आस्था-क्षेत्र में भी विज्ञान का प्रवेश

November 1993

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वर्तमान में विज्ञान ने अपनी गतिमान शोध प्रक्रिया के द्वारा अनेकानेक नूतन आयामोँ को उद्घाटित किया है। इससे दृश्य जगत की कई पहेलियाँ सुलझी हैं। साथ ही प्रकृति के अविज्ञात साधनों के उपयोग की विधा भी भली-भाँति समझ में आई है। किन्तु मनुष्य ने इन साधन-सुविधाओं का उपयोग अपने व्यक्तित्व की परिपक्वता या अपरिपक्वता के आधार पर ही किया है। इन सारी उपलब्धियों की सार्थकता तभी सिद्ध हो सकेगी जब मानवी मन उसे विधेयात्मक रूप में अंगीकार करे। इस हेतु शोध के एक अन्य आयाम में प्रवेश करना होगा। जड़ को एक मात्र क्षेत्र न मान कर चेतना के क्षेत्र में प्रविष्ट होना अपरिहार्य है।

चेतना के विज्ञान को आत्मिकी का नाम दिया गया है। मानवी अंतराल में निहित बहुमूल्य रहस्यों का सदुपयोग न हो पाने के कारण मनुष्य इस शक्तिशाली भंडार का लाभ उठाने से वंचित रहा है। वंचित रहने में एक कारण यह भी है कि इसे अंधविश्वास, रूढ़िवाद के रूप में करार कर दिया गया। आज आप्त वचनों की दुहाई पर्याप्त नहीं आवश्यकता तर्क, तथ्य, प्रमाणों की है। इसकी जिम्मेदारी विज्ञान ने हर क्षेत्र में सँभाली है। पदार्थ की तरह चिंतन चेतना के क्षेत्र में उसने मनोविज्ञान के रूप में आधिपत्य जमाया है, तो यह उसी का दायित्व बन पड़ता है कि चेतना विज्ञान के सूत्रों पर प्रयोग अनुसंधान करके उसे वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करे। ऐसे साधन जुटाये, समस्त उपाय आविष्कृत करे जिनको प्रयुक्त करने से मानवी काय संरचना तथा मनः संस्थान की प्रसुप्त क्षमताएं उभारी जा सकें तथा व्यक्ति को वर्तमान से कहीं अधिक सक्षम, समर्थ एवं असाधारण बनाया जा सके।

अध्यात्म के कई उपचार मात्र श्रद्धा पर अवलंबित है। कभी समय था जब संयमित जीवन, साधना प्रक्रियाओं, तप के उपक्रमों, आप्त वचनों, आर्ष साहित्य के कथनों को श्रद्धा के सहारे अपनाया जाता था और उनके परिणाम स्पष्ट गोचर होते थे। किन्तु आज मानव की बुद्धिवादी प्रकृति ने श्रद्धा के गूढ़ तत्व में प्रवेश न कर पाने के कारण इनसे सर्वथा इन्कार कर दिया है। इस प्रयोजन की पूर्ति प्रखर तथ्यों से ही कर संभव है। विज्ञान साक्षी की आज प्रामाणिकता का परिचायक बन गई है। वरिष्ठता का चोला आज कल वैज्ञानिकता ने पहन रखा है। ऐसी स्थिति में विचार एवं भावना क्षेत्र के साम्य स्थापक तथ्य को ढूँढ़ निकालने में उसे अग्रणी होना चाहिए। उपरोक्त तथ्य से सहमति व्यक्त करते हुए मूर्धन्य मनोविद इरा प्रोगाफ ने अपनी कृति ‘डेथ एण्ड रिबर्थ ऑफ साइकोलॉजी’ में कहा है कि मनोविज्ञान के परंपरागत अध्ययन को भारतीय साधनाओं में वर्णित प्रक्रियाओं से दिशा ग्रहण कर तत्संबंध शोध प्रयास करना होगा। इस तरह किया गया प्रयास नूतन मनोविज्ञान को जन्म देने वाला सिद्ध होगा। जिससे मानवी व्यक्तित्व को प्रखर बनाना संभव हो सकेगा।

लारेन्स हाइड ने अपनी कृति ‘आइसिस एंड औरेसिस‘ में यही मत व्यक्त किया है कि वर्तमान में प्रचलित उपरतलीय मनोविज्ञान की पद्धतियाँ व्यक्ति के मनःक्षेत्र की गड़बड़ियोँ का सही निदान नहीं कर पाती है। इस संबंध में आध्यात्मिक साधनाओं पर अनुसंधान करने की आवश्यकता है। उनके अनुसार मनोविकारों एवं अंतर्द्वंद्वों से न केवल शारीरिक मानसिक रोग होते हैं। अपितु इस कुचक्र में फँस जानें पर आर्थिक पारिवारिक सामाजिक जीवन के भी नष्ट भ्रष्ट हो जानें की बात भी पूर्णतया स्पष्ट है। पुरातन काल में यही तथ्य पाप-पुण्य के प्रत्ययों से समझाया जाता था।

आधुनिक काल में इसे इण्डी विजुअल साइकोलॉजी एवं सोसल साइकोलॉजी में सामंजस्य स्थापित कर समझाया जा सकता है। इसी को इरा प्रोग्राफ ने अपनी अन्य कृति ‘युँग्स साइकोलॉजी एण्ड इट्स सोसल मीनिंग‘में समझाते हुए कहा है कि ‘मनोविकारों एवं रोगों के प्रभाव व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन में न रहकर सामाजिक क्षेत्र में भी कलुष उत्पन्न करते हैं। अतः इस स्तर पर व्यापक अनुसंधान अपरिहार्य है।

प्राचीन समय में साधना निग्रह, आहार-विहार, साधना, योग, तप जैसे अध्यात्म उपचारों को सफलता में देव अनुग्रह को माध्यम माना जाता था।

अब इन्हीं को क्रिया-कलापोँ के सहारे, स्वसम्मोहन, अचेतन, परिशोधन, प्रसुप्त शक्तियों के जागरण, संकल्पबद्ध, एकाग्रता एवं इच्छा शक्ति के चमत्कार के रूप में सिद्ध किया जा सकता है।

मानवी सत्ता में निहित ऐसे अनेकानेक आधार अब विदित हो गये हैं जिन पर वैज्ञानिक प्रयोग करके व्यक्ति कि उपयोगी विशिष्टताओं को उभारा और अनेक दृष्टियों से समर्थ बनाया जा सकता है। गुण, सूत्र, हार्मोन्स, नाड़ी, गुच्छक एक प्रकार से षटचक्रों, उत्पाटन क्रियाओं महा ग्रंथियों के परिष्कार के रूप में पुरातन काल जैसी भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं।

प्राचीन काल में ऋद्धि-सिद्धियोँ की चर्चा अपने ढंग से होती थी। आज भी प्रसुप्त विशेषताओं का अस्तित्व स्वीकार करने और उन्हें उभारने की संभावनाओं पर परा-मनोविज्ञान ने अपने समर्थन की मुहर लगा दी है। सम्मोहन विचार संचालन दूर श्रवण, भविष्य ज्ञान जैसे उपचार अब अध्यात्म न रहकर इस क्षेत्र की जानी मानी धारायें बन चुकी हैं। इनसे एक कदम और आगे बढ़ा जा सके तो बहुचर्चित ऋद्धि -सिद्धियोँ से आज के मनुष्यों को लाभान्वित होने का अवसर मिल सकता है। इन दिनों इन्हें कौतूहल की तरह देखा समझा जा सकता है पर अगले समय में इन्हीं उपलब्धियोँ को बड़े एवं व्यापक रूप से उसी तरह प्रयुक्त किया जा सकेगा जिस तरह सम्मोहन आदि का प्रयोग चिकित्सा पद्धति के रूप में होने लगा हैं।

आज व्यक्तियों को न केवल श्रेष्ठ वरन् अधिक समर्थ भी बनाये जानें की आवश्यकता है ताकि वे विकृतियों से बचने बचाने में, विपत्तियों से जूझने जुझाने में प्रवीण एवं सफल सिद्ध हो सकें। यह श्रेष्ठता एवं समर्थता शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक तीनोँ ही स्तर की होनी चाहिए ताकि मनुष्य की कर्म, ज्ञान एवं भाव की विविध धाराओं को उच्चस्तरीय बनाया जा सके।

महामानव निर्माण का यह समग्र क्षेत्र अनुसंधान प्रक्रिया से गुजरे, यह समय की माँग है।

व्यक्ति के सुधार के लिए आमतौर से भाषण एवं पुस्तकों के सहारे प्रशिक्षित करने की बात सोची जा रही है, पर मानवी इतिहास के लगातार के अनुभव यह बताते हैं कि आस्था क्षेत्र में निकृष्टता की जड़ें जमीं होने के कारण बाहरी सुझाव क्षणिक प्रभावी ही सिद्ध होते हैं। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि मानवी सत्ता का उद्गम केन्द्र अन्तःकरण है उस क्षेत्र में भावनाओं, मान्यताओं, आकाँक्षाओं का साम्राज्य है उसे संभालने सुधारने की सामर्थ्य भौतिक उपचारों में नहीं है, किन्तु बुद्धिवाद ने इसे अंध विश्वास करार कर दिया है। यदि इस क्षेत्र में वैज्ञानिकता प्रविष्ट हो सके तो ब्रेन वाशिंग की तरह आस्था परिष्कार की संभावना सिद्ध हो सकती है। निश्चित ही व्यक्तित्व को परिष्कृत कर महामानव बनने की आध्यात्मिक आधारों को स्वीकार कर वैज्ञानिक प्रणाली आविष्कृत होने की पूर्ण संभावना है। समय-समय पर दार्शनिक, मनीषी, अध्यात्मवादी अपने-अपने सुझाव देते रहे है। आवश्यकता इस बात की है कि अध्यात्मवादी एवं वैज्ञानिक दोनों संयुक्त रूप से इस शोध परियोजना को अपने हाथ में ले और अन्वेषण करें कि चिरकाल से व्यवहृत एवं सफल होती रही मनुष्य में देवत्व के उदय की संभावना को वर्तमान परिस्थितियोँ में वर्तमान साधनों से किस प्रकार पुनर्जीवित किया जा सकता है। प्राचीनकाल में मनुष्य में देव भाव के उदय एवं धरित्री पर स्वर्गिक वातावरण की परिस्थितियाँ रही हैं। अन्वेषण के नूतन प्रयास इस लुप्त कड़ी को पुनः जोड़ सकने में अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकते हैं। विज्ञान एवं अध्यात्म दोनोँ के संयुक्त प्रयत्न स्वयं सार्थक होकर मानव जाति को सार्थकता की ओर अग्रसर कर सकते हैं।


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