मानवी तेजोवलय

November 1985

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मोटे तौर पर चेहरे को देखकर कितने ही व्यक्ति बहुत कुछ जानने और समझने में सफल हो जाते हैं। आकृति देखकर प्रकृति का अनुमान लगाने वाले सूक्ष्मदर्शी नाक, कान, आँख, मुँह आदि की बनावट को नहीं वरन् चेहरे के चारों ओर उमड़ते−घुमड़ते तेजोवलय को ही परखते हैं और उसी के आधार पर व्यक्ति के आन्तरिक व्यक्तित्व का प्रभाव एवं परिचय प्राप्त करते हैं।

तेजोवलय का एक केंद्र चेहरे की ही तरह जननेन्द्रिय क्षेत्र में छाया रहता है, इस क्षेत्र में प्रजनन सम्बन्धी केन्द्र होने से लय का प्रभाव यौन आकर्षण उत्पन्न करने वाला होता है। किशोर वय के भिन्न लिंगों के बीच यह वलय ही अधिक उभार उत्पन्न करता है। समलिंगों की समीपता में वह तेजस् उत्तेजित नहीं होता। कटि प्रदेश को सदा ढके रहने के पीछे यही आधार होता है कि समलिंगों को तेजोवलय भिन्न लिंगों के बीच अनावश्यक उभार न पैदा करे।

सामान्यतया रंग रूप का आकर्षण हर किसी को मुग्ध करता है, पर यह तेजोवलय तद्नुरूप न हुआ तो कुछ ही समय में वह मूल्याँकन बदल जाता है। रूपवान काया में भी विषधर सर्प जैसी विद्रूपता प्रकट हो सकती है एवं कुरूप व्यक्ति अष्टावक्र, सुकरात, गाँधी की तरह सिर आँखों पर बिठाया जाने लगता है। साज−सज्जा द्वारा तो शरीर की कुरूपता एक सीमा तक छिपाई भी जा सकती है, पर तेजोवलय के सूक्ष्म शरीर पर किसी भी प्रकार पर्दा नहीं डाला जा सकता है। सुविकसित अन्तःकरण सम्पन्न व्यक्तियों को किसी की भीतरी स्थिति को पहचानने में देरी नहीं लगती है। यही कारण है कि महामानव किसी की बाह्य सुन्दरता अथवा कुरूपता को अधिक महत्व नहीं देते हैं। वे रंग रूप की अपेक्षा तेजोवलय में संव्याप्त सुन्दरता एवं कुरूपता को वास्तविक व्यक्तित्व मानते हैं। भले−बुरे व्यक्तित्वों के प्रति जनसामान्य की श्रद्धा एवं अश्रद्धा भी इसी अन्तःऊर्जा के आधार पर बनती है।

शरीर को खुला-नग्न छोड़ देने पर शरीर विद्युत की मात्रा स्फुल्लिंगों के रूप में उड़ने लगती है। वस्त्र पहनने का कारण शरीर को सर्दी से बचाना या शोभा बढ़ाना भी हो सकता है, पर मूल कारण तेजोवलय पर आवरण आच्छादित किये रहना ही है। भीतर की ऊर्जा बाहर न निकलने पाये इसीलिए वस्त्रों का आवरण ढका जाता है। आध्यात्मिक साधनाओं में निरत रहने वाले कठोर तप-तितिक्षा के अभ्यासी साधु संन्यासी तथा योगी भी नग्न शरीर में भस्म या मिट्टी का आवरण चढ़ाये रहते हैं। पूर्ण नग्न शरीर रखना असभ्य आचरण माना जाता है। इस मान्यता के पीछे प्रमुख कारण सामाजिक मर्यादाएँ हैं, पर आत्मिक कारण यह है कि शरीर को नग्न रखने वाला अपनी, शक्ति तरंगें बड़ी मात्रा में बाहर बिखेरता रहेगा, साथ ही दूसरों के भले−बुरे प्रबल भावों से अपने को बचा भी न सकेगा। धूप का तीव्र प्रभाव नग्न शरीर पड़ता है। इसी प्रकार दूसरों का चुम्बकत्व भी निर्वस्त्र लोगों को अधिक प्रभावित कर सकता है।

साधु, सन्तों, महापुरुषों की माला, जनेऊ, खड़ाऊँ, वस्त्र अथवा अन्य वस्तुएँ उपहार आशीर्वाद स्वरूप पाकर लोग कृतार्थ हो जाते और उनके प्रभाव से देर तक लाभान्वित होते रहते हैं। दीर्घकाल तक उनमें वह दिव्य प्रभाव बना रहता है। भगवान बुद्ध का एक दाँत लंका में आज भी सुरक्षित रखा है। मुहम्मद साहब का एक शिर का बाल काश्मीर की एक मस्जिद में रखा हुआ है। इंग्लैंड के एक गिरजाघर में ईसामसीह का रखा कफ़न कितने ही श्रद्धालुओं की प्रेरणा का केन्द्र बना हुआ है।

तेजोवलय मात्र प्रकाश ही नहीं उसमें चुम्बकत्व भी मिश्रित है। जो दुर्बलों को प्रभावित करता और सशक्तों से प्रभावित होता है। इसे अध्यात्म साधना के विभिन्न स्वरूपों को अपना कर निश्चित ही बढ़ाया जा सकता है। सुपात्र योगी यही कर अपनी सामर्थ्य बढ़ाते हैं।


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