अपना घर (kahani)

November 1985

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महाराष्ट्र के मान्य साहित्यकार आचार्य प्रहलाद केशव अत्रे के पास संचित सम्पदा उन दिनों पचास लाख निश्चित की गयी थी।

मरते समय उसकी वसीयत सारे राष्ट्र के नाम करके ट्रस्ट बना दिया। बच्चे तो शिक्षा प्राप्त करके अपने पैरों पर खड़े होने योग्य पहले से ही हो गये थे। उन्हें उनने उत्तराधिकार में कुछ भी नहीं दिया। वसीयत में लिखा− सारा देश ही मेरा परिवार है, थोड़े से वंशजों के साथ बँधा हुआ नहीं।

परिवार से बढ़कर तपोवन कोई है नहीं। कहीं अन्यत्र भटकने की अपेक्षा अपना लक्ष्य यहीं खोजना चाहिए। 

एक कलाकार संसार की सबसे सुन्दर वस्तु का श्रेष्ठतम चित्र बनाना चाहता था। पर यह समझ नहीं पा रहा था कि वह वस्तु क्या है? सो पूछने के लिए निकल पड़ा।

सन्त से पूछा तो उनने कहा− ‘श्रद्धा’, क्योंकि उससे भगवान तक मिल सकता है।

एक नव वधू से पूछा− तो बोली “प्रेम” इससे दो आत्माएँ एक होती हैं।

आगे चलकर वहीं प्रश्न एक सैनिक से पूछा−उसने कहा− ‘‘शान्ति” क्योंकि इससे असंख्यों की जानें बचती हैं।

तीनों की ही बातें ठीक थीं। पर तीनों का सम्मिश्रण कैसे हो? इसका समाधान खोजते घर लौट आया।

घर में प्रवेश करते ही बच्चा लिपट गया उसकी आँखों में असीम श्रद्धा थी और पत्नी ने आरती उतारी उसकी भावनाओं में प्रेम छलक रहा था और सारे घर में सुख−शान्ति का वातावरण बन गया। तीनों का समन्वय हो गया।

कलाकार का समाधान हो गया। उसने एक अति सुन्दर चित्र बनाया जिसके ऊपर लिखा था− ‘‘अपना घर।”


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