कैसा होगा भविष्य का मानव?

November 1993

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मानवी विकास से संबंधित जटिल प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिए चिरकाल से ही ऊहापोह चली आर रही है। आदि-मानव मनु थे, उनकी संतानें मनुष्य कहलाई। स्वर्ग से आदम और हवा जमीन पर धकेल दिये गये और उन्होंने यहाँ आकर जो संतानें उत्पन्न की, वे मनुष्य बन गयीं। ब्रह्माजी ने सृष्टि उत्पन्न की और उसी समय वृक्ष वनस्पतियोँ एवं समस्त जीवधारियों के साथ सर्वश्रेष्ठ प्राणी के रूप में मानव को सृजा। इन पौराणिक आख्यायिकाओं से अब बुद्धि का समाधान नहीं होता। विज्ञान इस संदर्भ में तर्क, तथ्य और प्रमाणों को आधार मानकर खोजें करता रहा है और आगे भी इस प्रयास में संलग्न है।

आदि मानव कहाँ और कब पैदा हुआ?इस संबंध में अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिकों का मानना है कि एशिया एवं अफ्रीका उन प्रमुख केन्द्रों में से है-जहाँ मानव का विकास सबसे पहले हुआ। प्रारंभिक अवस्था में वह ‘केनियोपिथेकस’ के रूप में था, जो अब बारह वर्ष करोड़ पूर्व पृथ्वी पर निवास करते थे। एशिया में पाये जानें वाले ‘रेमापिथेकस’नामक आदि मानव अफ्रीका से होते हुए भारत पहुँचे।

‘आस्ट्रेलोपिथेकस अफ्रिकेन्स’ को उनने ‘प्रथम मानव की संज्ञा दी है और कहा है कि अफ्रीका के सबाद्ध प्राँत में पाये जानें वाले इस मानव प्रजाति के मस्तिष्क का अग्र और पश्च भाग विकसित था, जो इस बात का प्रमाण है कि उनकी मस्तिष्कीय शक्तियाँ तब भी उन्नत अवस्था में थी। मूर्धन्य वैज्ञानिक लुइस एच.मार्गन ने अपनी कृति में मानव विकास के तीन स्तरों का वर्णन करते हुए बताया है कि किस तरह मनुष्य ने वन में, गुफाओं में अन्य जीवधारियों की तरह जीवन व्यतीत करते हुए आज के तथाकथित सभ्यता के युग में प्रवेश किया है।

नृतत्त्ववेत्ताओं ने प्रागैतिहासिक प्रमाणों के आधार पर मानव-जाति का अस्तित्व इस धरती पर लगभग 32 लाख वर्ष पूर्व आँका है। विकासवादियों का भी कहना है कि वह अब से दस लाख वर्ष पूर्व इस स्थिति में विकसित हो गया था। कि उसे मनुष्य नाम दिया जा सके। मिश्र, भारत, दक्षिण और मध्य अफ्रीका, चीन, जावा आदि देशों में जो मानव कंकाल, खोपड़ियाँ तथा प्रयोग के जो उपकरण मिले हैं, उनसे प्रतीत होता है कि उन क्षेत्रों में मनुष्य का अस्तित्व मौजूद था। एक जगह उत्पन्न होकर उसकी पीढ़ियाँ दूर-दूर फैली या विभिन्न स्थानों में अपने-अपने क्रम से मनुष्य का विकास हुआ। इस प्रश्न के उत्तर में जो बातें कहीं गयीं है। उनमें यही युक्ति संगत है कि वातावरण और परिस्थितियों ने धरती के विभिन्न स्थानों में जीवों के विकास को प्रोत्साहन दिया है।

इसी क्रम में मनुष्य भी विभिन्न स्थानों में अपना स्वतंत्र विकास करता रहता है, अपने पूर्वजों की तुलना में उसे अपेक्षाकृत अधिक उन्नति करते रहने का अवसर मिलता रहा है।

आदि मानव को ’हामिनिड’ नाम दिया गया है- अर्धवानर और अर्धमानव लगभग वन मानुष स्तर का। इसी से कालान्तर में पूर्ण मानव ‘होमोसेपियन्स’और विकसित मानव- ’होमोसेपियन्स’ और विकसित मानव ’होमोइरैक्ट्स’ क्रमशः बनते चले आये हैं। परिस्थितियों के अनुसार नस्लें सुधरती गयीं है। यह नस्लें भारत, चीन, अफ्रीका और यूरोप के कुछ स्थानों पर विकसित हुई। सुप्रसिद्ध अनुसंधान डा. लेविस लीके ने अफ्रीका में ओल्डुबाई नामक 30 मील लम्बी और 300 फुट गहरी गुफा की खोज करके जो अवशेष प्राप्त किये, उससे न केवल मनुष्य की, वरन् प्रागैतिहासिक काल के अन्य प्राणियों के इतिहास की भी प्रामाणिक शृंखला मिलती जुलती है। सबसे पुराना नर कंकाल जिसे नृतत्त्ववेत्ताओं ने ‘जिंजानथ्रोपस’ नाम दिया है, यह प्रमाणित करता है कि मनुष्य का अस्तित्व अब से 13 लाख वर्ष पूर्व भी विद्यमान था। पश्चिम जर्मनी में नियडर नदी के किनारे रानलैण्ड क्षेत्र की एक गुफा में मिली मानव खोपड़ी मध्य सुमात्रा एवं जावा में प्राप्त अस्थियाँ, फ्राँस की लासापेल ओ साँ की गुफा में मिले कंकाल, सहारा एवं इसराइल में खुदाई से उपलब्ध अस्थियों के अवशेष, चीन में डा. ब्लैक को मिली अस्थियाँ एवं यूरोप के विभिन्न भागों से मार्स्टन द्वारा संग्रहित पुरातन प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि मनुष्य अपने पूर्वजों की अपेक्षा क्रमिक विकास के पथ पर अग्रसर होता आया है। राफेलर फाउण्डेशन की सहायता से प्रसिद्ध वैज्ञानिक फ्राज वाइडन राइसन ने मनुष्य विकास के पुरातन कालीन इतिहास संबंधी जो व्यापक खोजें की है, उनका विवरण “डेण्टीशन आफ साइनान्थ्रोपस” द एक्सटीमिटी बोन्स आफ साइनान्थ्रोपस नामक तीन ग्रंथों को प्रकाशित किया है। इनमें उन्होंने मानवी विकास क्रम पर अधिक प्रामाणिक प्रकाश डाला है। चार्ल्स डार्विन ने अब से एक सौ वर्ष पहले यह कहा था कि आदि मानव अफ्रीका में जन्मा था। उनकी इस मान्यता का कारण उस क्षेत्र में मिल प्रागैतिहासिक काल की खोपड़ियोँ थी। अब अन्यत्र भी उसी प्रकार के प्रमाण मिल रहे है। डॉ. लीके सहित अनेक वैज्ञानिकों ने अब वैसे ही अवशेष ढूँढ़ निकाले है। इनके अनुसार मनुष्य का अति पूर्वज एन्थ्रोपायड एप और उसके पीछे का विकसित वंशज- ’आस्टेलोपिथेकस’ माना जाता है। यह दोनों ही कपि मानव थे। इसी वंश का क्रमिक विकास होता गया और उसकी न केवल आकृति, वरन् प्रकृति भी बदलती गयी और विकसित होती चली गयी। समयानुसार वह काल आया जिसे पुरातत्व वेत्ताओं के अनुसार ”प्लीस्टोसीन एरा” अथवा मानव युग कहते हैं। यह दस लाख वर्ष पूर्व आरंभ हुआ।

विकासवादियों का कहना है कि प्राचीन मानव शारीरिक दृष्टि से विशालकाय और बलिष्ठ थे, पर मस्तिष्कीय चेतना की दृष्टि से मंदबुद्धि थे। जैसे-जैसे बुद्धि का उपयोग अधिक होने लगा वह बढ़ती गयी और शरीर से कम श्रम लिया गया तो वह छोटा होता गया। प्रकृति का सिद्धाँत है कि जिस तत्व की उपयोगिता समझी जायेगी, आवश्यकता अनुभव की जायेगी तथा प्रयोग में लायी जायेगी, वह बढ़ेगी, मजबूत होगी और जिसकी उपेक्षा की जायेगी वह निरर्थक पड़ी पड़ी चली जायेगी। साधन बढ़ने से उसका विकास क्रम यहाँ आ पहुँचा जहाँ आज हम हैं। पुराने महागज और सरीसृप-डायनोसौर आज के हाथी और गिरगिट की तुलना में कई गुना बड़े और भीमकाय थे। इसके विपरीत पुराने ज्ञान कौशल, उपकरण और साधनों में इस समय तक अत्यधिक विकास हुआ है। एक ओर घटोत्तरी तो दूसरी ओर बढ़ोत्तरी का अपना क्रम चलता रहता है। इन दोनों ही पहियों पर टिका प्रगति रथ इधर-उधर के झकझोरे खाता हुआ यहाँ तक आ पहुँचा हैं।

पुराना मनुष्य कैसा था, इसकी एक झलक झाँकी हिमालय पर पाये जानें वाले ‘हिम -मानव’के रूप में अभी भी यदा-कदा सामने आती रहती है। हिमालय का अस्तित्व अब असंदिग्ध है। उसके प्रमाण एक के बाद एक मिलते ही जाते हैं। पिछले दिनों एवरेस्ट चोटी पर सफल चढ़ाई करने वाले एडमंड हिलेरी के साथ शेरपा तेनसिंह के पिता का यह दावा था कि उन्होंने 16 हजार फुट की ऊँचाई पर चुरघो इलाके में हिममानव को निकट से देखा था, सीमेन्ट जैसा रंग, लम्बी नाक, पंजे डेढ़ फुट, आँखें छोटी बाल तीन से पाँच इंच तक थे। वह शाकाहारी भी एवं माँसाहारी भी थे। नेपाल, सिक्किम और भूटान के लोगों ने भी अपने अपने क्षेत्रों में हिम मानव देखें हैं। कुछ सुप्रसिद्ध नेपाली इतिहासकार अंतर हृषित-वे अपने एक लेख में हिम-मानव का आँखों देख वर्णन प्रकाशित किया था, साथ ही उनके फोटो भी छपाये थे जो उन्होंने स्वयं खींचे थे। उनके अनुसार हिममानव की ऊँचाई 11 फुट थी और सीना तीन-फुट चौड़ा। वह मनुष्य से बहुत कुछ मिलता जुलता है। शरीर पर बालों की अधिकता ही उसे सामान्य मनुष्य से अलग करती है। वह किसी को देखकर भयभीत नहीं होता।

तिब्बती लामा छेभेद के मठ में एक विशालकाय अस्थिपंजर रखा हुआ है जिसकी विशेष पर्वों पर पूजा की जाती है। कहा जाता है कि यह किसी पवित्रात्मा हिममानव का कंकाल है जो उस लामा की समय-समय पर सहायता करता रहा। इस अस्थिपंजर की विशालता को देखते हुए उस क्षेत्र में हिममानव के अस्तित्व की पुष्टि होती है।

भविष्य में मनुष्य कैसा बनेगा? इसका उत्तर उसकी इच्छा और आवश्यकता को देखते हुए ही दिया जा सकता है। मानव चिंतन की दो विशेषताएं हैं -पहली भौतिकवादी और दूसरी अध्यात्मवादी। यदि चिंतन का प्रवाह वर्तमान स्तर का भौतिकवादी ही बना रहा और पहल जीवशास्त्रियों के हाथ रही तो नये सिरे से जीव-कोषों का ढालना आरंभ करेंगे जो अंतर्ग्रही परिस्थितियों में भी अपना निर्वाह कर सकें। वर्तमान मनुष्योँ की शारीरिक और मानसिक स्थिति को विज्ञान के आधार पर ऐसे मोड़ दिये जा सकते हैं। जो भावी परिस्थितियों के साथ सुविधापूर्वक तालमेल बिठाये रह सकें। उसका शरीर ही नहीं मन भी बदला जा सके, अब इतनी शक्ति विज्ञान के हाथों आ गयी है और वह उसका उपयोग समस्त मानव जाति के साथ सत्ताधीशों की सहायता से बलपूर्वक भी कर सकता है। अन्न, वस्त्र, निवास आदि की कमी का ध्यान रखते हुए वर्तमान स्तर के मनुष्य को हटाकर उस स्थान पर नयी जाति के नयी नस्ल के मिनी मनुष्य भी बनाये जा सकते हैं जो कम जगह घेरे और खुराक भी नष्ट न करें, पर बुद्धिमता एवं प्रतिभा की दृष्टि से बढ़े चढ़े हों। बौद्धिक प्रखरता के बल पर वे बिजली, पवन आदि जैसी प्राकृतिक शक्तियों पर अपना आधिपत्य कर मनचाही दिशा में प्रगति कर सकेंगे।

आध्यात्मवादी चिंतन धारा मनुष्य में देवत्व और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की पक्षधर है। समय ही बतायेगा कि प्रधानता भौतिकवाद की रहती है या अध्यात्मवाद की। इन दिनों दोनें पक्षों में रस्साकशी चल रही है।

प्रबुद्ध अध्यात्म भी अब मनुष्य जाति को विनाश के सर्वभक्षी संकट में से निकालने के लिए अपना कर्तव्य पालन करने के लिए कटिबद्ध हो रहा है। भले ही उसकी विशालकाय प्रयोगशालाएं दृष्टिगोचर न हों, पर निश्चेष्ट वह भी नहीं है। जब कि मानवी भाग्य एवं भविष्य का भला-बुरा निपटारा होने की घड़ी सामने है, तो देव पक्ष की सत्ता भी निष्क्रिय नहीं बनीं रह सकती है। मनुष्य के ईश्वर कृत सनातन रूप को अक्षुण्ण और परिष्कृत बनाये रखने के लिए अध्यात्म शक्तियाँ भी दृश्य या अदृश्य रूप से अपना काम प्रचंड वेग से कर रही हैं। अदृश्य जगत में हो रहा देवासुर संग्राम अभी भी सूक्ष्मदर्शी आँखें देख सकती हैं।

यदि अध्यात्म शक्ति विजयी हुई तो मनुष्य ‘मिनी’ नहीं “महान” बनेगा। तीव्र परिवर्तनों की वर्तमान गति उसे महामानव-देवमानव -अतिमानव भी बना सकती हैं। महर्षि अरविन्द ने निकट भविष्य में मनुष्य में ऐसे अवतरणों की संभावना व्यक्त की है। अपनी कृति “द ह्यूमन साईकिल” में उनने कहा है कि मनुष्य सचेतन प्राणी है और चेतना का सहज स्वभाव महत् चेतना की ओर अग्रसर होने अति चेतन बनने का है। मनुष्य अपने विकास क्रम में जीव चेतना से ऊपर उठकर अर्ध देवता बन चुका है और अब पूर्ण देवत्व की ओर अग्रसर है। बौद्धिक विकास के बाद अब आत्मिक प्रगति का युग आ रहा है। मानव-जाति समान हितों के बाहरी कारणों को छोड़ कर आध्यात्मिक विकास के फलस्वरूप आँतरिक एकता का अनुभव करने लगी है। आर्थिक और बौद्धिक दृष्टिकोण के स्थान पर आध्यात्मिक और अतिमानसिक भावना बढ़ती जा रही है। भावी मनुष्य सुनिश्चित रूप से दिव्य-शक्तियों से संपन्न होगा जिसकी चेतना देव स्तर की होगी, जो इस धरती पर उदार आत्मीयता, स्नेह, सौजन्य और सहकार की अमृतधारा बहाने और स्वर्ग का वातावरण बना सकने में समर्थ होगा। यदि मानवी विवेक जग पड़ा तो संभावना इसी प्रकार की अधिक है। मानव से महामानव नर से नारायण बनना ही मनुष्य की नियति है।


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