परोक्ष देवता अगणित हैं और उनकी साधना उपासना के माहात्म्य तथा विधान भी बहुतेरे। किन्तु इतने पर भी यह निश्चित नहीं कि वे अभीष्ट अनुग्रह करेंगे ही। इच्छित वरदान देंगे ही। यह भी हो सकता है कि निराशा हाथ लगे। मान्यता को आघात पहुँचे और परिश्रम निरर्थक चला जाय।
इस बुद्धिवादी युग में देव मान्यता के सम्बन्ध में सन्देह भी प्रकट किया जाता है। यहाँ तक की अविश्वास एवं उपहास भरी चर्चाएं भी होती हैं। ऐसी दशा में हमें सर्वजनीन ऐसे देवता का आश्रय लेना चाहिए जो साम्प्रदायिक अन्धविश्वासों से ऊपर उठा एवं सर्वमान्य हो। साथ ही जिसके अनुग्रह और वरदान के सम्बन्ध में भी उँगली न उठे।
ऐसा देवता एक है और वह है− आत्मदेव। अपना सुसंस्कृत आपा एवं परिष्कृत व्यक्तित्व। इसका आश्रय रहने पर कोई न अभावग्रस्त रह सकता है और न निराश−तिरष्कृत।
अन्य सभी देवताओं को प्रसन्न करने के लिए कष्ट साध्य साधनाएँ करनी पड़ती हैं। आत्मदेव की सत्ता सबके भीतर समान रूप से विद्यमान रहते हुए भी उसे उत्कृष्ट बनाने के लिए भी निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता होती है। अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को ऊँचे स्तर का बनाने के लिए आत्मसुधार और आत्मविकास का आश्रय लेना पड़ता है। यही है सुनिश्चित फलदायिनी आत्मदेव की साधना।