क्या मनुष्य स्वभावतः आक्रामक है?

November 1985

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नृतत्व विज्ञानी डा. वाशवर्न मनुष्य की बौद्धिक क्षमता का इतिहास प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि “सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य का मस्तिष्क कई लाख वर्षों तक विकसित नहीं हुआ सात लाख साल पूर्व मनुष्य का मस्तिष्क पहले ही अपेक्षा दूना हो गया। चार लाख वर्ष पहले समूची स्थिति में अचानक परिवर्तन आया। मनुष्य का मस्तिष्क एक साथ कई आयामों में विकसित हुआ। किन्तु विकास की इस प्रक्रिया में सबसे बड़ी त्रुटि यह रह गई की उसकी आक्रामक मनोवृत्ति में जरा भी परिवर्तन नहीं आया। पाषाण युग की सभ्यता एवं वर्तमान की मनोवृत्तियों में अब भी एक रूपता है। उनका कहना है कि आज आवश्यकता इसकी है कि मनुष्य बदले और उसे बदलना ही होगा अन्यथा मानव जाति का विनाश निश्चित है।”

उक्त विचार युनेस्को द्वारा आयोजित “पेरिस” की एक क्रान्फ्रेन्स में प्रस्तुत किया गया था विषय था अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में किस प्रकार शान्ति की स्थापना की जाय? किस प्रकार मानवी मूल्यों की पुनर्स्थापना हो? इसमें 14 देशों के 18 मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने भाग लिया। विकासवाद का उपरोक्त सिद्धान्त सही न भी माना जाय तो भी मानवी स्वभाव को बदलने की आवश्यकता को तो समझना ही होगा।

दिवंगत प्रो. सोरोकोव ने अपनी पुस्तक “सोशल एण्ड कल्चरल डायनेमिक्स” में नौ सौ वर्षों में संसार के देशों ने जितने युद्ध किए हैं, उसके आधार पर विस्तृत तालिका बनायी है। इस तालिका के अनुसार बारहवीं सदी से बीसवीं तक रूस ने अपने समय का 42 प्रतिशत स्पेन ने 67 प्रति. पोलैंड ने 58 प्रति. ग्रीस ने 57 प्रति., इंग्लैंड ने 56 प्रति. फ्राँस ने 50 प्रति. हालैण्ड ने 44 प्रति. रोम ने 41 प्रति. आस्ट्रिया ने 40 प्रति. जर्मनी ने 28 प्रति. वर्ष युद्ध करते बिताया है। उक्त सम्मेलन में उपस्थित सभी मनोवैज्ञानिकों ने कहा कि मनुष्य का मन परिवर्तनशील है, उसे बदला जाना सम्भव है।

आक्रामक, अति उत्साही व्यक्ति अपनी सामर्थ्य का अत्यधिक मूल्याँकन करने वाला होता है। इस आवेश में दूसरे को मच्छर की तरह मसल देने की अहमन्यता सवार रहती है। कभी−कभी बदला लेने की भावना प्रबल होती है। कभी मात्र नीचा दिखाने और स्वयं यशस्वी बनने तथा लाभान्वित होने की प्रवृत्ति का मन पर इतना अधिक दबाव बढ़ जाता है कि उसे आतंक प्रदर्शित करने के लिए कोई न कोई बहाना ढूँढ़ना पड़ता है। ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि संसार में कोई न्याय व्यवस्था भी है जो आक्रामक को नीचा दिखाने के लिए स्वयं ही अदृश्य व्यवस्था बनाती रहती है। शान्ति प्रिय वाणी अपनी प्रकृति के अनुरूप बढ़ते भी रहते हैं और फलते−फूलते भी हैं और पारस्परिक सहयोग का लाभ उठाते रहते हैं। इसके विपरीत आक्रमणकारी आपस में ही ईर्ष्या द्वेष की आग में जलते रहते हैं और जब भी अवसर मिलता है, भेड़ियों की तरह एक−दूसरे की दबोचने का अवसर भी नहीं चूकते। सिंह व्याघ्रों की संख्या संसार में घटती ही जाती है। क्योंकि प्रकृति नहीं चाहती कि हानिकारक तत्व संसार में अधिक बढ़ें और अधिक समय तक जीवित रहें। आक्रामक अपराधियों को राजदण्ड, सामाजिक असहयोग एवं तिरस्कार भी निरन्तर सहन करना पड़ता है। यह उनकी जीवनी शक्ति को घटाने एवं परास्त करने में कम भूमिका नहीं निभाती। आत्म हनन का पश्चात्ताप भी उन्हें कम नहीं सहना पड़ता।

यों मनुष्य भूतकाल की विपन्न परिस्थितियों में आत्म रक्षा के नाम पर आक्रामकता अपनाता रहा है पर स्वभावतः अपनी शारीरिक एवं मानसिक संरचना के कारण वह आक्रामक है नहीं।


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