परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी- - संधिकाल के महत्व पर एक विशिष्ट उद्बोधन

November 1993

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(दिनाँक 24-12-71)

इस अंक में प्रस्तुत संधिवेला, जो युगपरिवर्तन का संदेश लेकर आयी है, का महत्व एवं परिजनों को इसमें क्या कुछ करना है, इसका विशद मार्ग दर्शन है विशिष्ट त्रैमासिक सत्रों में शाँतिकुँज परिसर में 24 दिसम्बर 1971 को परम पूज्य गुरुदेव द्वारा अभिव्यक्त इन महत्वपूर्ण विचारों की सरिता में पाठक अवगाहन करें, जो आज के समय के लिए और भी सामयिक एवं हमें चुनौती देते दिखाई पड़ रहे हैं।

गायत्री मंत्र साथ-साथ-ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियों, भाइयों। इस समय जिसमें हम और आप रह रहे हैं, यह युग संधि का समय है। युग-संधि क्या है?युग-संधि उसे कहते हैं। जबकि दो महत्वपूर्ण चीजें आपस में बदलती हैं-जैसे संध्या का समय। एक संध्या प्रातःकाल होती है और एक सायंकाल होती है। दिन खत्म हो जाता है, रात आ जाती है। यह सायंकाल की संधि का समय है। रात चली जाती है और सवेरा आने में समय लगता है। यह प्रातःकाल की संधि का समय है। दो चीजें जब मिलती हैं तब उनको संधि कहते हैं-संध्या काल कहते हैं। यह संध्या का समय है जिसमें दैत्य विदा होने जा रहा है और देव प्रकट होने जा रहा है। दैत्य वह जिसको हम पदार्थवाद-भौतिकवाद कहते हैं। जो देखने में चमकदार, शक्तिशाली और सामर्थ्यवान है, लेकिन भीतर से कलुषित है। उसकी प्रतिक्रियाएं स्वयं के लिए भी और दूसरों के लिए भी दुःखद हैं। रावण जिया तो सही, जप, तप भी किया, सोने की लंका भी बनायी। लेकिन ऋषियों को मारता-काटता रहा, दुःख देता रहा और दुःख पाता रहा और अंततः दुःख पा करके ही मरा। स्वयं भी दुःख पाया और स्त्री -बच्चों को दुःख से जलते -भुनते देखा। दैत्य दुःख देता है और दुःख पात है। देखने में उसका बाहरी कलेवर सोने जैसा चमकदार मालूम पड़ता है। उसकी ताकत ऐसी मालूम पड़ती है मानों दस सिर और बीस भुजाओं वाला हो। सामान्य मनुष्य से ज्यादा ताकतवर होता है दैत्य-जाइंट। जाइंट पहली बार विदा होने जा रहा है। फिर कौन आने वाला है?अब देव का युग सहृदयता का युग, सादगी, सज्जनता और सद्भावना का युग आने वाला है। ‘जाइंट’ जो जानें वाला है, जिसे हम स्वार्थपरता कहते हैं। संकीर्णता, निष्ठुरता और कृपणता कहते हैं, वह आज जन-मन के भीतर छा गया है। आज आदमी कितना संकीर्ण, कितना स्वार्थी हो गया हैं। उसे दूसरों के बारे में कोई चिंता नहीं, केवल अपनी ही चिंता। यह कौन होता है ?केवल अपनी ही चिंता करने वाले को दैत्य कहते हैं। दैत्य मनोवृत्ति के रूप में भी आता है और व्यक्ति के रूप में भी आ सकता है। उसकी यही पहचान है।

दैत्य कहाँ रहते हैं?कहाँ बतावें आपको। अपना मुँह शीशे में देखिये तो आपको दिखाई पड़ेगा। कि दैत्य-राक्षस जाइंट आपके भीतर बैठा हुआ है। जिसकी हवस इतनी ज्यादा है वह उतना बड़ा दैत्य है। हर एक की हवश आसमान छू रही है। सौ रुपये महीने कमाने वाले का भी गुजारा नहीं। हविश का राक्षस इस तरीके से उछलता और उबलता रहता है कि अच्छे कार्यों के लिए भजन-पूजन के लिए कुछ नहीं बचता हमारे पास, फिर सेवा के लिए, परमार्थ के लिए देवपूजन के लिए कहाँ बचेगा?आपके पास है क्या जिससे पूजन करेंगे। आपके पास तो बची हुई एक हविश है जिसको पूरा करने के लिए आप हर एक को निगलना चाहते हैं। आपकी ख्वाहिशें इतनी बढ़ी हैं कि आप हर एक का सफाया करना चाहते हैं, हर एक को अपने पेट में भर लेना चाहते हैं। पेट में कौन भरता है-दैत्य। वह कभी भजन करता है रावण के तरीके से, तो कभी मारीच के तरीके से पूजन करता है। चारों ओर दैत्य छाया हुआ है। यह पढ़ा-लिखा भी है। बलवान है और विधावान भी है। कुबेर के खजाने में बंधा हुआ भी है यह ‘जाइंट ‘जो आज सारे के सारे विश्व के मानस पटल पर छा गया है। दैत्य अब मरने जा रहा है-विदा होने जा रहा है।

अब क्या आने वाला है?देव आने वाला है। देव किसे कहते हैं?शराफत को कहते हैं-भलमनसाहत को कहते हैं। देवता कहाँ रहते हैं?आसमान में रहते हैं ?नहीं। देवता एक सभ्यता का नाम है-संस्कृति का नाम है। इसी तरह दैत्य एक सभ्यता का नाम है-संस्कृति का नाम है। देव और दानव दो संस्कृतियों के नाम है। आज हर जगह दैत्य संस्कृति, जाइंट-संस्कृति, विलासिता की संस्कृति के रूप में मनुष्य के ऊपर हावी है। चाहे वह लंबे तिलक लगाता हो, चाहे पैण्ट पहनता हो। सब इस मामले में एक ही हैं कोई फर्क किसी में नहीं पड़ता। अब यह सभ्यता खत्म होने वाली है। शायद आपको दिखलाई न पड़ता हो, पर हमको दिखाई पड़ता है। कैसे दिखाई पड़ता है। आप समुद्र के किनारे बैठ जाइये। आपको आने वाले जहाजोँ के मस्तूल पानी ऊपर दिखाई पड़ेंगे। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अभी मस्तूल दिखाई दे रहा है, थोड़ी देर में पूरा जहाज सामने आ जायेगा। बादल जब चमकते हैं। तब हमको मालूम पड़ता है कि पानी गिरने वाला है। पहले वाली संभावनायें देखकर मालूम पड़ जाता है कि कुछ हेरफेर होने वाला है। परिवर्तन होने वाला है। परिवर्तन का संकेत पाकर बिल्ली अपने बच्चों को लेकर चल देती है। मकड़ी अपने जाले को समेट लेती है। भविष्य की जानकारियाँ सभी को होती हैं। चिड़ियों और कुत्तों को भी तथा अन्य प्राणियों को भी। दिव्यदर्शियों को भी होती हैं और परिस्थितियों का अनुमान लगाने वाले कम्प्यूटरों को भी। ये सभी भविष्य के बारे में अनुमान लगा लेते हैं और इनमें से अधिकाँश सही भी होते हैं।

युग संधि का जो यह समय है, उसमें एक ओर मालूम पड़ता है कि विनाश अपनी आखिरी बाजी लगाने जा रहा है। हारा हुआ जुआरी अंत में जो कुछ भी मिलता है उसी को दाँव पर लगा देता है, यहाँ तक कि बीबी को भी दाँव पर लगा देता है। वह बागी हो जाता है और क्या करता है? चरम सीमा पर जा पहुँचता है। दैत्य भी इन दिनों चरमसीमा पर जा पहुँचेगा। अब वह समय निकट आ गया जिसमें दैत्य अपनी चरमसीमा पर होगा। आपने देखा होगा कि प्रातःकाल जब सूर्य उदय होने वाला होता है तो अंधेरा सबसे ज्यादा उसी वक्त होता है। रात्रि घनीभूत कब होती है - जब प्रातःकाल नजदीक आ जाता है। दीपक की सबसे बड़ी लौ कब होती है-जब दीपक बुझना शुरू होता है। चींटी के पंख कब उगते हैं? जब उसके मरने के दिन नजदीक आ जाते हैं। जब आदमी मरने को होता है तो बहुत जोर से साँस लेता है और चेहरे पर चमक मालूम पड़ती है।

मित्रों। युग संधि के बारे में कई तरह के विचार हैं कितनी ही तरह की मान्यतायें हैं। उसमें एक यह कि एक पक्ष नष्ट होने वाला है और एक पक्ष जीवंत होने वाला है। ऐसे समय को ‘प्रसव पीड़ा ‘ कहते हैं जिसमें एक ओर प्रसूता के ऊपर जान की बनी रही है। वह जीवन और मौत के झूले में झूल रही है। दूसरी ओर खुशी, उमंग, मुस्कान कि नया बच्चा गोदी में आने वाला है। एक ओर तो खुशी भी होती है संतोष होता है। कि नया बच्चा आने वाला है और दूसरी ओर प्रसव पीड़ा में जान भी निकलती है। यह प्रसव पीड़ा का समय है-युग की पीड़ा का युग परिवर्तन का समय है। जिनमें हम और आप रह रहे हैं। इसमें दैत्य मरने जा रहा है और देव अपना जन्म लेने जा और देव अपना जन्म लेने जा रहा है-उदय होने जा रहा है।

आपको इसका आभास कैसे मिलता है?हम कई आदमियों से मालूम करते हैं-कई फैकेल्टीज से मालूम करते हैं, कई विचारकों से मालूम करते हैं तो नतीजा उसी स्थान पर जा पहुँचता है कि युग परिवर्तन का समय नजदीक आ गया है। यह विनाश और विकास का संधिकाल है। इस संबंध में आकाश की जानकारी रखने वालों से पूछताछ की तो उन्होंने कहा कि अब दुनिया में घुटन पैदा होने वाली है। हवा के अंदर गर्मी और विषाक्तता इस कदर बढ़ती जा रही है कल कारखानोँ के द्वारा मशीनों के द्वारा, उद्योगों के द्वारा कि सारा का सारा वातावरण विषाक्त होता जा रहा है। शहरों की गंदगी कहाँ डालते हैं?नदियों में परिणाम स्वरूप सारी की सारी नदियाँ विषैली होती चली जा रही हैं। अब गंगा तक का पानी न नहाने लायक रहा हैं न पीने लायक। न केवल हिन्दुस्तान में वरन् सारे संसार में हवा और पानी खराब होते जा रहे हैं। हम चारों ओर से हवा और पानी के रूप में जहर पी रहे हैं। बढ़ता शोर-कोलाहल आदमी के मस्तिष्क को पागल बनाने के लिए काफी है। जिस तरह से कुपोषण के कारण छोटे बच्चे की मौत के मुँह में चले जाते हैं। उसी तरीके से इन कुप्रभावों से आदमी की शारीरिक और मानसिक सेहत अब खराब होने वाली हे।

मौसम के जानकारों का कहना है कि अगले दिन हमारे लिए मुसीबत के होंगे। क्योंकि तापमान इस कदर बढ़ता चला जा रहा है कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर जो बर्फ जमा है, वह बेतहाशा गलने वाली है और जल प्रलय का दृश्य सामने आने वाला है। इतिहास बताता है कि पृथ्वी जब से बनी है तब से कई बार ऐसे मौके आये हैं जब जल प्रलय हुई है और आबादियाँ डूब गई हैं। धरती बिना आबादी के रह गयी है और क्या बुरे दिन मालूम पड़ते हैं?

साँख्यिकी के जानकारोँ से जब हम पूछते हैं कि आपका क्या ख्याल है तो वे भी लगभग यही बात कहते हैं कि अगले दिन बहुत खराब आ रहे हैं। क्यों आने वाले हैं?इसलिए आने वाले हैं कि जनसंख्या बेहद बढ़ती चली जा रही है। जनसंख्या का पृथ्वी पर बढ़ना एक बहुत बड़ा जुर्म है एक बड़ा जोखिम है। पृथ्वी के भीतर असंख्य प्राणियों को जीवित रखने लायक खुराक नहीं है और न इसकी लंबाई-चौड़ाई इतनी है कि रबर की तरीके से हम इसको फैला दें। इंसानों की एक सीमित मात्रा ही इस पर रह सकती है और खुराक पा सकती है। लेकिन इंसान के ऊपर जहालत इस कदर हावी होती चली जा रही है कि कीड़ों-मकोड़ों के तरीके से, चूहे और कुत्तों के तरीके से बिल्लियाँ पैदा होते चले जाते हैं। और दुनिया के लिए आफत पैदा करते हैं। बच्चे यदि इसी कदर बढ़ते रहे तो आप देख लेना दुनिया भूखों मरेगी। फिर यह ’नेचर’ ऐसे बेहूदे लोगों के लिए हमेशा तीन डंडे तैयार रखती है -एक महामारी, दूसरा अकाल और तीसरा महायुद्ध। ‘इकॉलाजी’ के हिसाब से महामारियाँ फैलेंगी और मक्खी, मच्छरों के तरीके से अनावश्यक रूप से बढ़ी हुई औलादों को समाप्त कर देंगी। तूफान आयेंगे, लड़ाइयां होंगी, अकाल पड़ेंगे ताकि भूख के मारे जरूरत से ज्यादा बढ़ी हुई आबादियाँ खत्म हो जायें। ये मुसीबतें आयेंगी और जरूर आयेंगी।

और कौन क्या कह रहा था?जो ग्रह नक्षत्र विद्या के जानकार हैं। वे कह रहे थे कि पृथ्वी का खाविंद सूर्य है। ये दोनोँ मियाँ बीबी के तरीके से रहते हैं। सूरज कमाता रहता है और पृथ्वी को भेजता रहता है। उसी के आधार पर पृथ्वी जिंदा रहती है। फलती-फूलती है और हरी-भरी बनी रहती है। अगर सूरज की कमाई इसके हिस्से में न आयी होती तो यह मर गयी होती, मंगल और बुध की तरीके से जल-गल रही होती। या फिर प्लूटो और नेपच्यून के तरीके से इतनी ठंडी होती कि यहाँ बर्फ के अलावा और कुछ न होता। यदि सूरज ने अपनी आँखें मोड़ली होतीं तो यह शनि और शुक्र की तरह गैस का गुब्बारा बनकर रह रही होती। लेकिन यह सूरज की मोहब्बत है जिसकी कमाई यह खाती रहती है। और उससे गर्मी और रोशनी लेती रहती है।

‘लाइफ’ कहाँ से आ गयी धरती पर सूरज से। कीड़े-मकोड़े, जीव-जन्तुओं इंसान इन्हीं दोनोँ के ‘कम्बिनेशन’से पैदा हुए हैं। पृथ्वी और सूरज का बहुत घना संबंध है। अब इसमें फर्क आ गया है। तलाक की नौबत तो नहीं आने वाली है। लेकिन नाखुशी की बहुत परिस्थितियाँ पैदा हो गयी हैं। सूरज का पहले का भी इतिहास है कि जब कभी भी पृथ्वी और सूरज के संबंधों में जरा भी फर्क आया है, घर में कलह उत्पन्न होने वाला है। अब यह कलह फिर से उत्पन्न होने वाला है। सन् 1971 से सूरज के ऊपर ‘स्पाट्स’ उत्पन्न होने वाला है जो लगातार बीस वर्ष तक चलेंगे। ‘स्पाट्स’ किसे कहते हैं? ’स्पाँट्स’ उन्हें कहते हैं जिनमें कि एक-एक लाख मील लम्बी लपटें-ज्वालाएं सूरज में से निकलती हैं। और वे इतनी खतरनाक विकिरण पैदा करती हैं कि उसका सबसे बड़ा प्रभाव पृथ्वी पर पड़ता है। पहले भी कई बार ऐसे विकिरण आ चुके हैं और उसने पृथ्वी के संतुलन बिगाड़ दिये हैं। दूसरी बात अगले दिनों ऐसे सूर्य ग्रहण शृंखलाबद्ध रूप से आ रहे हैं। जैसे कि 800 वर्षों के इतिहास में कभी नहीं आये इनका परिणाम सारा विश्व देखेगा।

तीसरी बात जो खगोल विघा के जानकार बताते हैं कि सन् 81 के बाद में एक और आपत्ति आने वाली है- बृहस्पति के जानकार भी बतलाते हैं। कि अगले बीस पच्चीस साल सन् 1980 से 2005 तक का समय युग-संधि का वह पक्ष है जो नुकसान देय है-खौफ नाक है अखण्ड-ज्योति में आपने कई बार ऐसी भविष्यवाणियाँ पढ़ी होगी। अब कुछ और लेख जनवरी और फरवरी 1980 के अंक में जा रहे हैं। ताकि लोगों को आगाह किया जा सके। यह लोगों को डराने वाली बात नहीं है, वरन् परिस्थितियों का विश्लेषण है। इसी तरह एक और तथ्य है जिसकी वजह से हम कह सकते हैं कि यह नुकसान के समय हैं। इसके लिए धर्मशास्त्रों की गवाहियाँ पेश कर सकते हैं। बाइबिल में ईसा की वह भविष्यवाणियाँ हैं जिन्हें “सेवन टाइम्स “के नाम से जाना जाता है। उनके अनुसार यह समय सन् 80 से सन् 2000 तक का समय होता है। उन भविष्यवाणियों का साराँश केवल तबाही है इंसानों पर आने वाली तबाही है। तो उसमें लिखा है कि 14 वीं सदी में कयामत आयेगी। कयामत का मतलब नुकसान भी हो सकता है। अभी वह कयामत जिसमें पृथ्वी का सफाया हो जायेगा, बहुत देर की बात है, लेकिन नुकसान का समय जरूर नजदीक है, मुसलमानों के लिए ही नहीं हम सबके लिए भी। सूरदास के ग्रंथों से लेकर प्राचीन धर्मशास्त्रों, भविष्य पुराण, कल्कि पुराण, आदि सभी भविष्यवाणियों से भरे पड़े हैं। इससे मालूम पड़ता है कि अगले बीस वर्षों तबाही के खौफनाक आ रहे हैं।

युग संधि का एक लक्षण यह होता है कि तबाही होती है। एक सत्ता उखाड़ी जाती है और दूसरी जमायी जाती है। क्राँतियाँ होती हैं। एक चले गये, दूसरे आ गये। नुकसान होते रहे। दुनिया में जब एक सत्ता उखड़ती है और दूसरी सत्ता आ जाती है, तब हमेशा गड़बड़ियाँ फैलती हैं, नुकसान होते हैं दूसरी बातें होती हैं। युगसंधि का यह पक्ष नंबर एक है। इसका एक और पक्ष हे-सुनहरा वाला पक्ष जिसको हम ‘प्रसव पीड़ा’ कहते हैं। और जिक्र भी कर चुके है। इसमें बीज गलता जाता है और अंकुर पैदा होता जाता है धान रोपी जाती है-खुशी के गीत गाये जाते हैं कि अगले दिन फसल होने वाली है। भवन का शिलान्यास किया जा रहा है, नींव चिनी जा रही है और अगले दिनों भवन खड़ा हो जायेगा। यह क्या है? उज्ज्वल भविष्य की संभावनायें हैं-शिलान्यास के रूप में, अंकुर पैदा होने के रूप में, बच्चा पैदा होने के रूप में। अगर आप देख सकते हैं तो इन दिनों उज्ज्वल भविष्य की संभावनायें भी सामने हैं। जिस युग संधि में हम रह रहे हैं। उसे आपत्ति काल कह सकते हैं। आपत्ति धर्म कह सकते हैं। ऐसे समय में जाग्रत आत्माओं की विशेष जिम्मेदारी होती है। उनको कुछ खासतौर से देखभाल करनी साज-सँभाल करनी पड़ती है। परिवर्तन की घड़ियों में खासतौर से देखभाल करना उन लोगों की खास जिम्मेदारी हो जाती है जो जगे हुए आदमी हैं जिनमें से मैं आपको भी शुमार करता हूँ।

ऐसे समय कुछ खास समय होते हैं जिन्हें आपत्तिकालीन समय के नाम से पुकारते हैं। मसलन मोहल्ले में आग लग जाये छप्पर जलने लगें, तो आपको सामान्य काम बन्द कर देने चाहिए और बाल्टी लेकर रेत लेकर के चल पड़ना चाहिए और जहाँ भी आग लगी है, बुझानी चाहिए। आपत्तिकालीन समय में आपत्तिकालीन फर्जो को अंजाम देना पड़ता है। दुर्घटनायें घट जायें, भूकंप आ जाये, रेलगाड़ी का ऐक्सीडेंट हो जाये, आपके पड़ोस में और सैकड़ों लोग घायल पड़े हों, तब आप यह नहीं कह सकते कि हमारे पास समय नहीं है फुरसत नहीं है। यह कहना बंद कीजिये। इस तरह के जो काम सामूहिक जिम्मेदारी के होते हैं, उनको पूरा करने के लिए लग जाना चाहिए। नये युग का नये जमाने का महाकाल का प्रज्ञावतार का खासतौर से आप लोगों का तकाजा है, उन लोगों से जो जाग्रत हैं-जगे हुए हैं जिस में मैं आपको शुमार करता हूँ जिनकी कि अकल जनसाधारण से ऊँची है। जनसाधारण से मेरा मतलब है-वे आदमी जो सिर्फ पेट के लिए जिंदे रहते हैं। इनको अपने स्वार्थ के अलावा अपने मतलब के अलावा दूसरी को चीज दिखाई नहीं देती। उनको न भगवान दीखता है, न दया-धर्म दीखता है न देश दीखता है न संस्कृति दीखती है। लोभी लालची और लिप्सा में डूबे हुए आदमी हविश के मारे हुए आदमी को मैं जनसाधारण आदमी कहता हूँ। वे उस भगवान की पूजा करना चाहते हैं जो दोनाँ भर-भर के दे जाता है। बाल-बच्चे पैदा कर जाता है और इनाम दे जाता है। ऐसे भगवान की पूजा बंद कीजिये वह भगवान नहीं हो सकता जो आवश्यकता को देखे बिना, औचित्य और अनौचित्य को देखे बिना हर एक की मनोकामना पूरी करता रहता है। जो भगवान आज आदमी के ऊपर छाया हुआ है वह भगवान नहीं शैतान है। भगवान की कुछ परिभाषा होनी चाहिए, कुछ क्रम होना चाहिए। भगवान सिद्धान्तों को कहते हैं, आदर्शों को कहते हैं, उत्कृष्टता को सच्चाई को कहते हैं, ईमानदारी और वफादारी को कहते हैं, संस्कृति की सेवा को कहते हैं। आप लोग जो तीन महीने के शिविर में आयें हैं उनमें से मुझे वे आदमी मालूम पड़ते हैं। जो भगवान को जानते हैं, भगवान की परिभाषा जिनके दिमाग में आ गयी है। जो भगवान से संबंध रखने वाले हैं, भगवान को प्यार करने वाले हैं और भगवान उन पर कृपा करने वाला है। आप सामान्य मनुष्यों की अपेक्षा कुछ असामान्य मालूम पड़ते हैं। असामान्य मनुष्यों से मुझे कुछ कहना है। सामान्य मनुष्य को मैं जानता हूँ कि वह दुखियारा है। उस बीमार को दवा की जरूरत है। ये मेरे पास आते रहते हैं और मैं उनसे यही पूछता रहता हूँ कि बेटे, बता क्या बात है ?क्या तकलीफ है। हारी-बीमारी से लेकर बेटे-बेटी की शादी-ब्याह, नौकरी, पदोन्नति तक की बातें करते हैं और मैं उनसे यही कहता हूँ कि भगवान से प्रार्थना करेंगे और करा देंगे तेरा काम। बस उस गरीब को और क्या चाहिए। मित्रों क्या होना चाहिए?बालकों को गुब्बारे के अलावा-टॉफी और चॉकलेट के अलावा कुछ नहीं मालूम। उनसे कुछ काम नहीं होने वाला। वे तो गोदी में खेलनें लायक और प्यार करने लायक हैं। वे मुसीबत में कुछ सहायता करने वाले नहीं हैं। उन से धर्म अध्यात्म की, लोक-परलोक की, भगवान की समाज संस्कृति की कुछ भी बात नहीं कहते। उनसे तो यही कहा जा सकता है कि अपना पेट भरिये, अपनी हवश पूरी कीजिये और इंसान की तरह से गुजारा की जिए। लेकिन आप से कहना है, क्योंकि आप में वह तत्व हमें दिखायी पड़ते हैं जो जीवंतों में होने चाहिए। जीवंत वे जो सामान्य मनुष्यों से ऊँचे उठे हुए होते हैं-जैसे आपने सुबह सूरज को निकलते हुए देखा होगा। सबसे पहले सूरज की किरणें पहाड़ों की चोटी पर आती हैं, पेड़ों पर आती हैं, फिर नीचे आते आते जमीन पर आती हैं। भगवान भी उनके ऊपर आते हैं जिनके पास दिल होता है-हृदय होता है, जिनके पास भावनायें होती हैं। भगवान बांसुरी बजाते हुए, डमरू बजाते हुए या तीर-कमान चलाते हुए नहीं आते। तो फिर क्या करते हैं? वे सिद्धांतों को ले करके आते हैं, आदर्शों को लेकर आते हैं। जो ऊँचे स्तर के लोगों में, भावनाशीलों में दिखाई देती है।

आप क्या कहना चाहते हैं ?मैं यही कहना चाहता हूँ कि इस युग-संधि की वेला में आप कुछ महत्वपूर्ण काम कर पायें तो आपके लिए शान की बात गरिमा की बात होगी। क्या करना चाहिए? करने को तो ढेरों के ढेरों काम पड़े हैं, पर हमने इन तीन महीनों में जो आपको याद दिलाया है वह यह कि हमको जमाने की फिजाँ बदल देनी चाहिए। बहुत सारे संकट हैं, लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा संकट-आस्था संकट है। अकल का संकट नहीं है। पुराने जमाने में कोई कोई पढ़े लिखे होते थे, बाकी सारी की सारी जनता बिना पढ़ी थी। हमारी माताजी जिनके पेट से हम पैदा हुए हैं, बिल्कुल बिना पढ़ी थीं। उन्होंने हमें बालकपन से ही इस प्रकार के संस्कार दिये कि हम भूल नहीं सकते। हमारा सबसे बड़ा गुरुजी हमारी माँ हैं, जो हमारे भीतर नैतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के सारे गुणों को अपने दूध के साथ में पिला करके और गोदी में खिला करके हमको सिखाकर के गयीं थीं और माताएं भी ऐसी हो सकतीं हैं। बहुत से आदमी ऐसे हो सकते हैं जिनके पास शिक्षा न हो और ऐसे आदमी शिक्षित हो भी सकते हैं जिनकी अकल का तो कहना ही क्या। इसके बारे में कल भी कह चुका हूँ कि मालाबार हिल के ऊपर एक वकील रहता था जिसने हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच में इस कदर खाई पैदा कर दी कि दोनों देशोँ में तबाही आ गयी। यह है अकल जिसके ऊपर हम लानत भेजते हैं। आप लोगों को एक ही काम करना है कि इस अकल को विचारों को बदल देना है। शोध अनुसंधान वालों से भी हमने यही कहा है कि आप केवल एक चीज की शोध कीजिये कि आदमी की विवेक बुद्धि को और चिंतन के ऊँचे वाले स्तर को जो गड़बड़ा गया है-उसको ठीक कर लीजिये क्योंकि आज आदमी बुद्धिजीवी हो गया है। उसकी बुद्धि को हर क्षेत्र में पटक-पटक कर मारना है। जिस तरह धोबी कपड़े को पीट-पीट कर धुलाई करता है, वैसे ही अकल को पीट-पीट कर ठीक करना है। यह अकल का लिबास ओढ़ करके आदमी के दिमाग और जीवन पर हावी हो रही है, इसको पटक मारनी है जिससे इसको ठिकाने लगाया जा सके।

अब आप क्या करना चाहते हैं?अब हम एक और काम करना चाहते हैं कि हमारा छोटा सा समूह छोटा सा समुदाय एक और प्लानिंग करके चले तो मजा आ जाये। ऐसे समय में हम मूकदर्शक हो करके नहीं रह सकते। हमारा छोटा सा जखीरा ऐसे समय में पानी पिलाने के लिए जागरूकों की टोली में चलेगा ही। अभी हम बच्चे हैं, छोटी बाल्टी हमारे पास है, हाथ छोटे हैं, तो क्या हुआ, अपना फर्ज हमें पूरा करना चाहिए। युग संधि के इस वर्तमान समय में कुछ काम करने की हैसियत में हम है, उसे पूरा करने के लिए हम आमादा हो जायें तो ज्यादा अच्छा होगा। इसके लिए हमने चार पंचवर्षीय योजनायें बनायीं हैं। हमारा अपना भी ऐसा ख्याल है और जिन लोगों से हम मिलते-जुलते हैं। या जिनका नियंत्रण हमारे ऊपर है, उनकी सलाह मशविरा से भी हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि अगले 20 साल सन् 80 से लेकर सन् 2000 तक का समय ऐसा है जिसमें एक कोने में नये युग का पौधा विकसित हो इस लायक हो जायेगा कि उसकी छाया में लोगों को बिठाया जा सके। हम विनाश को, जो संभावनायें के रूप में डराता रहता है, उस स्थिति में नीचे कर सकेंगे निरस्त कर सकेंगे। जिससे लोगों को राहत मिले और वे चैन की साँस ले सके। आदमी का संतुलन 20 साल में बन जायेगा, ऐसा हमारा ख्याल है। पाँच-पाँच वर्ष की चार योजनायें जो हमने बनायी हैं, मैं नहीं जानता कि कब तक सँभालूँगा पर मैं इतना जरूर कहता हूँ कि चारों योजनाओं के गति पकड़ने तक हम किसी न किसी रूप में कहीं न कहीं अपना वजूद कायम रखेंगे और यह कोशिश करेंगे कि नया युग लाने का जो आन्दोलन शुरू किया है उसका फल भी देखने को मिल जाय।

पहली योजना बहुत सिम्पल है, दूसरी योजना उससे कठिन है, तीसरी योजना और कठिन है और चौथी योजना सबसे ज्यादा कठिन है। पाँच सूत्री कार्यक्रम प्रत्येक के लिए है। सबकी जानकारियाँ कराने से आप परेशान हो जायेंगे और कहेंगे कि इतना बड़ा प्लान है जिसे हम पूरा नहीं कर सकेंगे। अतः हम आपको प्राइमरी कक्षा की जानकारी देते हैं कि प्राथमिकता योजना में आप व्यक्तिगत रूप से और सामूहिक रूप से वातावरण को संशोधित करने की कोशिश करें। जो फिजा और हवा लोगों को धकेले जा रही है। जिससे हर चीज सूख गयी है। उसे दूर करने और लड़ाई लड़ने के लिए हमको दो काम करने चाहिए। एक तो आप अपनी व्यक्तिगत साधना में पहली जनवरी से दो चीजें मिला दें। पहली यह कि नया युग लाने के लिए एक धारा एक प्रवाह कहीं से चला है, हम उसी से प्रभावित होते हैं, हम उसी से प्रभावित होते हैं और आपको भी प्रभावित करने के लिए उसी ताकत का इस्तेमाल करते हैं। जो महान शक्ति इतना बड़ा कार्य कर रही है नये युग को ला रही है उसके साथ संपर्क बनाने वाली साधना-उपासना जो बहुत सरल है, आन पहली जनवरी से चाहे तो कर सकते हैं। इसके लिए आपको नित्य प्रातःकाल साढ़े चार बजे साँस के रूप में उस प्राण को खींचना है। हम भी प्रातःकाल उस प्राण रूपी माँ के दूध को पीते हैं, शक्तियाँ आ जाती है। दिन भर हम उछलते रहते हैं, फुदकते रहते हैं। आप लोगों को जाग्रत आत्माओं को दूध को जो प्रातःकाल प्राणाधार के रूप में आता है, ग्रहण करना चाहिए और रात्रि को सोते समय वातावरण में उसे तीर कमान की तरह इस तरीके से छोड़ना चाहिए कि इस वातावरण को संशोधित करने में मदद कर सके। इसकी एक उपासना पद्धति है जिसे मैं फिर कभी समझा दूँगा कि दोनोँ उपासनायें एक प्रातःकाल की और दूसरी रात्रि को सोते समय कैसे करनी चाहिए?

दूसरा है महा पुरश्चरण, जिसमें सामूहिक उपासना मुख्य है। सामूहिक उपासना में बड़ी शक्ति है। एक समय पर एक मन से एकाग्र होकर की गयी उपासना स्वर विज्ञान के हिसाब से अद्भुत सामर्थ्य उत्पन्न करती है। इसलिये हम कहते रहते हैं कि गायत्री मंत्र एक साथ बोलिये। मंत्र एक साथ बोले जाते हैं। स्वर एक साथ होने चाहिए। हवन में भी हम साथ बोलने पर जोर देते रहते हैं। एक समय पर एक साथ एक क्रम से की हुई उपासना का वह फल होता है, जैसे कि लोहे के बड़े पुलों पर से होकर जब कभी सिपाही चलते हैं तो कदम मिलाकर लेफ्ट-राइट चलने से उन्हें मनाकर दिया जाता है, क्योंकि उससे पुल टूटने का खतरा रहता है। आप लोग सामूहिक रूप से साथ एक ही समय एक सी ध्वनि, एक ताल-लय एक नाद का उपयोग कर सकें तो स्वर विद्युत का एक बहुत बड़ा आधार विनिर्मित होगा और वातावरण के संशोधन का प्रयोजन पूरा करेगा। इस तरह एक व्यक्तिगत उपासना है और दूसरी सामूहिक। यह हमारे पंचवर्षीय योजना के आध्यात्मिक प्रयोग है। भौतिक और रचनात्मक प्रयोग अलग है जो अपने स्थान पर चलते रहेंगे।

एक और भी हमारा प्रयत्न है और वह उससे भी शानदार है। देवात्माओं के अवतरित होने का ठीक यही समय है। देवात्माएं युग को संभालने के लिए युग को परिवर्तित करने के लिए जन्म लेने को व्याकुल हो रही हैं। जब रामचन्द्र जी आये थे। तो उनके साथ में देवता आये थे। उन्होंने कहा था-जिस जमाने में आप पैदा हुए हैं-आदमी दो कौड़ी के हो गये हैं। आदमियों से सहायता नहीं मिलेगी आपको। मरने-मिटने के लिए और बड़े काम संभालने के लिए तो आदमी शायद ही मिल पायें आपको लेकिन हम चलेंगे और रीछ, बंदरों के रूप में सारे के सारे देवता चलने के लिए आमादा हो गये थे। उन्होंने रीछ-बंदरों के यहाँ जन्म लिया था, परन्तु इंसानों के घरों के घुटन भरे वातावरण में जन्म लेने से मना कर दिया था और कहा था कि इन पेटुओं के यहाँ हम कैसे रहेंगे जिनमें कषाय और कल्मष भरे हुए है। जिन घरों में स्वयंभू मनु और शतरूपा रानी की परंपरायें नहीं हैं, उन घरों में हम कैसे जियेंगे ?उनका कुधान्य खाकर हम कितने दिन जियेंगे?इसलिए देवताओं ने मना कर दिया था। और रीछ-बंदरों के घरों में पैदा हुए थे। आज की आवश्यकताएं सूक्ष्म हैं। मैं आपसे सूक्ष्म बातें कह रहा हूँ-विशुद्ध अध्यात्म की बातें। स्थूल बातें, समाज सेवा की बाते, पुरुषार्थ की बातें कल करूंगा। इस समय का सबसे बड़ा काम यह है कि युग को बदलने के लिए सामान्य नहीं, असामान्य आदमियों की जरूरत है। इसके लिए भीम, अर्जुन, भरत और हनुमान चाहिए। इसके लिए स्वराज्य लाने वाले गाँधियों, नेहरूओं और सुभाषचन्द्रों की जरूरत है। बड़ी आत्माओं की, जबर्दस्त हस्तियों की जरूरत है। मैं चाहता हूँ कि हैवानों के पेट में से जन्म लेने के लिए देवताओं को मजबूर होना पड़े और इंसानियत को कलंकित न होना पड़े। कितना ही अच्छा होता कि सन् 1980 से देवता इंसानों के यहाँ जन्म लेते। इसके लिए हमें घरों का वातावरण ठीक करना चाहिए। हमारे दाम्पत्य जीवनों में मनु और शतरूपा रानी की संस्कारोँ वाली परंपरा पैदा होनी चाहिए, ताकि देवताओं का आह्वान किया जा सके। हमारे घरोँ में कुँती की परंपरा पैदा होनी चाहिए ताकि देवता उनकी कोख में और गोद में खेलने के रजामंद हो सकें। देवता हर एक के यहाँ नहीं आ सकते। शकुँतला के पेट में से भरत आये थे। घर-परिवारों में ऐसी परिस्थितियाँ फिर से पैदा करने के लिए ही हमने ‘परिवार निर्माण योजना’ को जन्म दिया है और कहा है कि परिवारों में धार्मिक वातावरण बनायें। दाम्पत्य जीवन में पूजा उपासना की, आरतियों की, पंचयज्ञों की, गायत्री माता को प्रणाम करने की न्यूनतम उपासना की परंपरा आरंभ कीजिए। सारे के सारे घरों का वातावरण बनाने के लिए, ताकि कोई देवात्मा यदि जन्म लेने के इच्छुक होँ तो मौका मिल सके।

मित्रों। हमने इस कुँभ मेले पर जाति-बिरादरियों के शिविर लगायें हैं। इस माध्यम से हम विवाह परंपरा में ब्राह्मविवाहों का प्रचलन करना चाहते हैं। ब्राह्मविवाह से मतलब है- आदर्श विवाह, शालीनता के बिना खर्च के विवाह। आज सभी जगह असुर विवाहोँ दैत्य-विवाहोँ का प्रचलन है। जिसमें बेटे वाला बेटी वाले का पेट फाड़ डालता है। दोनोँ तरफ पैसे की होली जलती है। ऐसे घरों में देवता नहीं गुँडे, धूर्त, राक्षस और कंस पैदा होगे, हिप्पी और एक्टर पैदा होगे और जन्म देने वालों के लिए आफत पैदा करेंगे इसीलिए हमने विवाह परंपरा को शानदार बनाया है और इसलिए शानदार बनाया है कि हमारे परिवारों में हमारे घरों में देवता जन्म ले सकें। यदि यह परंपरा चल पड़ी फिजा फैल पड़ी एक की देखा-देखी दूसरे ने ग्रहण कर लिया, तब फिर हमारी आर्थिक, सामाजिक, नैतिक और भावनात्मक परिस्थितियों में जमीन - आसमान जैसा फर्क आ सकता है। यह वह चीज है जो हमने पहली तीन पंचवर्षीय योजना में शामिल की है चौथी और भी अधिक क्राँतिकारी है जिसका जिक्र मैं कल करूंगा। आज अपनी बात यहीं समाप्त करता हूँ।

॥ ॐ शान्तिः ॥


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