उपासना का उद्देश्य समझें

November 1985

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यह समझना भूल है कि पूजा करना ईश्वर पर ऐसा अहसान करना है जिसके बदले में उसे हमारी उचित अनुचित मनोकामनायें पूरी करनी ही चाहिए। ओछे स्तर के लोग ऐसा ही सोचते हैं और इसी प्रलोभन से पूजा−पत्री का औंधा−सीधा ठाठा रोपते हैं। आधार ही गलत हो तो बात कैसे बने−पार कैसे पड़े? पूजा करने वालों से दोस्ती और न करने वालों से ‘कुट्टी’। यदि ऐसी रीति−नीति अपनाने लगे तो फिर ईश्वर को समदर्शी कैसे कहा जा सकेगा? फिर संसार में कर्त्तव्य और पुरुषार्थ की आवश्यकता क्या रहेगी? यदि पूजा द्वारा ईश्वर को प्रसन्न करके मनोकामनायें पूर्ण की जा सकती हैं तो फिर इतने सस्ते और सरल मार्ग को छोड़कर क्यों कोई कष्ट साध्य गतिविधियाँ अपनाने को तैयार होगा? यदि यह तथ्य सही होता तो मन्दिरों के पुजारी सर्व मनोरथ सम्पन्न हो गये होते और साधु पंडित जो ईश्वर का ही झण्डा उठाये फिरते हैं सर्व कामना सम्पन्न रहे होते। फिर उन्हें अभाव असन्तोष क्यों सताता? प्रत्यक्ष है कि यह वर्ग और भी दयनीय स्थिति में है। कारण कि उपासना को कामना पूर्ति का माध्यम समझा गया और आवश्यक कर्म निष्ठा से मुँह मोड़ लिया गया। इस गलत आधार को मान्यता मिल जाने से आस्तिकता का उपकार नहीं हुआ वरन् उसे असत्य और संदिग्ध मानने की अनास्था ही बढ़ी।

उपासना को नित्य कर्म में सम्मिलित करने की आवश्यकता इसीलिए पड़ती है कि आन्तरिक स्वच्छता का क्रम बिना व्यवधान के निर्बाध गति से चलता रहे। नित्य का अभ्यास ही किसी महत्वपूर्ण विषय में स्थिरता और प्रखरता बनाये रह सकता है। यदि पहलवान लोग नित्य का व्यायाम छोड़ दें, फौजी सैनिक परेड की उपेक्षा कर दें तो फिर उनकी प्रवीणता कुछ ही दिन में अस्त−व्यस्त हो जायेगी। स्कूली पढ़ाई छोड़ने के बाद जिन्हें फिर कभी पुस्तकें उलटने का अवसर नहीं मिलता वे उस समय के सारे प्रशिक्षण भूल जाते हैं। याद केवल उतना ही अंश रहता है जितना काम में आता रहता है। मन की भी यही स्थिति है, वह पशु प्रवृत्तियों के निम्नगामी प्रवाह में तो अनायास ही बहता रहता है, पर यदि उसे उच्च स्तर पर बनाये चढ़ाये रहना हो तो पतंग उड़ाने वालों की तरह बहुत कुछ पुरुषार्थ करना होता है। पानी को कुएँ से निकालने टंकी तक पहुँचाने में नित्य ही प्रयत्न करना पड़ता है पर नालियाँ अपने आप चलती रहती हैं। गिरा हुआ पानी अपने आप नीचे ढुलकता जाता है और उसके बिना किसी यन्त्र मशीन या प्रयास के नालियाँ बहती रहती हैं। निकृष्ट बनाना हो तो संचित पशु प्रवृत्ति को स्वच्छन्द छोड़ देना पर्याप्त है वे जीवन वृक्ष पर अमर बेल की तरह छा जायेंगी पर यदि उत्कृष्टता का उद्यान लगाना हो तो उसके लिये चतुर माली जैसा कला कौशल एवं मनोयोग नियोजित करना पड़ेगा। उपासना मनःक्षेत्र को सुरभित उद्यान की तरह फल फूलों से लदा हुआ बनाने के कुशल पुरुषार्थ की तरह ही समझी जानी चाहिए। वस्तुतः मनोकामनायें पूर्ण करने का यह विवेक संगत एवं यथार्थ मार्ग है। मन देवताओं का भी देवता है। यदि उसे साध सँभाल लिया जाय तो वह कल्पवृक्ष से कम नहीं अधिक ही उपयोगी एवं वरदानी सिद्ध होता है। उपासना इस मन कल्पवृक्ष को सुविकसित बनाने की वैज्ञानिक विधि−व्यवस्था का ही नाम है।

आत्मोत्कर्ष में अभिरुचि रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को, उपासना को अपने नित्य क्रम में सम्मिलित करना ही चाहिये। यह नहीं सोचना चाहिये कि हम ईश्वरीय आदेशों का पालन करते हैं फिर उपासना की क्या जरूरत। लुहार, बढ़ई, मूर्तिकार आदि शिल्पी अपने श्रम और प्रयोजन में लगे रहते हुए भी यह आवश्यक समझते हैं कि उनके औजारों पर जल्दी−जल्दी धार धरी जाती रहे। नाई अपने काम में ठीक तरह लगा रहता है पर उस्तरा तो उसे बार−बार तेज करना पड़ता है। मन ही वह औजार है जिससे क्रिया-कलापों को ठीक तरह करते रह सकना सम्भव होता है। यदि भौंथरा होने लगे तो फिर कर्तृत्व का स्तर भी गिरने लगेगा। इसलिये जहाँ अन्य अनेक कार्यों में समय लगाया जाता है वहाँ मन की मलीनता को स्वच्छ करने और उसे प्रखर बनाने के प्रयास को भी नित्य का एक आवश्यक कर्त्तव्य माना जाना चाहिए। पेट की भूख बुझाने के लिए बार−बार भोजन करना पड़ता है। आत्मा की भूख बुझाने के लिए भी उसे उपासना का आहार बार−बार नित्य ही दिया जाना आवश्यक है।

पुरुषार्थ की प्रखरता में उपासना अत्यधिक सहायक होती है, उसे समय नष्ट करने वाली बाधा नहीं माना जाना चाहिए। पारलौकिक पुरुषार्थों में अधिक उत्कृष्टता लाने के लिये अपने समय का एक अंश उपासना में नियत रूप से लगाना चाहिए। धुले कपड़े पर टिमोपाल लगा देने से−लोहा करने से और भी सुन्दरता आ जाती है। निर्मल और उज्ज्वल जीवन क्रम रहते हुये भी यदि उपासना का अवलम्बन ग्रहण किया जायेगा तो उसमें लगे हुए समय की कहीं अधिक सुन्दर सुव्यवस्था जीवन क्रम में विकसित होगी। शर्त यही है कि उपासना मात्र कर्मकाण्ड होकर न रह जाय उसमें भावना के समन्वय की प्राण प्रतिष्ठा अनिवार्य रूप से जुड़ी रहे।

स्वांति के जल से मोती वाली सीपें ही लाभान्वित होती हैं। अमृत उसी को जीवन दे सकता है जिसका मुँह खुला हुआ है। प्रकाश का लाभ आँखों वाले ही उठा सकते हैं। इन पात्रताओं के अभाव में स्वांति का जल, अमृत अथवा प्रकाश कितना ही अधिक क्यों न हो उससे लाभ नहीं उठाया जा सकता। ठीक यही बात देव उपासना के सम्बन्ध में लागू होती है। घृत सेवन का लाभ वही उठा सकता है जिसकी पाचन क्रिया ठीक हो। देवता और मन्त्रों का लाभ वे ही उठा पाते हैं जिन्होंने व्यक्तित्व को भीतर और बाहर से−विचार और आचार से परिष्कृत बनाने की साधना कर ली है। औषधि का लाभ उन्हें ही मिलता है जो बताये हुए अनुपान और पथ्य का भी ठीक तरह प्रयोग करते हैं। अतः पहले आत्म उपासना फिर देव उपासना की शिक्षा ब्रह्म विद्या के विद्यार्थियों को दी जाती रही है। लोग उतावली में मन्त्र और देवता के भगवान और भक्ति के पीछे पड़ जाते हैं, इससे पहले आत्मशोधन की आवश्यकता पर ध्यान ही नहीं देते। फलतः उन्हें निराश ही होना पड़ता है। बादल कितना ही जल क्यों न बरसाये, उसमें से जिसके पास जितना बड़ा पात्र है उसे उतना ही मिलेगा। निरन्तर वर्षा होते रहने पर भी आँगन में रखे हुये पात्रों में उतना ही चल रह पाता है। जितनी उनमें जगह होती है। अपने भीतर जगह को बढ़ाये बिना कोई बरतन बादलों से बड़ी मात्रा में जल प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकता। देवता और मन्त्रों से लाभ उठाने के लिये पात्रता नितान्त आवश्यक है।

साधना ही अपनी महिमा और महत्ता है। उसे गंगा जल से कम नहीं अधिक ही महत्व दिया जा सकता है पर साथ ही साथ यह भी समझ लेना चाहिए कि वह सर्व समर्थ नहीं है। गंगा जल से बनी हुई मदिरा अथवा गंगा जल में पकाया हुआ माँस सर्व समर्थ नहीं गिने जायेंगे। शौचालय में प्रयुक्त होने के उपरान्त का गंगाजल भरा पात्र देव प्रतिमा पर चढ़ाने योग्य न रहेगा। गंगाजल की शास्त्र प्रतिपादित महत्ता यथावत् बनी रहे इसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि उसके संग्रह उपकरण एवं स्थान ही पवित्रता भी अक्षुण्ण बनी रहे।

रंगरेज कपड़ा रंगने की प्रक्रिया उसकी धुलाई से आरम्भ करता है। यदि मैला कपड़ा रंगने के लिए दिया जाय तो पहले उसे धोवेगा। धुले हुए कपड़े पर ही रंग चढ़ता या चढ़ाया जाना सम्भव होता है। उपासना को रंगाई कह सकते हैं और साधना को धुलाई। दोनों अन्योन्याश्रित हैं। इनमें प्रधान और गौण का वर्गीकरण करना हो तो साधना को प्रधान और उपासना को गौण मानना पड़ेगा। धुला वस्त्र बिना रंगे भी अपनी गरिमा बनाये रह सकता है, पर मैला वस्त्र रंग को बर्बाद करेगा और रंगरेज को बदनाम। स्वयं तो उपहासास्पद बना ही रहेगा। मैले कपड़े पर रंग चढ़ाने की सूझ−बूझ भी भौंड़ी ही मानी जायेगी इस प्रकार का किया श्रम भी सार्थक न रहेगा।


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