“यह कहना गलत है कि गृहस्थाश्रम साधना में किसी तरह बाधक है। प्राचीनकाल में बहुसंख्यक ऋषि सपत्नीक रहकर गुरुकुल में वास कर साधना करते शिक्षण शोध प्रक्रिया चलाते थे।
एक बार अत्रि अपने आश्रम से चलकर एक गाँव पहुँचे। आगे का मार्ग बहुत बीहड़ और हिंसक जीव-जन्तुओं से भरा हुआ था, सो अत्रि रात को इसी गाँव में एक सद्गृहस्थ के घर टिक गये। गृहस्थ ने उन्हें ब्रह्मचारी वेष में देखकर उनकी आव-भगत की और भोजन के लिये आमंत्रित किया। अत्रि ने जब समझ लिया कि इस परिवार के सभी सदस्य ब्रह्मसंध्या का पालन करते हैं, किसी में कोई दोष-दुर्गुण नहीं है, तो उन्होंने आमंत्रण स्वीकार कर लिया।
भोजनोपराँत अत्रि ने गृहस्थ को प्रणाम कर प्रार्थना की “देहि में सुखदाँ कन्याम्” अपनी सुखदा कन्या मुझे दीजिये। जिससे मैं अपना घर बसा सकूँ। उन दिनों वर ही कन्या ढूंढ़ने जाते थे। कन्याओं को वर तलाश नहीं करने पड़ते थे। उन दिनों नर से नारी की गरिमा अधिक थी। गृहस्थ ने अपनी पत्नी से परामर्श किया। अत्रि के प्रमाण पत्र देखे, और वंश की श्रेष्ठता पूछी और वे जब इस पर संतुष्ट हो गये कि वह सब प्रकार से योग्य है तो उन्होंने पवित्र अग्नि की साक्षी में अपनी कन्या का संबंध अत्रि के साथ कर दिया, अत्रि के पास कुछ था नहीं, इसलिये गृहस्थ संचालन के लिए आरंभिक सहयोग के रूप में अन्न, वस्त्र, बिस्तर, थोड़ा धन और गाय भी दी। छोटी सी, किन्तु सब आवश्यक वस्तुओं से पूर्ण गृहस्थी लेकर अत्री अपने घर पधारे और सुखपूर्वक रहने लगे।
इन्हीं अत्रि और अनुसुइया के द्वारा दत्तात्रेय जैसी तेजस्वी संतान को जन्म मिला। भगवान् को भी एक दिन इनके सामने झुकना पड़ा था। ”