पतन से उत्थान की ओर

November 1993

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‘भिंक्षाँ देहि’-नगर से प्रसेनजित के द्वार पर अभिराम कपिल ने गुहार लगाई। जीवन का बहुत ही मार्मिक क्षण था जब कि नगर सेठ की अद्वितीय सुन्दरी परिचायिका गौर वर्णा मधुलिका भिक्षा लेकर द्वार पर उपस्थित हुई। आचार्य इन्द्रवत के स्नातकों में कपिल भी मनोज के समान अनिंघ सुन्दर थे। सुदीर्घ वक्ष, उन्नत ललाट गौरवर्ण। भिक्षा देर तक झोली में ही। मधुलिका और कपिल देर तक एक दूसरे को निर्निमेष देखते रहे। सौंदर्य के इस आकर्षण में कपिल मुग्ध हो गये। कितने क्षण इस तरह बीत गये। कुछ पता ही नहीं चला।

इसके बाद कपिल को जब भी अवसर मिलता वही द्वार, वही भिक्षा, सब कुछ वहीं और तब प्रारंभ हुई पतन की करुण कथा। कपिल ने रमणी के सौंदर्य में न केवल अपनी विद्या खोई वरन् ओजस्, आरोग्य और वर्चस् सब कुछ खो दिया फिर भी वासना की आग शाँत न हुई। ऐसा होता तो वासना और तृष्णा ने सैकड़ों बार इतिहास के मस्तक को कलंकित नहीं किया होता। इस शाश्वत सत्य से कपिल कहाँ बचने वाले थे ? अभी तो अधोगति का आरंभ था अंत नहीं।

वसंत पर्व समीप था। सुकुमारियाँ ऋतुराज का स्वागत करने के लिए नाना परिधान, अंगराग, कंचुकि केसर वाणी आभूषण सजाने में व्यस्त हो गई। मधुलिका सुन्दरी तो थी किन्तु धन उसके पास कहाँ?निदान युवक प्रेमी कपिल को ही उसने अपनी आकाँक्षाओं का आखेट बनाया उसने कपिल से ही एक शत स्वर्ण मुद्राओं की याचना की। वह जानती थी कपिल भिक्षु है, स्नातक है, दूरवर्ती कौशाम्बी का रहने वाला है। यहाँ उसके पास कहाँ सो उसी ने युक्ति भी बताई ‘आप श्रावस्ती नरेश के पास चले जायें वे अप्रितम दानी हैं। एक सौ मुद्राएं उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं। ’

कामार्त कपिल राजद्वार पर पहुँचे। वे विवेक खो चुके थे। रात्रि में ही राज प्रासाद करना चाहा फलतः न केवल प्रहरी की प्रताड़ना मिली, बल्कि दस्यु की आशंका से उन्हें रात बन्दीगृह में बितानी पड़ी विद्यमान वर्चस खोने के बाद उन्हें आत्म सम्मान से भी च्युत होना पड़ा।

प्रातःकाल वे बन्दी वेष में नृपति के सम्मुख प्रस्तुत हुए। कपिल ने शील खोया था परन्तु उन्हें उबारने वाला सत्य अभी तक उनके पास था। उन्होंने महाराज को सब कुछ स्पष्ट बता दिया। परिचारिका मधुलिका के सम्मोहन से यहाँ तक की सारी गाथा कपिल ने कह सुनाई।

सम्राट, कपिल की निश्छलता पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने पूछा-’युवक बोलो अब तुम क्या चाहते हो जो माँगोगे मिलेगा। ’एक शत स्वर्ण मुद्रा-कपिल ने मन ही मन कहा। फिर विचार आया जब कुबेर का भण्डार ही खुला है तो एक शत क्यों एक सहस्र, नहीं -नहीं एक लक्ष-’जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ‘क्यों न ऐसा कुछ माँगा जाय जिससे मधुलिका के साथ आजीवन सुखोपभोग किया जा सके।

‘आपका सम्पूर्ण राज्य चाहिए राजन्-याचक के मुख से यह निकलते ही समस्त सभासद परिचायक अंगरक्षक अवाक् और स्तब्ध रह गए। किन्तु श्रावस्ती नरेश किंचित मात्र विचलित नहीं हुए। ’

‘तथास्तु!कपिल!’वे बोले’मैं निस्संतान हूँ। राज्य भोग ने मेरी आत्मिक शक्तियों को जर्जर कर दिया था मैं चाहता ही था कोई सुयोग्य पात्र मिले तो इस जंजाल से मुक्त होकर आत्म कल्याण का मार्ग खोजूँ -तुमने आज मेरा भार उतार दिया। आज से यह श्रावस्ती तुम्हारी हुई। ’

नृप के इस औदार्य पर कपिल आश्चर्य चकित रह गए। आत्म कल्याण, आत्म शाँति क्या इतनी महान है जिस पर राज्य यों न्यौछावर किया जा सकता है। स्तब्ध कपिल की अन्तर चेतना ने अंगड़ाई ली। जाग्रत कपिल सँभले और बोले -’नहीं। नहीं! क्षमा करें राजन् मैं अपने उसी श्रेय की ओर प्रस्थान करूंगा। जिसका निर्देश मेरे गुरुदेव ने दिया था ‘क्षण भर में वह राजप्रासाद से बाहर चले गए। लोगों ने देखा वे जा रहे हैं दूर बहुत दूर -बहुत अति दूर।

मनुष्य भटका हुआ देवता है, यह सत्य है पर सत्य यह भी है कि जब यह सत्य अंतस् की चिनगारी जाग जाती है तो व्यक्ति का गंतव्य पुनः देवत्व की लब्धि व पूर्णता की प्राप्ति बन जाता है। जिस परम पिता ने अजामिल, विल्व मंगल, अम्बपाली को तार दिया, वह किस-किस का उद्धार नहीं कर सकता पर पहले जागे तो सही अंतश्चेतना। वही मूल प्रारंभिक बिंदु है मनुष्य की आत्मिक प्रगति कठे


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