अपने को न हेय समझें न तुच्छ

November 1993

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अपने आप को तुच्छ, हीन, हेय मान बैठना व्यक्तित्व की सबसे बड़ी कमजोरी है। यह मानसिक ग्रंथि किसी भी सुयोग्य, सुशिक्षित, धनी, सुखी, संपन्न को दयनीय और पिछड़ेपन की स्थिति में ले जाकर पटक सकती है। दूसरों को अपने से समर्थ, योग्य और बलवान मानकर गया गुजरा समझ बैठना आत्महीनता कहलाती है। दब्बू, झेंपू, संकोची स्वभाव के व्यक्ति अपनी दुर्बलता छिपाने का प्रयत्न करते हैं और विनयशीलता, सज्जनता का दिखावटी प्रयास करते हैं। किन्तु फिर भी उनकी हीनता की झलक स्पष्ट दिखाई दे जाती है। नम्र तथा सज्जनों को, शिष्ट और सभ्यों को अपने मान सम्मान की रक्षा करते हुए अपने मन की बात विनम्र शब्दों में व्यक्त करते हुए कोई कठिनाई नहीं होती, जबकि आत्महीनता की ग्रंथि से ग्रसित व्यक्ति से न कुछ व्यक्त करते बन पड़ता है। और न उचित प्रतिपादन करते ही बनता है। दूसरों के पिछलग्गू बन कर कितने ही इस तरह का जीवन जीते और प्रगतिशीलता से हाथ धोते देखे जाते हैं।

कितने ही व्यक्तियों को साधारण सी बात कहने में घबराहट, घुटन और बेचैनी महसूस होती है। बहुत साहस बटोर कर आधी अधूरी अभिव्यक्ति करने में ही वे समर्थ हो पाते हैं। इस प्रकार के अस्पष्ट मंतव्य व्यक्त करने के कारण संभव है लोग कथन का कुछ अन्य अर्थ लगा लें अथवा आत्महीनता की झलक उन्हें मिल जाये और उसका नाजायज फायदा मनुष्य की सारी बुद्धिमता, योग्यता और प्रतिभा पर पानी फेर देती है। अपने को व्यक्त न सकने के कारण वह दूसरों की दृष्टि में असमर्थ, अयोग्य, असफल और मूर्ख साबित होता है। उसकी क्षमता पर लोगों को विश्वास नहीं होता। इसीलिए उन्हें उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य सौंपे जानें से भी लोग बचते हैं। हर जगह ऐसे लोगों को उपेक्षा, अवमानना का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार के व्यवहार से हीनता में और अधिक वृद्धि होती चली जाती है। फलतः वह अयोग्य घोषित कर दिया जाता है।

प्रायः आत्महीनता की घुटन दुर्भावनाओं में प्रकट होती देखी जाती है। अन्याय, पक्षपात की मान्यता जड़ जमाने लगती है। जितने लोगों से वास्ता पड़ता है, व्यक्ति को ऐसा लगता है कि वे सब विद्वेषी हैं। उसका हितैषी कोई है ही नहीं। विद्वेष के लिए बहुत बड़े कारण ढूंढ़ने की आवश्यकता नहीं है। सामान्य व्यवहार में भी दुर्भावना की दुर्गंध अनुभव की जा सकती है। किसी निर्दोष व्यक्ति या सहज स्वाभाविक घटना को आशंका और संदेहों की दृष्टी से अपने इच्छित स्तर से देखा जा सकता है। मित्र या शत्रु के रूप में किसी भी व्यक्ति को देखना स्वयं के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। यदि किसी के प्रति अंध श्रद्धा अथवा प्रगाढ़ प्रेम हो, तब वह सर्वगुण सम्पन्न दृष्टिगोचर होता है। पर ऐसा कम ही होता है। आत्महीनता की ग्रन्थि प्रायः द्वेष दुर्भावनाओं का ही आरोपण अधिक करती है। दमित स्नेह सद्भाव यदा-कदा उभरते हैं तब उदारता, प्रेम, करुणा, दया, ममता जैसे ज्वार आते हैं किन्तु आत्महीनता की लहर उन्हें भी शीघ्र लपेट ले जाती है।

हीन भावना की परिणति कभी-कभी उद्धत आचरण में भी होती है। तोड़-फोड़, आक्रोश, अनशन, रूठना, रोना जैसे विचित्र व्यवहार के रूप में इसे देखा जा सकता है। भूत-प्रेतों का प्रकोप भी ऐसे ही लोगों पर अधिक होता है। अनेकों सपने और दिव्य अनुभूतियाँ सुनाने में ऐसा ही वर्ग अग्रणी रहता है। शृंगार और फैशन बनाना, अत्यन्त सजधज, यह भी हीनता की संज्ञा में आता है। इसमें थोड़े से अहं की तुष्टि होती है जिससे राहत मिलती है। धर्मात्मा के रूप में आत्म विज्ञापन करके दूसरों से प्रशंसा अर्जित करने का भाव भी ऐसे लोगों में अधिक देखा जाता है। आशंका, असमंजस की स्थिति में इन्हें कठिनाइयाँ भी अधिक उठानी पड़ती हैं। अनेक रुकावटों, उलझनों का सामना करना पड़ता है।

कुरूपता, दरिद्रता, ऊँच-नीच की भावना अशिक्षा, आदि कारण भी ऐसे हैं जिनके कारण व्यक्ति आत्महीनता का शिकार बन जाया करते हैं। लोग भी उन्हें हेय दृष्टि, अथवा तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं, व्यवहार करते हैं, तब अंतः मन में हीनता के भाव घर कर लेते हैं। और यह मान्यता स्थाई स्थान बना लेती है। लड़के लड़कियों के भेदभाव के पीछे न कोई वैज्ञानिक तर्क है न आध्यात्मिक न सामाजिक, फिर भी लोगों ने लड़कियों की अपेक्षा लड़कों को श्रेष्ठ मान लिया है। और उन्हें अधिक सुविधा व लाड़ प्यार दिया जाता है। कन्या को पराया धन मानकर उतना ध्यान नहीं दिया जाता। उनकी शिक्षा दीक्षा में भी साधारण सी खाना पूर्ति कर दी जाती है। जब कि लड़कों के लिए उच्च एवं खर्चीली व्यवस्था भी करनी पड़े तो भी लोग हिचकिचाते नहीं। इसी आत्महीनता के कारण लड़कियाँ स्वयं भी लड़कों की अपेक्षा अपने को द्वितीय श्रेणी का मान बैठती हैं।

अपने आप को पापी, अपराधी, अभिशप्त, दुर्भाग्यशाली ग्रहदशा से पीड़ित मान बैठने वाले व्यक्ति भी सदा दबे, सहमे, झिझके-बुझे से दिखाई देते हैं। उनके चेहरे सदा मुरझाए, शंकालु और उदास ही दिखाई पड़ते हैं। वे सदैव अपने को त्रस्त और कठिनाइयों से लदा समझ बैठते हैं। ऐसे व्यक्ति अपना भविष्य अंधकारमय मान बैठते हैं। और साहस हीन बन जाते हैं। भीतर से टूटे, हारे हुए लोग सदा अपने भाग्य को कोसते रहते हैं। अपने से ऊँची स्थिति के लोगों से तुलना करने पर उन्हें अपना दुर्भाग्य और अधिक स्पष्ट नजर आने लगता है। कदाचित यह तुलना अपने से छोटों से भी की गई होती तो वर्तमान उतना हेय और हीन तथा अभावग्रस्त नजर न आता। बड़ों की तुलना न करके अपना पुरुषार्थ जगाकर प्रयत्न करने पर दुर्भाग्य तिरोहित हो सकता था। किन्तु हेय और गया गुजरा मान बैठने वालों से ऐसे प्रयत्न, पुरुषार्थ की आशा भी नहीं की जा सकती। उनका मनोबल पहले से ही क्षीण हो चुका होता है।

वियना के सुप्रसिद्ध मनोविज्ञानी डाक्टर एर्ल्फड एडलर के अनुसार आत्महीनता की ग्रंथि में वे ही लोग फँसते हैं जिनका चिंतन निषेधात्मक होता है अथवा जो स्वार्थी और चालाक होते हैं। जो केवल अपने ही स्वार्थ सिद्ध करने की सोचते और व्यक्तिगत लालसा, कामनाओं की पूर्ति के सपने संजोते रहते हैं, अथवा जिनका मन कल्पनाओं की उड़ान भरता है। उनका कथन है कि मनुष्य की धारणाएँ प्रायः भ्रम मूलक होती हैं। अधिकाँश लोग अपना मूल्याँकन सही रूप से नहीं कर पाते और दूसरों की दृष्टि में कुछ का कुछ प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार वे स्वयं अपने को ही धोखा दे रहे होते हैं। वास्तविकता और कलपना का संघर्ष मनुष्य के मन में अनेक विकृतियाँ उत्पन्न कर देता है और आत्महीनता की गहरी खाई में धकेल देता है। इससे छुटकारा पाना तभी संभव है जब आत्मबल बढ़ाया जाय और आत्म निरीक्षण किया जाय। यह तभी संभव है जब चिंतन की दिशा धारा विधेयात्मक हो।

वस्तुतः जब तक प्रत्येक व्यवहार की विवेचना का अभ्यास नहीं बनाया जाता। उसके मूल में बैठी प्रेरक भावनाओं पर दृष्टि नहीं डाली जाती, तब तक इस ग्रंथि से छुटकारा पाना मुश्किल है। आत्महीनता किन कारणों से मिलती है, वंशानुगत है अथवा परिवार के सदस्यों के परस्पर आचरण और व्यवहार से उत्पन्न हुई है। उस पर विचार कर उसी तरह के निराकरण के उपाय उपचार की व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। प्रायः मनुष्य दूसरों की दृष्टि में अपने को परखने का असफल प्रयास करता है इसीलिए स्वयं अपने असली रूप को शक्ति और सामर्थ्य, योग्यता को देखने से वंचित रह जाता है। इससे त्राण पाना तभी संभव है जब वह दृढ़ निश्चय करे कि वह संसार का श्रेष्ठ प्राणी है और उसके लिए कोई कार्य असंभव नहीं है दूसरे यदि श्रेष्ठ हैं तो वह क्यों नहीं वैसा बन सकता। यही वह मनःस्थिति है जो व्यक्तित्व को ऊँचा उठाती है और श्रेय सम्मान का अधिकारी बनाती है।

सुविख्यात रूसी लेखक गोर्की ने अपने देश के किसानों को संबोधित करते हुए कहा था कि -’याद रखो कि तुम पृथ्वी के सबसे श्रेष्ठ और आवश्यक प्राणी हो। कोई कारण नहीं कि कोई व्यक्ति अपने को अनावश्यक तुच्छ अथवा हीन समझे। यदि वही अपना मूल्य न समझेगा तो दूसरे उसे किस प्रकार आवश्यक मानेंगे। “यही मत शेक्सपियर का भी है कि सबसे बड़ी बात हे कि मनुष्य न दीन-हीन है न तुच्छ। उसे सदैव मनुष्य तत्व और मनुष्य सुलभ शक्तियों में विश्वास बनाए रखना चाहिए। अन्य प्राणियों की तरह न वे गये गुजरे हैं न तुच्छ। इस तरह की बलवती भावनाओँ से ही आत्महीनता की ग्रंथि से छुटकारा पाया जा सकता है।


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