बेकार है। मंत्र जप या पूजा -पत्नी के झंझट में कोई सार नहीं हैं।

वस्तुतः यहाँ यह भुला दिया जाता है कि मंत्र जप का लाभ मात्र जीभ की नोक हिला देने भर से नहीं मिलता और न ही छिट-पुट पूजा-पत्री की भेंट चढ़ा देने भर से उपासना पूरी हो जाती है। मंत्र उपचार में जहाँ शक्ति का महत्व है, वहाँ उसके प्रयोक्ता का स्तर भी आवश्यक है। बारूद, गोली, कारतूस अपनी जगह अपना काम करते हैं, इस पर भी बन्दूक का अपना स्तर है। बढ़िया बन्दूकें सही और लंबा निशाना लगाती हैं, जबकि गाँव के लुहारों द्वारा बनाये हुए तमंचे उतना काम नहीं कर पाते। इसलिए मंत्र का उपयुक्त चुनाव करना तो आवश्यक है ही, पर इससे भी अधिक आवश्यकता इस बात की है कि प्रयोक्ता ने अपना स्तर पवित्र और प्रखर बना लिया हो। इसके लिए उसने आवश्यक तपश्चर्या की हो। मंत्र जप का सत्परिणाम तभी मिलता है।

मंत्र जप में श्रद्धा भी एक पक्ष है। जिस उपासना, देवसत्ता एवं क्रियाकृत्य पर अटूट श्रद्धा और अडिग विश्वास हो, उसका प्रतिफल भी चमत्कारी होगा। किंतु यदि अन्यमनस्कता, उपेक्षापूर्वक, बेगार भुगतने, लकीर पीटने की तरह उसे किसी तरह निबाहते रहा जाये तो वही मंत्र एक प्रकार से निष्फल, निरर्थक जैसा बन जाएगा नाम मात्र का प्रतिफल ही उससे दृष्टिगोचर होगा।

श्रद्धा होने पर किसी संत की दी हुई भभूत भी बहुमूल्य औषधि जैसा, पुण्य प्रसाद जैसा फल देती है, किंतु उसी को यदि अविश्वास -उपहासपूर्वक कौतूहल की तरह काम में लिया जाये तो उससे किसी बड़ी संभावना की आशा नहीं की जा सकती। श्रद्धा से पत्थर में भी देवता जैसी सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है। उसका अभाव हो तो प्रतिमा का खिलौने से बढ़कर और कोई अर्थ नहीं रह जाता।

कहा जाता है कि “शंका डायन और मनसा भूत। ” झाड़ी से भूत इसी प्रकार उत्पन्न होते हैं। रात्रि के सुनसान जंगल में पीपल के पत्तों का खड़खड़ाना और उल्लू जैसे पक्षियों का विचित्र शब्दों में बोलना किसी डरपोक का भूतों की उपस्थिति का अनुभव कराता है और वह उतने भर से घबरा जाता है। इसी प्रकार गले में गायत्री का रक्षा कवच बाँधकर मनुष्य भयानक विपत्तियों के बीच में से गुजर जाता है। यह श्रद्धा का ही प्रतिफल है अनेक व्यक्तियों को गायत्री महामंत्र की उपासना के फलस्वरूप अनेक प्रकार के कष्टों से छुटकारा पाते और अनेक सुविधायें उपलब्ध करते हुए देखकर हमें यही अनुमान लगाना चाहिए कि उस मंत्र जप में ऐसे वैज्ञानिक तथ्यों का समावेश अवश्य है जिनके कारण उपासक की अंतः भूमि में आवश्यक हेरफेर होते हैं और वह असफलताओं एवं शोक -संतापों पर विजय प्राप्त करते हुए तेजी से समुन्नत समर्थ एवं सफल जीवन की ओर अग्रसर होता है।

रामायणकार ने “मंत्र परम लघु जासु बस” कहकर मंत्र की सर्वोपरि शक्ति और महत्ता का वर्णन किया है। मंत्र शक्ति की इतनी महत्ता होने पर भी सभी लोग वह सामर्थ्य नहीं जुटा पाते, उसकी सफलता में उन्हें संदेह बना ही रहता है। उसका कारण और कुछ नहीं, अंतःकरण का गहरा और उथला होना अर्थात् श्रद्धा और विश्वास की कमी का होना ही है। मंत्र में सन्निहित भावनाओं को प्रखर बनाने के लिए जिस परिष्कृत और समर्थ व्यक्तित्व की आवश्यकता होती है, वह न जुटा पाने से मंत्र अपना सामान्य प्रभाव ही अभिव्यक्त करके रह जाता है। उससे कुछ विशेष लाभ मिलता नहीं। व्यक्तित्व को ऊँचा उठाने का कार्य वाणी की सत्यनिष्ठ सरलता और मधुरता से प्रारंभ होता है। और जीवन के प्रत्येक क्रियाकलाप में छा जाता है। जिस तरह मैले शीशे पर पड़ने वाली प्रकाश की किरणें अपना कोई प्रभाव नहीं दिखा पातीं, उसी तरह मलिन अंतःकरण में पड़ने वाले मंत्र का प्रकाश केवल मात्र उसी सफाई में लगा रहेगा। यदि व्यक्ति की जीवन दिशा अपने दोष -दुर्गुणों को ढूँढ़ निकालने और उनके स्थान पर सद्गुणों की प्रतिष्ठा की हुई हो तब तो उस स्थिति में मंत्र जप का प्रभाव लिंब से ही सही देखने को मिल जाता है। पर यदि आहार -विहार, रहन-सहन, वाणी -व्यवहार द्वारा अंतःकरण को मल-विक्षेप से लादते रहा गया हो तो कितना ही अच्छा और अधिक मंत्र जप भी कोई प्रभाव परिणाम प्रस्तुत न कर सकेगा।

सितार के तारों पर क्रम विशेष से उँगलियाँ रखने से उसमें से भिन्न -भिन्न प्रकार की ध्वनि तरंगें स्वर लहरियाँ निकलती हैं। उसी प्रकार मंत्र के अक्षरों का क्रम जिस क्रम से ऋषियों ने बिठाया है, उसका अपना वैज्ञानिक महत्व है। गायत्री का अर्थ तो सीधा सादा हैं-भगवान् हमारी बुद्धि को निर्मल कर दें, पर उसके अक्षरों का गुँथन इस प्रकार के प्रभाव उत्पन्न करने वाली क्षमता प्रादुर्भूत होती है। गायत्री महामंत्र के जप से उत्पन्न पराध्वनि सृष्टि के सारे वातावरण के परमाणुओं को कँपा देने की शक्ति से ओतप्रोत हैं। साथ ही जपकर्ता की भावना के अनुरूप अदृश्य लोक से प्रेरणा, शक्ति और सहायता भी, खींच लाने में समर्थ है। गायत्री मंत्र के अर्थ का भाव लिए अनेकों छन्द वेदों में विद्यमान हैं और सद्बुद्धि के निमित्त प्रार्थना करने वाली भी अनेकानेक ऋचायें हैं, किन्तु जो विशेषता आदिशक्ति गायत्री में है वह और किसी में नहीं यह शब्द गुँथन की विशेषता है।

मुख से निकलने वाली शब्द प्रक्रिया द्वारा दिन भर बातचीत का क्रम चलता रहता है, पर उससे मात्र विचारों, का, जानकारियों का, आदान-प्रदान होता है। कुछ बातें ऐसी ही बकवास हँसी ठिठोली जैसी भी होती हैं, जो अपने को या सुनने वाले को मूर्ख बनाती हैं या निरर्थक समय नष्ट करती रहती हैं। उनमें काम का सार तत्व बहुत कम होता है।

किंतु मंत्रोच्चार में प्रयुक्त होने वाली वाणी का प्रभाव भारी भरकम होता है। वह शब्द भेद का काम करती है। परिमार्जित व्यक्तियों की परिमार्जित वाणी को “वाक्” या”परावाक्” कहते हैं। उसका प्रभाव सुनिश्चित रूप से होता है। नारदजी ने वाल्मीकि, ध्रुव, प्रहलाद, पार्वती, सावित्री आदि को जो परामर्श दिया, वह उनके पुराने जीवन प्रवाह को उलट देने में समर्थ हुआ। यदि कोई दूसरा इसी प्रकार की सलाह देता तो उसका प्रभाव कदाचित ही कुछ पड़ता।

योगीजन मात्र बैखरी वाणी का ही प्रयोग नहीं करते। मात्र जीभ से शब्दों का उच्चारण ही नहीं करते। उनकी शेष तीन वाणियाँ भी मुखर रहती हैं “मध्यमा, परा, पश्यंती वाणियाँ”जो मुँह से उच्चारित नहीं होती। इनमें मध्यमा चेहरे की भाव -भंगिमाओं से नेत्रों से प्रकट होती है। परावाणी के साथ विचार शक्ति और प्राणशक्ति जुड़ी होती है। वह कानों से सुनी तो नहीं जाती, पर प्रभाव इतना अधिक करती है जितना घंटों बोलते रहने पर भी नहीं हो सकता। पश्यंती वाणी अन्तःकरण से अंतरात्मा से निकलती है। उसी में शाप -वरदान देने की, ऊँचा उठाने आगे बढ़ाने की सामर्थ्य होती है। बैखरी वाणी से बोलना तो परिवारी लोगों के बीच रहकर ही बालक सीख लेता है, पर अन्य उच्चस्तरीय तीन वाणियों को मुखर बनाने के लिए सात्विक आहार, सत्यवचन, मौन आदि से लेकर अन्याय कई प्रकार की साधनायें करनी पड़ती हैं।

ब्रह्मदेव के चार मुख है। उन्होंने उन चारों से चार वेदों का सृजन किया। यह चतुर्धा प्रकटीकरण वस्तुतः बैखरी, मध्यमा, परा और पश्यंती इन चार वाणियोँ के ऊर्ध्वगामी उभार का अलंकारिक वर्णन किया है। यह कार्य ब्रह्मदेवता ने किया सो उसे आत्म देवता भी सम्पन्न कर सकता है। पुराणों की कथा है विष्णु भगवान की नाभि से उत्पन्न कमल नाल पर ब्रह्मा जी कई बार उतरे और ऊपर चढ़े। मंत्र साधना में यही होता है। उच्चारित होने के उपरान्त स्थूल शब्द अन्तःकरण के मर्मस्थल की गहराई में उतरता है और उस शक्ति स्रोत की ऊर्जा से सम्पन्न होकर ऊपर आता है। जब वह ऊपर आता है तो बैखरी में पश्यंती का वैसा ही प्रभाव होता है जैसा कि बिजली के संपर्क से धातु के तार में। वह मंत्रवत् शब्द समस्त सृष्टि में हलचल उत्पन्न करता है। सूक्ष्म जगत को स्पंदित करता है और व्यक्ति को सामान्य न रहने देकर उसे दैवी शक्ति से सम्पन्न बना देता है।

अध्यात्म क्षेत्र में मंत्र विद्या का जो कुछ भी चमत्कार कहा, सुना और देखा जाता है, उसे परिष्कृत एवं संयमित वाणी का ही प्रतिफल कह सकते हैं। इसके लिए मंत्र साधक का जपकर्ता को अपना व्यक्तित्व इस स्तर का विनिर्मित करना होता है जिससे जिव्हा से उच्चारण किये गये मंत्र अक्षरों में प्रयुक्त होने वाली वाणी मात्र ध्वनि न रहकर “वाक्” शक्ति के रूप में प्रकट हो सके और उसके प्रभाव से सूक्ष्म जगत में ऐसी हलचलें उत्पन्न हो सकें जो मंत्र उद्देश्य के अनुरूप परिस्थिति एवं वातावरण उत्पन्न कर सकने में समर्थ हो सकें।

मंत्र साधना में वाक् शक्ति को विकसित करने के लिए मन, वचन और कर्म में ऐसी उत्कृष्टता उत्पन्न करनी पड़ती है कि जीभ को दग्ध करने वाला कोई कारण शेष न रह जायें। इतना कर लेने के उपरान्त जपा हुआ मंत्र सहज ही सिद्ध होता है। और उच्चारण किया हुआ शब्द असंदिग्ध रूप से सफल होता है। यदि वाणी दूषित, कलुषित, दग्ध स्थिति में पड़ी रहे तो उसके द्वारा उच्चारित मंत्र भी जल जायेंगे। तब बहुत संख्या में बहुत समय तक जप, स्तवन, पूजा पाठ आदि करते रहने पर भी अभीष्ट सत्परिणाम उपलब्ध न हो सकेगा। परिष्कृत जिव्हा में ही वह शक्ति रहती है कि उसके द्वारा उच्चरित मंत्र प्रचण्ड और प्रभावशाली होता है और मनुष्यों के अंतःस्थल तथा अनन्त अन्तरिक्ष को प्रभावित किये बिना नहीं रहता। ऐसे परिष्कृत वाणी को”वाक्”को मंत्र साधना का प्राण कह सकते हैं। उसे साधक की कामधेनु एवं तपस्वी का ब्रह्मास्त्र कहने में तनिक भी अत्युक्ति नहीं है। इसी परिमार्जित जिव्हा को सरस्वती कहते हैं। मंत्र की आत्मा वही है। सिद्धियों का उद्गम स्थल उसी को मानना चाहिए। इसी आधार पर मंत्रों की चमत्कारी विशेषता उभरती है और जपकर्ता को ऋद्धि-सिद्धियों का स्वामी बनने का अवसर मिलता है।


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