जीवन सम्पदा की फुलझड़ी न जलायें

November 1985

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मानवी जीव कोशों की सुदृढ़ता को परखते हुए कोलम्बिया विश्वविद्यालय के डा. एच. एस. सिक्सन ने एक बार कहा कि यदि स्नायु उत्तेजना और रासायनिक विकृतियों से शरीर की रक्षा की जा सके तो मनुष्य की संरचना उसे 800 वर्ष तक जीवित रहने का अवसर दे सकती है।

कार्नेट विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग ने अपने परीक्षणों से यह निष्कर्ष निकाला है कि शारीरिक श्रम की तुलना में नीरस मानसिक श्रम से कहीं अधिक थकाना आती है।

खाद्य−पदार्थों में पाई जाने वाली ऊष्मा जिसे ‘कैलोरी’ कहते हैं यदि कम मात्रा में मिले तो थकान आवेगी। यह मान्यता भी अभी पूर्णतया निरस्त नहीं हुई है। पिछली शताब्दी के यह निष्कर्ष अभी भी दुहराये जाते हैं कि भोजन में ऊष्मा की मात्रा समुचित हो तो थकान से बचा जा सकता है और बुढ़ापा वस्तुतः थकान ही है।

यह माना जाता है कि 150 पौण्ड वजन का कोई व्यक्ति सोते समय 65 कैलोरी प्रति घंटा खर्च करता है। लेटे रहने में 77, पढ़ने में 100, टाइप करने जैसे कामों में 145, चलने−फिरने में 200 और कड़ा परिश्रम करने में 300 कैलोरी प्रति घण्टा के हिसाब से खर्च होती है।

डा. वाल्डविन के अनुसार मनुष्य शरीर का तापमान तो 98.6 डिग्री रहता है, पर उसे अनुकूल 98 डिग्री तापमान का वातावरण ही पड़ता है। इससे अधिक ठण्डक या गर्मी होने पर उसकी कैलोरी शक्ति अधिक मात्रा में खर्च होने लगती है और थकान जल्दी चढ़ती है। डा. डोनाल्ड ए. लेयर्ड के अनुसार कोलाहल भरे वातावरण में रहने वाले मनुष्य को 20 प्रतिशत थकान का शोरगुल के कारण ही चढ़ती रहती है। यही जल्दी बुढ़ापा लाती है।

मेयोक्लीनिक के डा. केन्ड्रिल ने कहा हैं “चिड़चिड़ापन मनुष्य की थकान का सर्वविदित चिन्ह है।” लेही क्लीनिक के डा. एलेक का मत भी यही है− वे कहते हैं चिड़चिड़ा मनुष्य दया का पात्र है क्योंकि वस्तुतः वह गहरी थकान का मरीज होता है। उस पर क्रोध करने या बदला लेने से तो इस मरीज का और भी अहित होगा। थकान बढ़ेगी और बुढ़ापे की रफ्तार तेज होगी। इसे रोकने व आयुष्य को बढ़ाने के लिए व्यक्ति को तनाव रहित बनना होगा।

केवल दीर्घ जीवन ही सम्भव नहीं वरन् यह भी सम्भव है कि ढलती आयु में भी सशक्त यौवन को स्थिर रखा जा सके। शरीर में आयु की वृद्धि के साथ कुछ तो परिवर्तन होते हैं पर यह मानवी प्रयत्नों पर निर्भर है कि वह शिथिलता से अपने को बचाये रहें और वृद्ध होते हुए भी अशक्त न बनें।

वारजन विवारेस नियासी पियर डिफोरबेल 129 वर्ष का होकर सन् 1809 तक जीवित रहा। मरते समय उसका स्वास्थ्य ठीक था और उसकी सभी इन्द्रियाँ अपना काम ठीक तरह करती थीं। उसने तीन विवाह किये और कितने ही बच्चे पैदा हुए उनमें से तीन बच्चे ऐसे भी थे जिन्हें तीन पृथक शताब्दियों में पैदा हुआ कहा जाता है। एक बच्चा 1699 में दूसरा 1738 में तीसरा 1801 में जन्मा। यों यह अन्तर लगभग सौ वर्ष ही होता है, पर शताब्दियों के हिसाब से इसे तीन शताब्दियों में भी गिना जा सकता है। और साहित्यिक शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि उसका एक बच्चा 16 वीं शताब्दी में, दूसरा 17 वीं में और तीसरा 18 वीं में जन्मा। उसकी तीसरी पत्नी 19 वर्ष की थी जबकि डिफोरबेल 120 वर्ष का। यह तीसरा दाम्पत्य जीवन भी उसने प्रसन्नता पूर्वक बिताया। पत्नी को इसमें कोई कमी दिखाई न दी। यह विवाह नौ वर्ष तक सुख पूर्वक चला और उसमें कई बच्चे हुए।

उपरोक्त तीन शताब्दियों में जन्मे तीन बच्चों की जन्म तिथियाँ उनके प्रमाण पत्रों समेत सन् 1877 के ‘मेगासिन पिटारेस्क’ में छपी हैं। जो घटनाक्रम की यथार्थता प्रकट करते हुए यह भी सिद्ध करती हैं कि दीर्घ जीवन ही नहीं यौवन को भी अक्षुण्ण बनाये रहना सम्भव है−असम्भव नहीं।

जोरा आगा नामक टर्की के एक दीर्घजीवी वृद्ध पुरुष की आयु 1927 में 153 वर्ष की थी। उस समय उसने अपना ग्यारहवाँ विवाह किया था। उससे पूर्व 10 स्त्रियों और 27 बच्चों को वह अपने हाथों कब्र में सुला चुका था। उसके जीवित बच्चे 70 से ऊपर थे।

बीमारियों से मनुष्य का घिरा रहना भी उसका प्रकृति को चुनौती देने का ही दण्ड दुष्परिणाम है। उपभोग की मर्यादाओं का उल्लंघन शरीर संरचना के अनुरूप आचार संहिता न अपनाने से स्वास्थ्य संकट उत्पन्न होता है और उसकी दुःखद प्रतिक्रिया आये दिन बीमार रहने के रूप में भुगतनी पड़ती है। जितना सरल, सौम्य, हलका और आवेश उत्तेजनाओं से रहित जीवन जिया जायेगा उतना ही मृत्यु का भय और कष्ट हलका होता जायेगा।

हमारे शरीर में प्रतिदिन अगणित कोशिकायें जन्मती और मरती हैं। किन्तु मस्तिष्क की तान्त्रिक कोशिकाओं के बारे में यह बात नहीं है। उनका पुनर्निर्माण नहीं होता। मस्तिष्क में कोशिकायें प्रति घन सेंटीमीटर एक करोड़ के अनुपात में पाई जाती हैं। वे प्रति घण्टे एक हजार की औसत से मरती रहती हैं। इस प्रकार यह पूँजी क्रमशः घटती रहती है। बहुधा जीवन काल में ही 10 प्रतिशत मस्तिष्क घट जाता है। यह पूँजी समाप्त होते चलने से शरीर पर मनःचेतना का नियन्त्रण घटता चलता है और वह भी बुढ़ापे का निमित्त बन जाती है।

दीर्घ जीवन के दो प्रमुख आधार यह माने जाते हैं कि श्वास धीमे लिये जाँय तथा शीत वातावरण में रहा जाय। योगी लोगों की प्राणायाम क्रिया तथा हिमकन्दराओं में निवास को प्रमुखता देने का एक कारण यह भी है कि वे शरीर को अमर या दीर्घजीवी बनाकर अपना और पराया अधिक श्रेय साधन कर सकें।

रीछ, सर्प, कछुए, मेंढक शीत ऋतु आने पर अपने को सिकोड़ कर बैठ जाते हैं। ताप की तीव्रता से जो शक्ति का क्षरण होता है वह उन दिनों न होने से वे जीव निराहार पड़े रहते हैं। गति शरीर संचालन भर के लिये आवश्यक है। यदि उसे अव्यवस्थित ढंग से खर्च किया जाय तो साँसें तेज चलने लगेंगी और उससे दीर्घ जीवन में कमी आ जायगी।

सृष्टि विज्ञान पर दृष्टिपात करने से विदित होता है कि जिन जीवों का श्वास संचालन मन्द गति से होता है वे अधिक दिनों जीवित रहते हैं, इसके विपरीत जिनकी साँसें तेजी से चलती हैं वे कम समय जी पाते हैं। इस सम्बन्ध में प्रति मिनट साँस लेने और आयुष्य प्राप्त करने सम्बन्धी अनुमानित विवरण पर प्रकार है− कछुआ साँस 5 प्रति मिनट आयु 150 वर्ष। सर्प साँस 8 आयु 120 वर्ष। हाथी साँस 2 आयु 100 वर्ष। मनुष्य साँस 12 आयु 100 वर्ष। घोड़ा साँस 18 आयु 50 वर्ष। बिल्ली साँस 25 आयु 12 वर्ष। बकरी साँस 25 आयु 12 वर्ष। कबूतर साँस 36 आयु 8 वर्ष। खरगोश साँस 40 आयु 7 वर्ष।

नृतत्व विज्ञान वेत्ता बताते हैं कि प्राचीनकाल में मनुष्यों की श्वास−प्रश्वास संख्या 11-12 थी। पर जब मानसिक उत्तेजन एवं शारीरिक उष्णता में−आहार−विहार अव्यवस्था एवं बौद्धिक उद्वेगों से परिस्थिति बदल गई और आदमी अधिक गरम रहने लगा है। गर्मागर्मी से भरे हुए लोग जल्दी उफनते और जल्दी चलते हैं। उनका आयुष्य कम हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?

स्वास्थ्य सुरक्षा की सर्वाधिक दूरदर्शी नीति यही है कि प्रकृति के अनुरूप अपना आहार−विहार, रहन−सहन बनाये रखा जाय जैसा कि सृष्टि के सभी प्राणी बनाये रखते और चैन से जीते हैं। इन्द्रियों का संयम बरता जाय, दिनचर्या ठीक रखी जाय, श्रम और आराम का सन्तुलन रहे, मस्तिष्क को उत्तेजनाओं से बचाये रखा जाय, स्वच्छता का ध्यान बना रहे तो इन मोटे नियमों का पालन भर करने से बहुत हद तक छुटकारा मिल सकता है। स्व उपार्जित बीमारियों का ही बाहुल्य रहता है−बाहर से तो बहुत कम आती हैं। मौसम का प्रभाव, वंशगत विकार, छूत, दुर्घटना आदि कारणों से भी अप्रत्याशित रोग हो सकते हैं, पर उनका अनुपात बहुत स्वल्प रहता है। दीर्घ आयु, रोग रहित जीवन जीना हो तो हमें जीवन सम्पदा की फुलझड़ी जलाने का तमाशा समय रहते बन्द कर देना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118