‘सेवा कर्म ही सर्वकालीन युगधर्म है। अध्यात्म का मर्म यही है। ईसा को भक्त जनों की एक बड़ी सभा में प्रवचन करना था। जाते समय रास्ते में एक बीमार मिला। वे उसकी सेवा में जुट गये।
देर होते देखकर उपस्थित लोग उन्हें खोजने निकले, तो उन्हें पीड़ित की सेवा में संलग्न पाया। सभा के लोग वहीं एकत्रित हो गये। ईसा ने कहा -’कथनी से करनी श्रेष्ठ है। तुम सेवा धर्म अपनाओ, तो ब्रह्मज्ञान का वह आनंद सहज ही प्राप्त कर सकोगे, जिसे पाने के लिये तुम यहाँ आये हो। ‘
“जन जागरण हेतु यात्रा का अर्थ मात्र उस क्रिया को किसी तरह पूरा करना भर नहीं।
चन्द्रमा की दो सन्तानें थीं -एक पुत्र और दूसरी पुत्री। पुत्र का नाम पवन और पुत्री का नाम आँधी। पुत्री को एक दिन ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे पिताजी साँसारिक पिताओं की तरह पुत्र और पुत्री में भेद करते हैं। चन्द्रमा आँधी की व्यथा ताड़ गये। उन्होंने पुत्री को आत्म-निरीक्षण का एक अवसर देने का निश्चय किया।
चन्द्रमा ने आँधी और पवन दोनों को अपने पास बुलाकर कहा-’बच्चों!’ क्या तुमने स्वर्गलोक में इन्द्र के कानन में ‘पारिजात’नामक देव वृक्ष देखा है?
‘हाँ’दोनों ने एक स्वर से उत्तर दिया।
‘तो तुम पारिजात की सात परिक्रमा करके आओ। ’
पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर दोनों चल दिये, पारिजात देव वृक्ष की ओर। आँधी सिर पर पैर रखकर दौड़ी। वह धूल, पत्ते और तमाम कूड़ा करकट उड़ाती हुई बात की बात में परिक्रमा करके आ खड़ी हुई। आँधी समझ रही थी पिता का काम कर मैं जल्दी लौटी हूँ, तो जरूर पिताजी मेरी पीठ ठोकेंगे।
थोड़ी देर बाद पवन लौटा, पर उसके आगमन पर सौंधी-सुगंध से सारा भवन महक उठा। चन्द्रमा ने कहा-’बेटी!’अब तुम अच्छी तरह से समझ गई होगी, कि जो अत्यधिक तेजी से दौड़ता है, वह खाली झोली लेकर आता है और जिसकी गति स्वाभाविक होती है, वह मन को मुग्ध करने वाली सुगंध लाता है जिससे संपूर्ण वातावरण सुगंधित हो जाता है। ’
वानप्रस्थों की यात्रा पवन देव के समान ही उद्देश्य पूर्ण होती है। ”