संगीत के माध्यम से इलेक्ट्रो मैगनेटिक लहरें उत्पन्न होती हैं जो स्नायु प्रवाह पर वाँछित प्रभाव डालकर उनकी सक्रियता ही नहीं बढ़ातीं−विकृत चिन्तन को रोकती व मनोविकार मिटाती हैं।
स्वर शक्ति की सृजनात्मक सामर्थ्य पर अब वैज्ञानिक धीरे−धीरे ध्यान देने लगे हैं। जहाँ एक ओर शब्द शक्ति चालित बम एवं रॉबॉट तैयार हो रहे हैं, वहाँ प्रदूषण निवारण, मनोविकार शमन, शरीर रोग निवारण में तरंगों का प्रयोग हो रहा है। पशुओं की प्रजनन शक्ति बढ़ाने, पौधों के बढ़ने की गति तीव्र करने तथा अधिक फसल उगा सकने में भी वैज्ञानिकों को मदद मिली है।
पराध्वनि (अल्ट्रासोनिक) तरंगों के ऊपर वैज्ञानिकों द्वारा अब तेजी से प्रयोग किये जा रहे हैं। इसकी सामर्थ्य को उन्होंने लेसर किरणों से भी अधिक शक्तिशाली पाया है। कर्णातीत−श्रवणातीत−अनसुनी ध्वनियों की सामर्थ्य के परिमाण को अभी पूरी जाना भी नहीं जा सका है। “सुपर सोनिक रेडियो मीटर” बना सकने में वैज्ञानिक सफल अवश्य हो गए हैं जिसमें अन्तरिक्ष में संव्याप्त अगणित ध्वनि प्रवाहों को सुना−जाना जा सकता है। वैज्ञानिकों का ऐसा कथन है कि ध्वनि ऊर्जा की बहुमूल्य सम्पदा अन्तरिक्ष में बिखरी पड़ी है जिसका यदि सही उपयोग किया जा सके तो मनुष्य समुदाय की सारी आवश्यकताएँ पूरी की जा सकती हैं।
गायत्री महामन्त्र के समवेत स्वरित जप से उत्पन्न पराध्वनि में सारे वातावरण को कंपा देने की सामर्थ्य विद्यमान है, ऐसा विभिन्न स्वर वैज्ञानिकों का मत है।
मनुष्यों तक ही संगीत प्रभाव सीमित नहीं है वरन् उसे पशु पक्षी भी उसी चाव से पसन्द करते हैं और प्रभावित होते हैं। संगीत सुनकर प्रसन्नता व्यक्त करना और उसका आनन्द लेने के लिए ठहरे रहना यही सिद्ध करता है कि वह उन्हें रुचिकर एवं उपयोगी प्रतीत होता है। अन्य जीवों की जन्मजात प्रवृत्ति यही होती है कि उनकी स्वाभाविक पसन्दगी उनके लिये लाभदायक ही सिद्ध होती है। पशु पक्षियों पर संगीत का अच्छा प्रभाव देखते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि वह मनुष्यों की तरह अन्य जीवों के लिये भी न केवल प्रिय वरन् उपयोगी भी है।
पशु मनोविज्ञानी डा. जॉर्जकेर वित्स ने छोटे जीव जन्तुओं की शारीरिक और मानसिक स्थिति पर पड़ने वाले प्रभाव का लम्बे समय तक अध्ययन किया है। घर में बजने वाले पियानो की आवाज सुनकर चूहों को अपने बिलों में शान्तिपूर्वक पड़े हुए उन्होंने कितनी ही बार देखा है। बेहिसाब उछल−कूद करने वाली चूहों की चाण्डाल चौकड़ी मधुर वाद्य यन्त्र सुनकर किस प्रकार मन्त्र−मुग्ध होकर चुप हो जाती हैं यह देखते ही बनता है।
फ्राँसीसी प्राणि शास्त्री वास्तोव आन्द्रे ने थलचरों, जलचरों और नभचरों पर विभिन्न ध्वनि प्रवाहों की, स्वर लहरियों की होने वाली प्रतिक्रियाओं का गहरा अन्वेषण किया है तद्नुसार वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि संगीत प्रायः प्रत्येक जीवधारी के मस्तिष्क एवं नाड़ी संस्थान पर आश्चर्यजनक प्रभाव डालता है। उनकी प्रकृति और मनः स्थिति के अनुरूप यदि संगीत बने तो उन्हें मानसिक प्रसन्नता और शारीरिक उत्साह प्राप्त होता है। किन्तु उनकी कर्णेन्द्रिय को कर्कश लगने वाली अरुचिकर ध्वनियाँ बजाई जायें तो उससे उन्हें अप्रसन्नता होती है और स्वास्थ्य सन्तुलन भी बिगड़ता है। किस प्राणी की किस स्थिति में किस प्रकार का संगीत क्या प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है, इसका अध्ययन करने वाले जर्मन प्राणि शास्त्री यह आशा करते हैं कि भविष्य में विभिन्न जीवधारियों की मनःस्थिति में आशाजनक परिवर्तन समय−समय पर किया जा सकेगा हिंस्र पशुओं को भी कुछ समय के लिये शान्त किया जा सकेगा और अवाँछनीय जीवों को उनके लिए अरुचिकर सिद्ध होने वाली ध्वनियाँ करके उन्हें दूर भगाया जा सकता है। इसी प्रकार उन्हें कई प्रवृत्तियों में संलग्न एवं उदासीन बनाने का कार्य भी संगीत के माध्यम से किया जा सकता है।
संगीत का प्रभाव पशु−पक्षियों पर गहरा पड़ता है। वेणु नाद सुनकर सर्प अपनी कुटिलता भूलकर लहराने लगता है। कई प्रान्तों में बहेलिये बीन बजाते हैं, उससे मुग्ध हुए हिरण, मृग निर्भय होकर पास चले आते हैं। हालैण्ड में गायें दुहते समय मधुर संगीत सुनाया जाता है। वहाँ की सरकार ने ऐसा प्रबन्ध किया है कि जब गायें दुहने का समय हो तब मधुर संगीत ब्राडकास्ट किया जाय, ग्वाले लोग रेडियो सैट दुहने के स्थानों पर रख देते हैं। संगीत को गायें बड़ी मुग्ध होकर सुनती हैं और उनके स्नायु संस्थान पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वे 15 से लेकर 20 प्रतिशत तक अधिक दूध दे देती हैं। ये प्रयोग भारत में भी किए गये हैं।
दुधारू पशुओं को दुहते समय यदि संगीत ध्वनि होती रहे तो वे अपेक्षाकृत अधिक दूध देते हैं। ऐसा देखा गया है।
सील मछली का संगीत प्रेम प्रसिद्ध है। कुछ समय पूर्व पुर्तगाल के मछुआरे अपनी नावों पर वायलिन बजाने की व्यवस्था बनाकर निकलते थे। समुद्र में दूर−दूर तक वह ध्वनि फैलती तो सील मछलियाँ सहज ही नाव के इर्द−गिर्द इकट्ठी हो जातीं और मछुआरे उन्हें जाल में पकड़ लेते।
घरेलू कुत्ते संगीत को ध्यानपूर्वक सुनते और प्रसन्नता व्यक्त करते पाये जाते हैं। वन विशेषज्ञ जार्ज ह्वस्हे ने अफ्रीका के कांगो देश में चिंपेंजी तथा गुरिल्ला वन मानुष को संगीत के प्रति सहज ही आकर्षित होने वाली प्रकृति का पाया है। उन्होंने इन वानरों से संपर्क बढ़ाने में मधुर ध्वनि वाले टैप रिकार्डरों का प्रयोग किया और उनमें से कितनों को ही पालतू जैसी स्थिति का अभ्यस्त बनाया। नार्वे के कीट विज्ञानी डा. हडसन शहद की मक्खियों को अधिक मात्रा में शहद उत्पन्न करने के लिए संगीत को अच्छा उपाय सिद्ध किया है। अन्य कीड़ों पर भी वाद्य यन्त्रों के भले−बुरे प्रभावों का उन्होंने विस्तृत अध्ययन किया है और बताया है कि कीड़े भी संगीत से बिना प्रभावित हुए नहीं रहते।
डा. सिंह ने दस वर्ष तक एक बाग का दो हिस्सों में परीक्षण किया। एक के पौधों को कु. स्टेला पुनैया वायलिन बजाकर गीत सुनाती दूसरे को खाद, पानी, धूप की सुविधाएं तो समान रूप से दी गई किन्तु उन्हें स्वर माधुर्य से वंचित रखकर दोनों का तुलनात्मक अध्ययन किया। जिस भाग को संगीत सुनने को मिला उनके फूल पौधे, सीधे, घने, अधिक फूल, फलदार सुन्दर हुए। उनके फूल अधिक दिन तक रहे और बीज निर्माण द्रुत गति से हुआ। डा. सिंह ने बताया कि वृक्षों में प्रोटोप्लाज्मा गड्ढे भरे द्रव की तरह उथल−पुथल की स्थिति में रहता है संगीत की लहरियाँ उसे उस तरह लहरा देती हैं, जिस तरह वेणुनाद सुनकर सर्प प्रसन्नता से झूमने और लहराने लगता है। मनुष्य शरीर में भी ठीक वैसी ही प्रतिक्रिया होती है। गन्ना, चावल, शकरकन्द जैसे मोटे अनाजों पर जब संगीत अपना चिरस्थायी प्रभाव छोड़ सकता है तो मनुष्य के मन पर उसके प्रभाव का तो कहना ही क्या?
गन्ना, धान, शकरकन्द, नारियल आदि के पौधों और पेड़ों के विकास पर क्रमबद्ध संगीत का उत्साहवर्धक प्रभाव पड़ता है यह प्रयोग भारत के एक कृषि विज्ञानी संगीतकार डा. टी. एन. सिंह ने कुछ समय पूर्व किया था। कोयम्बटूर के सरकारी कृषि कालेज के अन्वेषण ने पौधों पर संगीत के अनुकूल प्रभाव की रिपोर्ट दी है।
कनाडा के किसान अपने खेतों के चारों ओर लाउडस्पीकर लगाकर रखते हैं, उनका सम्बन्ध रेडियो से जोड़ दिया जाता है और संगीत कार्य क्रम प्रसारण प्रारम्भ कर दिया जाता है। विस्कानिसन के संगीत शक्ति के व्यापक शोधकर्ता श्री आर्थरलाकर का कहना है कि संगीत से जिस तरह पौधों को रोगाणुओं से बचाया जा सकता है, उसी प्रकार मनुष्यों की रोग−निरोधक शक्ति का विकास भी किया जा सकता है।