कुण्डलिनी महाशक्ति एक परिचय

November 1985

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कठोपनिषद् के यम नचिकेता संवाद में जिस पंचाग्नि विद्या की चर्चा हुई है। उसे कुण्डलिनी शक्ति की पंच विधि विवेचना कहा जा सकता है। श्वेताश्वर उपनिषद् में उसे ‘योगाग्नि’ कहा गया है−

नतस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्नि मयं शरीरम्।

चैनिक योग प्रदीपिका में उसे ‘स्पिरिट फायर’ नाम दिया गया है। जानबुडरफ सरीखे तन्त्रान्वेषी उसे सर्पवत् बलयान्विता सपेंन्ट नाम देते रहे हैं।

ऋषि शिष्या मैडम ब्लैशेटस्की ने उसे विश्व−व्यापी विद्युत शक्ति−‘कास्मिकी इलैक्ट्रिसिटी’ नाम दिया है। वे उसकी विवेचना विश्व विद्युत के समतुल्य चेतनात्मक प्रचण्ड प्रवाह के रूप में करती थी। उन्होंने ‘वायस आफ दि साइलेन्स’ ग्रन्थ में अपना अभिप्राय इस प्रकार व्यक्त किया है− सर्पवत् या बलयान्विता गति अपनाने के कारण इस दिव्य शक्ति को कुण्डलिनी कहते हैं। इस सामान्य गति को योग साधक अपने शरीर में चक्राकार बना लेता है इस अभ्यास से उसकी वैयक्तिक शक्ति बढ़ती है। कुण्डलिनी विद्युतीय अग्नियुक्त गुप्त शक्ति है यह वह प्राकृत शक्ति है जो सेन्द्विय निन्द्रय प्राणियों एवं पदार्थों के मूल में विद्यमान है।

ब्रह्माण्ड में दो प्रकार की शक्तियाँ काम करती हैं− एक लौकिक (सेकुलर) दूसरी आध्यात्मिक (स्प्रिचुअल) इन्हें फिजीकल और मैटाफिजीकल भी कहते हैं। लोग प्रत्यक्ष शक्तियों का प्रमाण प्रत्यक्ष उपकरणों से प्राप्त करते लेते हैं, अस्तु उन्हीं की सत्ता स्वीकार करते हैं।

शरीर विज्ञानियों ने उसे नाड़ी संस्थान से उद्भूत−नर्वस् फोर्स कहा है। डा. रेले ने अपने बहुचर्चित ग्रन्थ ‘मिस्ट्रीरियस कुण्डलिनी’ में उसकी वेगस गर्व’ के रूप में व्याख्या की है। माँस−पेशियों और नाड़ी संस्थान के संचालन में काम आने वाली सामर्थ्य को ही अध्यात्म प्रडडडड जनों में काम करने पर कुण्डलिनी संरक्षक बनने का प्रतिपादन करते हैं। उनके मतानुसार यह शक्ति डडडड नियन्त्रण में आ जाती है तो उसके सहारे शरीर की ऐच्छिक और अनैच्छिक गतिविधियों पर इच्छानुसार नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता है। यह आत्म−नियंत्रण बहुत बड़ी बात है। इसे प्रकारान्तर से व्यक्तित्व डडडड अभीष्ट निर्माण की तदनुसार भाग्य निर्माण की डडडड कह सकते हैं। वे उसी रूप में कुण्डलिनी का गुण गान करते और उसकी उपयोगिता बताते हुए उसके जागरण का परामर्श देते हैं।

डाक्टर रेले की उपरोक्त पुस्तक ‘रहस्यमयी कुण्डलिनी’ की भूमिका तन्त्र मर्मज्ञ सर जानबुडरफ ने डडडड है। जिसमें उन्होंने रेले के इस अभिमत से असहमतता प्रकट की है कि वह शरीर संस्थान की विद्युतधारा डडडड है। उन्होंने लिखा है− ‘‘वह एक चेतन और महान सामर्थ्यवान शक्ति− ‘ग्रान्ड पोटेन्शियल’ है जिसकी तुलना अन्य किसी पदार्थ या प्रवाह से नहीं की जा सकती। डडडड राय में नाड़ी शक्ति कुण्डलिनी का एक स्थूल रूप ही वह मूलतः नाड़ी संस्थान या उसका उत्पादन नहीं वह न कोई भौतिक पदार्थ है और न मानसिक शक्ति। वह स्वयं ही इन दोनों प्रवाहों को उत्पन्न करती डडडड स्थिर सत्य (स्टेटिक−रियल) गतिशील सत्य (फैना डडडड रियल) एवं अवशेष शक्ति (रैजीहुअल पावर) के डडडड प्रवाह की तरह इस सृष्टि में काम करती डडडड व्यक्ति की चेतना में वह प्रसुप्त पड़ी रहती है। प्रयत्नपूर्वक जगाने वाला विशिष्ट सामर्थ्यवान् बन सकता है।”

विज्ञान की भाषा में कुण्डलिनी को जीवन की अथवा चुम्बकीय विद्युत कहते हैं। इसका केन्द्र मस्तिष्क माना गया है तो भी यह रहस्य अभी स्पष्ट नहीं हुआ कि मस्तिष्क को अपनी गतिविधियों के संचालन की क्षमता कहाँ से मिलती है। योगशास्त्र इसका उत्तर उस काम शक्ति की ओर संकेत करते हुए देता है और बताता है कि अव्यक्त मानवी सत्ता को व्यक्त होने का अवसर इसी केन्द्र से मिलता है। वही कामतन्त्र के विभिन्न क्रिया-कलापों के लिए आवश्यक प्रेरणा भी देती है। यही वह चुम्बकीय ‘क्रिस्टल’ है जो काया के ‘ट्रांजिस्टर’ को चलाने वाले आधार खड़े करता है।

कुण्डलिनी क्या है? इसके सम्बन्ध में शास्त्रों और तत्त्वदर्शियों ने अपने−अपने अनुभव के आधार पर कई अभिमत व्यक्त किये हैं। ज्ञानर्णव तन्त्र में कुण्डलिनी को विश्व जननी और सृष्टि संचालिनी शक्ति कहा गया है− ‘‘शक्तिः कुण्डलिनी विश्व जननी व्यापार वद्धोद्यता।” विश्व व्यापार एक घुमावदार उपक्रम के साथ चलता है। परमाणु से लेकर ग्रह−नक्षत्रों और आकाश गंगाओं तक की गति परिभ्रमण परक है। हमारे विचार और शब्द जिस स्थान से उद्भूत होते हैं−व्यापक परिभ्रमण करके वे अपने उद्गम केन्द्र पर ही लौट आते हैं। यही गतिचक्र भगवान के चार आयुधों में से एक है। महाकाल की परिवर्तन प्रक्रिया इसी को कहा जा सकता है। जीव को चक्रारूढ़ मृतिका पिण्ड की तरह यहीं घुमाती है और कुम्हार जैसे अपनी मिट्टी से तरह−तरह के पात्र उपकरण बनाता है, उसी प्रकार आत्मा की स्थिति को उठाने−गिराने की भूमिका भी वही निभाती है। कुण्डलिनी सृष्टि संदर्भ में समष्टि और जीव संदर्भ में−व्यष्टि शक्ति संचार करती है।

अध्यात्म ग्रन्थों में−विशेषतः उपनिषदों में कुण्डलिनी शक्ति की चर्चा हुई है। पर उतने को ही पूर्ण पक्ष नहीं मान लेना चाहिए। उतने से आगे एवं अधिक भी बहुत कुछ कहने, जानने और खोजने योग्य शेष रह जाता है। इन अपूर्ण घटकों को मिलाकर हमें वस्तुस्थिति समझने− अधिक जानने के लिए अपना मस्तिष्क खुला रखना चाहिए।

कुण्डलिनी आत्म शक्ति की प्रकट और प्रखर स्फुरणा है। यह जीव की ईश्वर प्रदत्त मौलिक शक्ति है। प्रसुप्त स्थिति में वह अविज्ञात बनी और मृत तुल्य पड़ी रहती है। वैसी स्थिति में उससे कोई लाभ उठाना सम्भव नहीं हो पाता। यदि उसकी स्थिति को समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि अपने ही भीतर वह भण्डार भरा पड़ा है जिसकी तलाश में जहाँ−तहाँ भटकना पड़ता है। वह ब्राह्मी शक्ति अपने ही अन्तराल में छिपी पड़ी है, जिसे कामधेनु कहा गया है। आत्मसत्ता में सन्निहित इस महाशक्ति का परिचय कराते हुए साधना शास्त्रों ने यह बताने का प्रयत्न किया है कि अपने ही भीतर विद्यमान इस महती क्षमता का ज्ञान प्राप्त किया जाय और उससे संपर्क साधने का प्रयत्न किया जाय। कुण्डलिनी परिचय के कुछ उद्धरण इस प्रकार हैं−

मल−मूत्र छिद्रों के मध्य मूलाधार चक्र में कुण्डलिनी का निवास माना गया है। उसे प्रचण्ड शक्ति स्वरूप समझा जाय। यह विद्युतीय प्रकृति की है। ध्यान से वह कौंधती बिजली के समान प्रकाशवान दृष्टिगोचर होती है। कुण्डलाकार है उसका स्वरूप प्रसुप्त सर्पिणी के समान है।

ज्ञान कर्म का समन्वय देवासुर सहयोग है। सुमेरु पर्वत यह तिकोना परमाणु है, जिसके कारण मूलाधार चक्र की रचना हो सकी। प्रसिद्ध है कि सुमेरु पर्वत पर देवता रहते हैं और स्वर्ण का बना है। निस्सन्देह इस त्रिकोण में इस से एक अद्भुत दिव्य शक्तियों और स्वर्ण सम्पदाओं का समावेश है। सुमेरु की रई, शेषनाग की रस्सी बनाकर समुद्र मथा गया। यह सर्प रज्जु−ब्रह्म नाड़ी के अंतर्गत इड़ा, पिंगला की विद्युत धाराओं से ओत−प्रोत है। शिव और विष्णु के प्रतीक ज्ञान और कर्म सुर और असुर जब समुद्र−मन्थन की−कुण्डलिनी जागरण की महासाधना में संलग्न हुए तो उसे सफल बनाने में प्रजापति ब्रह्मा ने कूर्म बनकर उसका बोझ अपने ऊपर उठा लिया। प्रयत्न असफल न हो जाय−सुमेरु नीचे न धँसक जाय−इस आशंका को निरस्त करने के लिए कूर्म भगवान् ने अवतार लिया और अपनी पीठ पर पर्वत जैसा भार उठा लिया। साधना पथ के पथिकों का उत्तरदायित्व भगवान् वहन करते हैं और सफलता का पथ पुरुषार्थ एवं निष्ठा के अनुरूप निरन्तर प्रशस्त होता चला जाता है। प्रथम चरण में ही चौदह रत्न नहीं निकल आये वरन् उसके लिए देर तक निष्ठापूर्वक मन्थन की प्रक्रिया जारी रखनी पड़ी। आध्यात्मिक साधनाओं में उतावली करने वाले अधीर व्यक्ति सफल नहीं होते, उसका लाभ तो धैर्यवान और श्रद्धा को मजबूती के साथ पकड़े रहकर विश्वासपूर्वक निर्दिष्ट मार्ग पर अवसर होते रहने वाले साधक नैष्ठिक साधक ही उठा पाते हैं।

कुण्डलिनी जागरण से इस प्रकार की अनेकों शक्तियों, सिद्धियों और क्षमताओं का जागरण होता है, यह सच है, क्योंकि इस साधना द्वारा साधक की अन्तर्निहित बीच रूप शक्ति जागृत होकर ऊर्ध्वगामी बनती है। यह साधनाएं आत्मसत्ता को परमात्म सत्ता से जोड़ने, उस स्तर पर पहुँचाने में समर्थ है। इनके लिए सामान्य साधना क्रम से ऊपर उठकर कुछ विशिष्ट साधना प्रक्रियायें अपनानी पड़ती हैं। प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति के अनुरूप उनका अलग−अलग विधान है, इसलिए उनका सार्वजनिक प्रकाशन करना न आवश्यक हैं और न उचित।

कुण्डलिनी जागरण की साधना पद्धति का प्रयोजन अपने भीतर के देव अंशों को विकसित और परिपुष्ट बनाना है। कैलाश पर्वत पर सर्पों का यज्ञोपवीत धारण करके विराजमान शिव और क्षीर सागर में शेषनाग पर सोये हुए विष्णु का बीजांश हमारे मस्तिष्क मध्य केन्द्र−ब्रह्मरन्ध्र में यथावत् विद्यमान है। इस स्थान को ‘सहस्रार’ कहते हैं। महाकाली− अग्नि जिह्वा चामुण्डा का बीजांश जननेन्द्रिय गह्वर−‘मूलाधार’ −में विद्यमान है। इन दो शक्तियों के असम्बद्ध बने रहने पर केवल उनकी उपस्थिति का आभास मात्र ही होता है, पर जब उन दोनों का संगम समागम हो जाता है तो अजस्र शक्ति की एक ऐसी धारा प्रवाहित हो उठती है जिसे अनुपम या अद्भुत ही कहा जा सकता है।

मस्तिष्क के मध्य भाग में अवस्थित सहस्रार कमल में शेषशायी विष्णु भगवान अवस्थित हैं और अधःअवस्थित मूलाधार चक्र के अधिपति शिव हैं। शिव चरित्र में कामदेव द्वारा शिव को उद्दीप्त करने और उनके द्वारा तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को जला डालने वाली कथा प्रख्यात है। कुण्डलिनी जननेन्द्रिय केन्द्र के समीप होने से अपने निकटवर्ती क्षेत्र को प्रभावित करती है, तत्त्वदर्शी उस अपव्यय को ज्ञान नेत्र खोलकर नियन्त्रित कर लेते हैं। एक पौराणिक कथा इसी संदर्भ में यह भी है कि शिव के काम पीड़ित होने पर उनकी जननेन्द्रिय के 18 टुकड़े विष्णु ने कर डाले और वे जहाँ भी गिरे वहाँ ज्योतिर्लिंगों की स्थापना हुई। द्वादश ज्योतिर्लिंगों का उद्भव इसी प्रकार हुआ। वासना को ज्योति में बदला जा सकता है। इस कथानक का यही मर्म है।

शिवजी का प्रधान आभूषण सर्प है और उनके चित्रों में हर सर्प प्रायः 3॥ फेरे लगाकर लिपटा हुआ दिखाई पड़ता है। शिवलिंग की मूर्ति पूजा में नर−नारी की जननेन्द्रियों की ही स्थापना है। शिव मन्दिरों की प्रतिमा में नर−नारी की जननेन्द्रियों को सम्मिलित करके प्रतिष्ठापित किया जाता है और उस पर जल चढ़ाने की−शीतल करने, की प्रक्रिया जारी रहती है। अर्थात् इन अवयवों को यों अश्लील और गुह्य माना जाता है पर वे घृणित नहीं हैं। उनमें ऐश्वर्य के असाधारण रहस्य बीज विद्यमान हैं। प्रतीक रूप से सर्प जलहली और शिवलिंग की पाषाण प्रतिमा के बीच भी अवस्थित रहता है। इस स्थापना में इसी तथ्य का प्रतिपादन है कि कुण्डलिनी का अधिपति शिव प्रत्यक्ष एवं समर्थ परमेश्वर है। उनके निवास स्थान कैलाश पर्वत और मानसरोवर की तरह समझे जायें उन्हें नर−नारी की घृणित जननेन्द्रिय मात्र न मान लिया जाय। वरन् उनकी पवित्रता और महत्ता के प्रति अति उच्च भाव रखते हुए, सदुपयोग की आराधना में तत्पर रहा जाय। साहस और कलाकारिता के−पुरुषार्थ और लालित्य के−कर्म और भावना के इन केन्द्रों को प्रजनन मात्र से निरस्त न बना दिया जाय वरन् नर−नारी की जननेन्द्रियों के निकट मूलाधार चक्र की शिव शक्ति को उच्च आदर्शों के लिए प्रयुक्त किया जाय।

जर्मनी के मनःशास्त्री हेन्सावेन्डर ने अतीन्द्रिय क्षमता के अनेकों प्रमाण संग्रह करके यह सिद्ध किया है कि ‘‘मन की व्याख्या पदार्थ विज्ञान के प्रचलित सिद्धान्तों के सहारे नहीं हो सकती।” कुण्डलिनी विज्ञान इस सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत हो जाने वाली ऐसी विधा है जिसे मात्र अनुभूतियों से जाना जा सकता है।


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