पक्षपात रहित आत्म-निरीक्षण ही अनिवार्य

November 1993

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कोई समय खाली नहीं रह सकता। उसमें भला या बुरा कुछ तो हो ही रहा होगा। सर्वथा निष्क्रियता संभव नहीं। बर्तन में कोई वस्तु रखी होगी?अन्यथा खाली होने पर उस जगह को हवा घेर लेगी। जहाँ भलाई का प्रसंग नहीं चल रहा होगा वहाँ बुराई का माहौल बनें बिना न रहेगा। जहाँ बुराई का बहिष्कार-तिरस्कार हो रहा होगा। वहाँ अच्छाई अपनी जड़ जमा रही होगी। दोनों में से एक भी स्थिति न हो, ऐसा बन नहीं पड़ता। गर्भकाल में भ्रूण तेजी से विकास कर रहा होता है। मरण के उपराँत काया बड़ी तेजी से सड़ना, गलना आरंभ कर देती है। यथास्थिति बनें रहना संभव नहीं। आयुष्य यों तो विकास का क्रम अपनाती है। बचपन से कुमार, किशोर, प्रौढ़ बनते हुए उन्नति वाला क्रम अपनाती है या फिर ढलान का उत्तरार्द्ध आने पर क्रमशः शुष्कता, थकान, बुढ़ापे का सिलसिला चल पड़ता है और वह घटोत्तरी अंततः जराजीर्ण स्थिति से लेकर मरण तक जा पहुँचती है। मानवी व्यक्तित्व के संबंध में भी यही बात है। या तो वह पतन की ओर चल रहा होगा। या उत्थान की ओर। सूर्य-चन्द्र, ग्रह नक्षत्र स्थिर नहीं रहते। उनका या तो उदय होता है या अस्त।

मनुष्य या तो सत्प्रवृत्तियाँ अपनाता है अथवा उनके अभाव में दुष्प्रवृत्तियों का आश्रय ग्रहण करने लगता है। यदि व्यक्ति को, समाज को, वातावरण को सद्भाव, सहयोग से भरा पूरा खाना रखना हो उसका एक ही उपाय है कि सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन का प्रयास किया जाय। तदनुसार कार्यक्रम बनाया जाय और उनमें अधिकाधिक लोगों को अधिकाधिक उत्साह के साथ लगाया जाये। ऐसा न बन पड़ने पर उसका परिणाम एक ही होगा कि दुष्प्रवृत्तियाँ पनपेंगी। व्यक्ति अनाचारी बनेंगे। अपराधी, अनाचारों का सिलसिला चल पड़ेगा और आक्रोश, विग्रह, त्रास एवं रोष-प्रतिशोध भरी प्रतिक्रिया अपना स्वरूप प्रकट करने लगेगी।

आज प्रचलन में अवाँछनीयताओं की भरमार इसलिए दिखाई पड़ती है कि सत्प्रवृत्तियों से संबंधित रचनात्मक कार्यक्रमों में लोगों को लगाने का प्रयत्न नहीं किया जाता। नागरिकता, नैतिकता, सामाजिकता, उदारता का जीवन क्रम में उतारने का प्रावधान न हों तो समझना चाहिए कि खाली समय और ठाले प्रयास का प्रवाह अनौचित्य की दिशा में चल पड़ेगा। पुरानी कहावत है कि “खाली दिमाग शैतान की दुकान”जिस समय में कोई रचनात्मक कार्य न बन पड़ रहा होगा उस समय मस्तिष्क में अचिंत्य चिंतन घोंसला बनायेगा और अंडों-बच्चों की फौज खड़ी करेगा। खाली समय और चिंतन यथास्थान बनें रहें निष्क्रिय बनें रहें यह हो ही नहीं सकता।

पतन का क्रम ऐसा ही है कि वह उत्थान की अपेक्षा कहीं अधिक द्रुतगामी होता है। भाप बनकर आकाश में बादल बनकर विचरण करने की स्थिति देर में और धीरे-धीरे बनती है, पर जब हिमालय की बर्फ पिघलती है तो वह नदियों के माध्यम से अत्यंत द्रुतगामी प्रवाह पकड़ती है। वह जलधार तेजी से बहती हुई कुछ ही दिनों में गहरे समुद्र में जा मिलती है। तब जल काला, गँदला और स्वाद खारी हो जाता है। उसे पशु पक्षी भी पीते नहीं सिंचाई आदि के काम में भी नहीं आता। बल्कि दिन दिन अधिक खारा अधिक गँदला, अधिक गाढ़ा और अधिक अनुपयोगी बनाता जाता है। पतन का भी यही क्रम है। यदि उस राह पर कोई व्यक्ति या समुदाय चल पड़े तो उसका प्रवाह क्रमशः तेज ही होता जायेगा। जमीन से कटाव तो तेज वर्षा मात्र से होने लगता है, पर यदि खार खड्डों को पाटना हो तो उसके लिए दूर-दूर से मिट्टी पड़े परिश्रमपूर्वक लानी पड़ती है। और उसकी पकड़ मजबूत बनाने के लिए समय साध्य, श्रमसाध्य व्यवस्था बनानी पड़ती है। ठीक यही बात चारित्रिक उत्थान और पतन के संबंध में भी हैं। दोनोँ ही क्रम धीमी गति से चलते हैं। पर जब परिपक्व हो जाते हैं। तो अपना बढ़ा चढ़ा रूप दिखाने लगते हैं। पतन झूठ बोलने, प्रमाद करने, बरगलाने, फुसलाने, कुसंग में पड़ने जैसे छोटे कृत्य समझे जानें वाले क्रियाकलापों से आरंभ होता है। किन्तु वह अपने अनुरूप परिस्थितियाँ प्राप्त करते रहने पर उसी प्रकार बढ़ता है जिस प्रकार भरपूर खाद पानी पाने पर पौधों का विकास निरंतर होता है। सज्जनों, लोकवासियों, महामानवों का जीवन विकास भी इसी प्रकार होता है। वे छोटे-छोटे पुण्य-परमार्थ हाथ में लेते हैं, संयम बरतने की छोटी-छोटी प्रतिज्ञायें लेते, उन्हें संकल्पपूर्वक पूरी करते हुए उत्कर्ष की दिशा में आगे बढ़ते हैं। और एक समय आता है कि वे मूर्धन्य महामानवों में गिनें जानें लगते हैं। अपने क्रियाकलापों की अविस्मरणीय और अभिनन्दनीय परम्परा भावी पीढ़ियों के लिए छोड़ जाते हैं। स्वयं तरते हैं और अनेकों को अपने कंधों पर बिठाकर पार करते हैं।

जंक्शन स्टेशन पर कितनी ही पटरियाँ बिछी होती हैं। इनमें से कोई कहीं पहुँचती है तो कोई कहीं। आरंभ में इनका अंतर थोड़ा ही होता है। गाड़ियाँ अपने लक्ष्य के अनुसार बिछी पटरियों पर बढ़ना आरंभ करती हैं। गति चलती रहती है और चलती रेलों का अंतर बढ़ता जाता है। दिल्ली से एक ही समय छूटने वाली गाड़ियों में से एक कलकत्ता पहुँचती है तो दूसरी बम्बई। दोनोँ के बीच क्रमशः दूरी का अंतर बढ़ता जाता है और उनके लक्ष्य तक पहुँचते -पहुँचते इतना अंतर बन जाता है कि आश्चर्य होता है। यही उत्थान पतन की दिशा में उठने वाले छोटे-छोटे कदमों का कालान्तर में ऐसा ही परिणाम उपस्थित होता है। एक दस्यु दुराचारी बन जाता है, तो दूसरा मुनि मनीषी। यदि एक ही समय में कुछ व्यक्ति जमीन में गड्ढा खोदना आरंभ करे तो उसका परिणाम कुछ ही दिनों में असाधारण अंतर के रूप में दृष्टिगोचर होगा। यही उत्थान पतन की परम्पराओं का अपना-अपना क्रम है। छोटे आरंभ ही समयानुसार विशालकाय परिणाम प्रस्तुत करते हैं। छोटा सा वट बीज उर्वर भूमि में बोये जानें पर समयानुसार विशाल वृक्ष बनता है। बीज और वृक्ष का क्रम यही रहता है, भले ही पेड़ बबूल का हो या आम का। उत्थान और पतन में किसी भी दिशा को अपनाया जाय, उसमें तद्नुरूप प्रगति तो होती रहती है।

उपरोक्त क्रम व्यवस्था को गंभीरता पूर्वक समझना चाहिए और तथ्य को ध्यान में रखते हुए यह निश्चय करना चाहिए कि किस दिशा में चलना और किस लक्ष्य तक पहुँचना है। जो मार्ग चुना जाय उस पर धीमी गति से उठते हुए कदम भी मंजिल की ओर अग्रगामी होंगे। यह नहीं हो सकता कि मार्ग कोई अपनाया जाय और किसी अन्य लक्ष्य तक पहुँचा जाय जिनने अनीति को व्यवहार में उतारा वे दुर्गुणों के अभ्यासी बनें, कुकर्म करने लगे और अंत में दुष्ट-दुरात्माओं के समुदाय में सम्मिलित हुए। यही बात श्रेष्ठता के संबंध में भी है। वही भी क्रमिक गति से ही हस्तगत होती है। अचानक न तो कोई दुरात्मा बनता है और न महानात्मा। दोनों विपरीत परिस्थितियाँ प्राप्त करने के लिए इच्छा, आकाँक्षा, विचारणा एवं गतिशीलता को अग्रगामी बनाना पड़ता है। बहुत करके यह योजना इच्छा-पूर्वक बनाई जाती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि वह स्व संयोगवश अनिच्छित रूप में भी बन जाती है। हर हालत में गति का संबंध प्रगति के साथ जुड़ा ही रहता है।

अपनी, अपने परिवार की, संबंधियों एवं सहयोगियों की दिशाधारा का गहरा निरीक्षण-परीक्षण करते, रहना चाहिए। सहचरों से अधिक अच्छा और सान्निध्य कोई दूसरा नहीं हो सकता। बाहर के लोगों की आधी-अधूरी सुनी-बताई जानकारी ही मिल पाती है। पर निरंतर साथ रहने वाले वस्तुस्थिति को अधिक अच्छी तरह जानते हैं। यही बात अपने आप के संबंध में और भी अच्छी तरह कही जा सकती है। आत्म निरीक्षण में यदि पक्षपात को हटाया जा सके तो गुण और दोष दोनों ही अधिक अच्छी तरह समझे जा सकते हैं। साथियों से भी इस प्रकार की सलाह ली जा सकती है। यह बिना संकोच के ढूँढ़ा और पूछा जाना चाहिए। वस्तुस्थिति जाननी इसलिए आवश्यक है कि भविष्य का निर्धारण उसी आधार पर संभव होता है। बुराइयों का भंडार बढ़ाते चलने पर मनुष्य दूसरों की तथा अपनी आँखों में गिरता चला जाता है। अनौचित्य के प्रति घृणा उपजती है। बाहर से कोई भय, संकोच, दबाव या प्रलोभन वश भले ही मन की बात प्रकट न करें, पर भीतर तो वैसे ही मान्यता बनेंगी जैसी कि वस्तुस्थिति समझी गई है। ऐसी दशा में कोई सच्चा स्नेह नहीं दे सकता और सच्चा सहयोग भी नहीं प्रदान कर सकता। हेय व्यक्तित्व वाले अपना जनाधार खो बैठते हैं। साथ ही समाज की, शासन की प्रकृति व्यवस्था की प्रताड़ना भी सहते हैं। अनाचारी तात्कालिक सफलता प्राप्त करते देखें गये हैं आकस्मिक आक्रमण में लाभ इसलिए मिल जाता है कि जिस पर हमला किया गया है वह बेखबर रहता है, पर यह भी निश्चित है कि आहत व्यक्ति को जो चोट लगती है उसका घाव सहज नहीं पुरता। वह बदला लेने के लिए अवसर ढूंढ़ता रहता और समय आते ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से चोट करता है। अनीति को देखकर अन्यान्य लोग भी आक्रांता के प्रति क्षोभ से भरते हैं और उसके प्रति अपना मानस घृणा से भर लेते हैं। जिसका संपर्क क्षेत्र इस प्रकार असहयोग एवं तिरस्कार से भरा हुआ हो वह सहयोग एवं सम्मान से तो वंचित रहेगा ही, साथ ही अवसर आने पर उनके द्वारा हानि पहुँचाये जानें का भी भय बना रहेगा। यह स्थिति किसी को भी सुख चैन से नहीं रहने देती। प्रगति पथ पर बढ़ने में पग-पग पर अवरोध खड़े करती रहती है।

धरती पर बिखरे काँटे और कंकड़ नहीं बीने जा सकते। यह हो सकता है कि अपने पैरों में जूते पहन कर चला जाये और काँटे कंकड़ वाले रास्ते पर बिना जोखिम उठाये चला जाये। समाज में फैले हुए भ्रष्टाचार को एकाँकी प्रयत्न से मिटा सकना कठिन है, इसके लिए संगठित एवं व्यापक अभियान की आवश्यकता है। समाज और शासन का सहयोग भी उस उन्मूलन में आवश्यक है। जब तक वह शुभ घड़ी नहीं आती तब तक यही उचित है कि अपने को, अपने परिवार को विशेषतया संबद्ध नई पीढ़ी को उस जोखिम से बचाया जाय, जिसमें अवाँछनीयताएँ छूत की बीमारी की तरह दुर्बल पक्ष पर हावी होती है। इतना बचाव कर लेने पर कम से कम इतना तो हो ही सकता है कि चलते हुए अंधड़ की धूल अपनी आँखों में न पड़े। आँधी में चलते समय यदि बंद ढक्कन वाला चश्मा आँखों पर पहन लिया जाय तो उस प्रतिकूल मौसम में चलते हुए भी अपनी आँखोँ को सुरक्षित रखा जा सकता है। अपने-अपने परिवार में किशोरों को विशेष रूप से कुसंग से बचाने का प्रयत्न करना चाहिए। यहाँ यह भी ध्यान रखने योग्य है कि ऐसी अवाँछनीय छूत प्रायः समवयस्कों, सहकर्मियों से विशेष रूप से लगती हैं, क्योंकि उन्हीं के साथ संपर्क भी अधिक रहता है। उन्हीं का प्रभाव भी अधिक पड़ता है। समवयस्कों में यदि सद्गुणी अधिक हों तो वे अपने प्रभाव का लाभ साथियों को भी दे सकते हैं।

गुरुकुलों में अनेक असुविधाएँ रहते हुए भी प्राचीनकाल में उन्हें इसलिए वरिष्ठता दी जाती थी कि वहाँ कुसंग की कोई गुँजाइश नहीं रहती थी। वातावरण में तनिक भी प्रदूषण न रहने से ऐसी आशंका नहीं रहती थी कि शिक्षार्थियों का चिंतन, चरित्र एवं व्यवहार अवाँछनीय की दिशा में चल पड़ेगा। इन दिनों मूर्धन्य विचारशीलों को यह योजना बनाते देखा गया है कि स्कूल भले ही सरकारी रहें, पर छात्रावास इस स्तर के बनायें जायें जहाँ पढ़ाई के अतिरिक्त शेष सारा समय उपयोगी सत्प्रवृत्तियों में, प्रेरणाप्रद मनोरंजनों में लगा रहे। ऐसे छात्रावासों का संचालन यदि समर्थ और वरिष्ठ हाथों में रहे और विधि व्यवस्था में शालीनता भरा अनुशासन जुड़ा रहे तो उसका असाधारण प्रभाव छात्रों पर पड़े बिना न रहेगा। उठती आयु में अपनाई गई आदतें प्रायः जीवन भर काम देती हैं।

जो बात छात्रों के विकास पर लागू होती हैं, वही मनुष्य मात्र पर भी लागू होती हैं चाहे उम्र कितनी ही क्यों न हो गयी हो। यह मानकर चलना चाहिए कि पतन की गति तीव्र होती है। किसी को भी अपनी चपेट में कभी भी ले सकती है। आज अवाँछनीयताओं से भरे वातावरण में जी रहे हम सभी एक महामारी के संक्रमण काल में रह रहे हैं। दुर्गुण कब किसी को लग जायें, किस रूप में वे उन्हें रुचिकर लगते हुए उनके ही व्यक्तित्व को घुन बनकर खोखला करते चले जाएं, उसका कोई ठिकाना नहीं। प्रति-पल प्रति-क्षण जब तक स्वयं पर दृष्टि नहीं होगी, अपनी स्वयं की गहरी खोज बीन न होगी, पता भी न चलेगा कि हम कब किनकी चपेट में कितने गहरे तक आ गये हैं। हर कोई व्यक्ति दूध का धुला हुआ नहीं होता। मानवी कमजोरियाँ सभी में होती हैं। इन दुर्बलताओं पर निरंतर दृष्टिपात करते हुए श्रेष्ठ सान्निध्य का चयन कर स्वयं को वासना-तृष्णा-अहंता रूपी मगरमच्छों से मझधार में बचाकर ले जाना इस जीवन संग्राम का सबसे बड़ा कौशल है। जो इसमें जितना अधिक निष्णात् है, वह उतना ही सर्वांगपूर्ण सफल एवं ईश्वर की दृष्टि में सुपात्र है। हम नित्य प्रभु से प्रार्थना करें कि “प्रभु”! हमें आप ज्ञान दें, बल दें, धन दें, यश दें पर साथ ही यह विवेक भी कि हम कहीं इन सबके साथ व्यक्तित्व को पतन की दिशा में तो नहीं ले जा रहे?सद्बुद्धि की प्रार्थना में यही भाव छिपा है कि हम और कुछ बन पायें न बन पायें एक स्वच्छ अंतःकरण वाला मानव बन जाएं, बस ऐसी सद्बुद्धि हमें सतत् नित्य मिलती रहे। अनुदान तो स्वतः सद्बुद्धि अपने साथ लेकर आती है।


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