समर्पण की महत्ता

November 1993

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कामना, लालसा, वासना की संकीर्ण परिधि में ही सामान्यतया मानव मन का चिंतन घूमता रहता है। शास्त्रकारों ने इसे ही पुत्रेषणा, वित्तैषणा और लोकेषणा कहकर इससे उबरने को कहा है। आत्मोत्कर्ष के मार्ग में यही प्रधान बाधाएँ हैं। जन सामान्य में व्याप्त राग, द्वेष, कलह, कटुता इन्हीं में जकड़े रहने का परिणाम है। जब तक इस संकीर्णता से मुक्ति न मिले मनुष्य जैसा देव दुर्लभ जीवन कौड़ियों के मोल बिकता है। इंद्रियों, आकर्षणों में फँसा हुआ जीवन ‘प्रेय’मार्ग कहा गया है। इसमें शाश्वत अपेक्षाओं और गम्भीर आस्थाओं के प्रति अभिरुचि तो दूर इस मनःस्थिति का प्राणी उन्हें अस्वीकारने भी लगता है। जिससे सामाजिक जीवन में अशाँति और अव्यवस्था का ही विकास होता है।

इसके विपरीत एक और जीवन भी होता है जो उत्कृष्टता, आदर्शवादिता चरित्रनिष्ठ और समाज निष्ठ के प्रति समर्पित होता है इसे ‘श्रेय पथ’ कहते हैं। इसमें इन्द्रियों को संतुष्ट करने की हेय प्रवृत्ति का परित्याग होने से भावनाओं का अन्तःकरण का विकास होता है। जीवन सत्ता मानवीय तथा देवी विभूतियों और क्षमताओँ से विभूषित होती चली जाती है। प्रत्यक्ष में यह सौदा घाटे का हो सकता है। पर यही श्रेय समर्पित जीवन क्रमशः उत्कृष्टता और आत्मिक आनंद की श्रेणियों में उठता हुआ मनुष्य को उसके जीवन लक्ष्य-परमात्मा तक पहुँचा देता है अंतःकरण की पुकार को अनसुनी न किया जाय तो परमात्मा की यह प्रकाश किरण उसकी प्रेरणा महापुरुषों के माध्यम से सत्साहित्य के माध्यम से मानवीय पीड़ा पतन के प्रति संवेदना के रूप में हर किसी के पास आ जाती है। इसे स्वीकार कर समर्पित होकर जिया जा सके तो निस्संदेह मनुष्य जीवन धन्य हो सकता है।

वट का बीज अत्यंत लघु और नगण्य सा होता है, पर समुचित खाद-पानी पाकर वह विकसित होकर वृक्ष का रूप धारण कर लेता है और पशु-पक्षियों को भोजन एवं आश्रय प्रदान करने से लेकर मनुष्य जाति की अनेक प्रकार से सेवा करता है। इसके विपरीत अपने आप में सीमित प्रकृति का नन्हा प्रतिनिधि किसी कीड़े मकोड़े को भले ही संतुष्टि प्रदान कर दें, पर उससे अधिक की क्षमता उसमें नहीं। अपने आप तक सीमित रहने अपने स्वार्थों तक केन्द्रीभूत रहने की संकीर्ण मनोवृत्ति कभी भी किसी व्यक्ति को ऊँचा नहीं उठा सकती।

श्रेय संपादन आत्मविश्वास बड़ी उपलब्धियों के लिए अपनी अहंता का परित्याग आवश्यक होता है। समर्पण इसी का नाम है। वही वट बीज जो कल तक अत्यन्त तुच्छ सा घेरे में घिरा हुआ था, जब अपने आपको माँ धरित्री की गोद में समर्पित कर देता है तो उसमें विकास के नन्हें अंकुर फूट पड़ते हैं। सविता की किरणें उसे शक्ति देती हैं, पवन की शीतलता उसे दुलारती हैं। बादल उसका अभिसिंचन करते हैं। सम्पूर्ण प्रकृति का सहयोग मिलने लगता है। बीज नीचे बैठता और अपनी जड़ें अपनी आधार भूमि सुदृढ़ कर लेता है। ऊपर उठता है तो एक विशाल वृक्ष के रूप में परिणित होता चला जाता है। ऐसा वृक्ष जिसके आश्रय में सैकड़ों जीव जन्तुओं को पोषण पक्षियों को विश्राम और राह चलते बटोही उसके शीतल सुखद आश्रय में अपनी थकान मिटाते हैं। यही नहीं उसे अपने संपूर्ण जीवन में करोड़ों बीजों का जनक होने का गौरव मिलता है। समर्पण की महत्ता अनंत है। अणु से विभु, लघु से विराट बनने की प्रक्रिया आत्म समर्पण के ही साँचे और ढाँचे में परिपूर्ण होती है।

इससे इतर कोई सुगम मार्ग नहीं। आदान प्रदान के व्यक्त अव्यक्त दो ही रूप हैं। एक का नाम है सहयोग सहकारिता अर्थात् किसी व्यक्ति संस्था उद्योग के कार्यों में अपनी उपलब्ध क्षमताओं को मिलाना अपना कर्तव्य जोड़ना। यह भावना साँसारिकता के दायरे में ही सीमित है। उसके बदले में भौतिक लाभ चाहे पद प्रतिष्ठा के रूप में हो अथवा अर्थोपार्जन यश आदि के रूप में प्राप्त होता है। इस प्राप्ति को सहकर्तृत्व ही कहा जायेगा। यह सहयोग समाज की एक सुसंस्कृत परंपरा और सामुदायिक विकास का आधार है, किन्तु समर्पण उससे हजारों गुने उन्नत स्तर की अध्यात्म साधना है। सहयोग से भौतिक प्रगति के लक्ष्य प्राप्त किये जा सकते हैं। परमार्थिक प्रयोजनों की भी एक सीमा तक शक्ति सहायता मिल सकती है। किन्तु महान कार्य, बड़े उद्देश्य समर्पित सेवाओं के बिना संभव नहीं हो पाते। श्रेष्ठता के प्रति समर्पण आत्मा की क्षमताओं और भावनाओं को प्रकट करके व्यक्ति, समुदाय और संसार को प्रगति का मार्ग, नई ज्योति और सदाशयी लक्ष्यों की सफलता प्रदान कर सकती हैं। आध्यात्मिक साधनाएँ या पारमार्थिक सेवाएँ तो समर्पण के अभाव में पनप ही नहीं सकती।

उत्कृष्टता, श्रेष्ठता के प्रति श्रद्धा-सिक्त समर्पण एक उदात्त आध्यात्मिक भावना है जो किसी क्षेत्र के लिए अनवरत शक्ति संचार की प्रेरणा एवं स्रोत बनकर काम करने लगती है।

प्रभु समर्पित व्यक्ति का प्रत्येक चिंतन और कर्तृत्व एक ही दिशा में नियोजित रहने से अत्यधिक प्रखर और गतिशील हो उठता है। यही नहीं उसके साथ पवित्रता की ऐसी भावना सन्निहित रहती है, जो ध्येय को भौतिक प्रवंचनाओं से धराशायी होने से बचाती है।

सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की एक महत्वपूर्ण घटना ताँत्याटोपे के जीवन से संबंधित है। अजीजान नाम की एक नर्तकी सेनापति ताँत्या का मन जीतने के लिए आकर्षणों का जाल बिछा दिया। वे उसके मन की बात भाँप गये। उन्होंने एक दिन अजीजान से कहा”मेरे जीवन का एक ही ध्येय है अंग्रेजों को भारत भूमि से मार भगाना। यदि सचमुच तुम मुझे प्यार करती हो तो मेरे इस श्रेष्ठ लक्ष्य में तुम्हें समर्पित होना पड़ेगा’ अजीजान तैयार हो गई। किन्तु समर्पण इतनी सरल प्रक्रिया नहीं है कि उसे योँ ही निबाहा जा सके। अजीजान ने अपनी सारी संपत्ति स्वाधीनता संग्राम को लगा दी। स्वयं को गुप्तचर सेवाओं के लिए समर्पित किया। अंग्रेजों की छावनियों में जाना-वहाँ के सुराग लाना जोखिम भरा कार्य था, जिसे अविचल निष्ठ ही पूरी कर सकती थी। अजीजान को भी भयंकर कष्टों एवं संकेतों का सामना करना पड़ा, किन्तु वह ध्येय के प्रति अविचल बनी रही। समर्पण की पवित्रता ने उसके हृदय की वासना को भी धो दिया।

समर्पण से ही व्यक्ति की निष्ठ परखी जाती है। इसमें खरा उतरने पर ही उसका समर्पण सार्थक होता है। लोक नायक जय प्रकाश नारायण ने अपनी पुस्तक’आत्मदानियोँ से’में समर्पण की व्याख्या विवेचना करते हुए कहा है कि समर्पण का अर्थ है ‘मन अपना, विचार इष्ट के, हृदय अपना भावनाएँ इष्ट की आपा अपना किंतु समग्र रूप इष्ट का ‘इस परिभाषा का अर्थ अपनी अहंता से पूरी तरह अवकाश पा लेना है। योग साधनाओं में सिद्धि के गुणोँ में यह स्थिति अनिवार्य मानी गयी है। अतएव समर्पण को आत्म कल्याण की सर्वोपरि साधना के रूप में लिया जाना चाहिए।

महाराष्ट्र के प्रख्यात संत जनार्दन पन्त के चरणों में समर्पित होने के बाद एकनाथ लोक वरेण्य हो गये। मार्ग्रेट एलिजाबेथ नोबुल विवेकानंद के चरणों में अपनी क्षुद्र अहंता निवेदिता बन सकीं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम बिना किसी विशेष रक्तपात के जीता जा सका उस में जन नेताओं के समर्पित भावनाओं को ही श्रेय जाता है। तब उसमें से किसी में भी न तो महत्वाकाँक्षा थी, न पूर्वाग्रह व सेवा के फल की कामना थी न यश की। सरफरोशी की तमन्ना अर्थात् सच्चे समर्पण की भावना का जहाँ उदय होगा वहीं उद्देश्य सार्थक होते ही चले जायेंगे।

समर्पण में आशाओं, आकाँक्षाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। पारमार्थिक साधनाओं में या आत्मोपलब्धि, मोक्ष के लिए समर्पित होने के लिए संपूर्ण कामनाएँ नष्ट करनी पड़ती हैं। मार्ग दर्शक या ध्येय की प्रामाणिकता सिद्ध हो जाये तो फिर कर्तव्य में अवाँछनीयता की गुँजाइश रहती ही नहीं।

अंतःकरण में न कोई छल है न छद्म अपनी बौद्धिक क्षमताएँ सक्रियता, प्रगति सब ध्येय के प्रति अर्पित हों, यही सच्ची साधना है। यह सौभाग्य जिन प्रयोजनों के लिए मिल जाते हैं। चाहे वह साँसारिक हों या आध्यात्मिक उनकी सफलता की आधी मंजिल तत्काल पूर्ण हो जाती है। साथ ही उस समर्पित आत्मा को ईश्वर सान्निध्य का एक ऐसा दिव्य लाभ इसी साधना से मिल जाता है जिसके लिए योगाभ्यास और जन्म जन्माँतरों की कठिन और लंबी साधना पूरी करनी पड़ती है। सत्प्रवृत्तियों, उच्च आदर्शों को समर्पित जीवन। ऐसे साधक के लिए ही भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है। “तू अपना मन और बुद्धि मेरे ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति में लगा। इस तरह तू मेरे में ही निवास करेगा। मेरे को ही प्राप्त होगा। इसमें कुछ संशय नहीं। सच्चे समर्पण की यही फलश्रुति है।


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