प्रत्यक्षतः साधनों का महत्व ही माना जाता है। क्योंकि दिखाई भी आँखों से वही पड़ता है। उन्हीं के आधार पर किसी की क्षमता, योग्यता, सफलता का अनुमान लगाया जाता है, पर यह स्थूल दृष्टि है। स्थूल ही नहीं अवास्तविक भी। क्योंकि साधन कितने ही विपुल क्यों न हों अन्ततः वे होते पदार्थ ही हैं। पदार्थों को कोई भी व्यक्ति खरीद और सजा सकता है। भले ही उस विषय में वह प्रवीण पारंगत न हो।
बाजार में बहुमूल्य वस्तुओं की दुकानें होती हैं। उन्हें यथास्थान रखने से लेकर बेचने तक का काम मुनीम गुमाश्ते करते हैं। वे वस्तु की विशेषता बताने से लेकर ग्राहक को लुभाने, खरीदने के लिए आतुर करने तक का काम करते हैं। उन्हीं की कुशलता से दुकान चलती है। मालिक भरपूर लाभ भी उठाता है, पर इनमें से एक भी ऐसा नहीं होता जो उन पदार्थों के सम्बन्ध में गहरी प्रवीणता रखता हो जो इन्हें चलाकर, बनाकर दिखा सके। स्पष्ट है उनके साधन जुटाने और उन्हें सजाने की योग्यता भर पाई है। बैंक से रुपया कर्ज लेने− मौके की दुकान उपलब्ध करने−मुनीम गुमाश्ते फुर्तीले नियुक्त करने, वस्तु का विज्ञापन करने जैसे कलाएँ जानी हैं। उन मशीनों को अच्छी तरह चलाना, जहाँ खराबी आने लगी है, उसे दुरुस्त कर देना उनका काम नहीं है जो मालिक बने हुए हैं और इज्जत तथा पैसा कमाते हैं। बहुमूल्य मशीनों की सजी−धजी लाखों की पूँजी वाली मशीनों तथा दुकानों की वास्तविक स्थिति यही होती है। देखने वाले भले ही मालिक को सारा श्रेय देते रहें।
हलवाई की छोटी−सी दुकान का उदाहरण लीजिए। उसमें मिठाइयाँ बनाने वाले कारीगर अलग होते हैं। वे चुपचाप अपने कौने में बैठे मिठाइयाँ बनाने में लगे रहते हैं। किसी मिठाई में कुछ खराबी आ जाय तो उसे नया उपाय अपनाकर सुधारना भी वे ही जानते हैं। उनके कला−कौशल से ही दुकान प्रख्यात होती है। ग्राहक उसी के कारण टूटते हैं और मालिक इसी आधार पर मालदार बनते हैं। किन्तु दुकान पर काम करते हुए दूसरे ही दस आदमी दिख पड़ते हैं। सजाकर रखने वाले, तोलने वाले, हिसाब रखने वाले, आवश्यक वस्तुएँ बाजार से लाने वाले, सफाई तथा स्टोर वाले, यही सब दुकान पर काम करते हुए दिखाई पड़ते हैं। ग्राहक उन्हीं को पहचानते हैं। दुकान उन्हीं के बलबूते चलती दिखाई पड़ती है। मालिकी का परिचय बड़े वाले बोर्ड से मिलता है। किन्तु यह रहस्य बिरलों को ही मालूम है कि उस दुकान की चसकदार मिठाइयों की ख्याति किसकी विशेषता पर निर्भर है। वह तो अपना कौशल बढ़ाता और चुपचाप बैठा अपना काम करता रहता है। यहीं बात मशीनों की, दर्जी की या दूसरी तरह की दुकानों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। उनका प्रत्यक्ष, प्रदर्शनात्मक, साधन परक स्वरूप बनाकर खड़ाकर देना एक बात है और विशिष्टताओं के आधार पर ख्याति और प्रामाणिकता एकत्रित करना दूसरी। सफलताओं का श्रेय किसे मिले। इसकी साधारण दृष्टि दूसरी होती है और विशेष, बारीक, गहरी दृष्टि दूसरी।
जीवन बहुमूल्य फर्म है। इसमें भी प्रत्यक्ष साधनों का ही महत्व दिखता है। मोटी परख उतना ही पकड़ पाती है। भगवान का दिया हुआ सौंदर्य, पूर्वजों का छोड़ा हुआ धन−बैंक का सहयोग−उपयुक्त स्थान पर दुकान कुशल कर्मचारी आदि का श्रेय संयोगों को ही दिया जा सकता है। व्यक्तित्व को श्रेय तब मिलता है जब अनायास उपलब्ध हुए साधन हाथ में न होते और अपनी ही सूझ-बूझ अथवा दौड़-धूप से सारा सरंजाम जुटाया गया होता। महामानवों के छोटे काम भी उनके यश को अजर-अमर बना देते हैं। जबकि धन कुबेरों का आकाश पाताल जितना खर्च किया हुआ लगाया गया धन, लोगों की आँखों तले नहीं आता। क्योंकि मानवी विवेक बुद्धि यह पहचानती है कि साधनों का बाहुल्य और व्यक्तित्व का स्तर इन दोनों के बीच क्या अन्तर होता है और दोनों में से किसे कितनी श्रद्धा सराहना मिलनी चाहिए।
प्रसंग मानव जीवन के गौरव का है। जिसके पास अधिक साधन, सरंजाम, पद, सम्मान प्राप्त हैं−वह चमड़े की आँखों को ही चकाचौंध में डाल सकता है। उसे उसका सौभाग्य भी कह सकता है। पर जिनके पास सूक्ष्म बुद्धि है−विवेक दृष्टि है−वह मात्र एक ही बात देखता है कि कर्ता के निजी व्यक्तित्व की उत्कृष्टता का उसमें कितना समावेश हुआ है।
साधन जड़ है और कौशल चेतना। साधन जमा कर लेना और उनसे बनी गाड़ी को पटरी पर लुढ़का देना किसी के लिए भी सरल है। किन्तु अपनी आन्तरिक उत्कृष्टता की छाप किसी पर छोड़ना सर्वथा दूसरी। व्यक्तित्व के चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में जितनी उत्कृष्टता और प्रामाणिकता होती है, उसी अनुपात से अन्यान्यों की अन्तरात्मा तक गहरी छाप पड़ती है। इसी आधार पर प्राप्त की हुई सफलता अभिनन्दनीय और अनुकरणीय बनती है।
हर काम में आकर्षण और दबाव आते हैं। इनसे विचलित न होना और उत्कृष्टता का हर कीमत पर बनाये रहना, सामान्य काम नहीं है। असफलताएँ, विपरीत परिस्थितियां और आक्रामक प्रतिकूलताएं विशेषतया आदर्शवादी जीवनचर्या के साथ छेड़खानी करती रहती हैं। कभी−कभी तो वे इतनी भारी और विकट होती हैं कि आदमी को हताश उद्विग्न कर देती हैं। कभी ऐसी होती हैं कि दूसरे दुनियादारों की तरह ओछे हथकंडों पर उतर कर किसी तरह काम चलाना पड़ता है। ऐसे ही अवसर परीक्षा की घड़ी होते हैं। यह आग में खेलना है। इस भट्टी में से खरा सोना ही पास होता है।
आदर्शवादी जीवन को विशेषतया ऐसी प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ता है। उनसे पार होना सिद्धांतवादी हिम्मत और दृढ़ता का काम है। वह न हो तो घाटा सहकर− मुसीबत में पैर जमाये रहना हर किसी का काम नहीं है। यह मात्र चरित्रवानों के लिए ही सम्भव है। चरित्र का अर्थ है−महान मानवीय उत्तरदायित्वों की गरिमा को समझना और उसका हर कीमत पर निर्वाह करना।
इस आकाश में जमीन से बहुत ऊँचाई पर ग्रह, तारक टँगे हुए और चमकते हुए दिखाई पड़ते हैं। यह उनका विस्तार और प्रकाश ही है, जो चिर अतीत से लेकर अद्यावधि यथावत् यथास्थान चमकता दिखाई पड़ता है। आकाश में उड़ने वाले झंझावात उनकी स्थिरता और गरिमा को कोई आघात नहीं पहुँचा पाते। मनुष्य की गरिमा भी ऐसी ही है जो यदि आदर्शवादी कौशल के अनुरूप गढ़ी और ढली हो तो उसके पतन पराभव का कोई कारण नहीं बनता यों जब तब तो छोटी बदली भी सूर्य चन्द्र के प्रकाश को धूमिल करती देखी गई है।
जीवन मनुष्य के हाथों में सौंपा गया सबसे शानदार और महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है। जिससे उसे सँभाले रहना और शानदार बनाये रहना सीख समझ लेना चाहिए कि उसी की कुशलता और विभूति सत्ता सराहनीय है। जिनके पास ऐसी कीर्ति सम्पदा है वे साधनों के अभाव में भी ऊँचे उठते और सफल होते हैं। अनेकों को प्रकाश देना और पार करना ऐसे ही प्रतिभावानों का काम है।