प्रतिपादन और उसका प्रभाव

November 1985

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तत्वज्ञान को पढ़ने समझने वाले लोग भी उन मार्ग पर प्रायः स्वयं नहीं चल पाते। दूसरों को उपदेश करने वाले और अध्यात्म युक्त धर्म मार्ग पर चलने की आये दिन चर्चा करने वाले लोग भी जब स्वयं उस मार्ग पर चलते नहीं, तो कथनी और करनी का अन्तर दूसरों में क्या उत्साह भर सकता है और किस प्रकार उन्हें उस कथन पर विश्वास करने के लिए उद्यत कर सकता है?

करनी और कथनी का अन्तर छिपाये नहीं छिपता। वह हवा के साथ उड़कर असंख्यों के मस्तिष्क से जा टकराता है। और अनुमान आशंका से आगे बढ़कर वह चर्चा का विषय बन जाता है, काना−फूसी का रूप धारण करता है और सन्देह बढ़ते−बढ़ते सर्वजनीन चर्चा का विषय बन जाता है। और यदि वैसा अन्तर न हो तो अनेक प्रतिभावानों द्वारा लगाये गये लाँछन भी हवा में उड़ जाते हैं और उनका कोई गम्भीर प्रभाव नहीं पड़ता। वास्तविकता असंख्य विरोधों को चीरती हुई विज्ञजनों के अन्तराल में श्रद्धा बनकर जा बैठती है। इसीलिए नीतिकारों से निन्दा प्रशंसा की चिन्ता न करके वस्तुस्थिति को प्रामाणित बनाने का परामर्श दिया है।

कथनी और करनी का अन्तर यों अखरता तो हर क्षेत्र में है। पर धर्म और अध्यात्म क्षेत्र में यह अन्तर लोगों को प्रतिपादित दर्शन के प्रति ही अनास्था उत्पन्न करता है। सुनने वाले सोचते हैं कि यह मार्ग इतना सही और व्यावहारिक रहा होता तो प्रवक्ता स्वयं ही उसे क्यों न अपनाता और उन बातों से स्वयं क्यों वंचित रहता जिन्हें प्राप्त करने के लिए दूसरों से कहा जा रहा है।

विचारणीय है आदर्शों का प्रतिपादन करने वाले स्वयं उनसे क्यों पीछे हटते हैं। इसका मुख्य कारण उनकी व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाएँ होती हैं जिन्हें कामनाएँ पूरी होती हैं। भावना के आगमन में यह कामनाएँ दबी ही नहीं रहती। अपेक्षित साधन या अवसर मिल जाने पर भी वे आग में ईंधन डालने की तरह बढ़ती ही जाती है। उनकी पूर्ति के निमित्त उठती हुई उत्कण्ठा इतनी व्याकुलता उत्पन्न करती है कि मनुष्य अपने द्वारा किये गये प्रतिपादनों को भुलाकर संकीर्ण स्वार्थपरता की दलदल में गहरा ही धँसता जाता है और कुकृत्य तक करने लगता है। अभ्यास हो जाने पर पीछे वह आत्म-ग्लानि भी नहीं होती जो विवेकवानों के मन में उठनी चाहिए यह महत्वाकाँक्षाओं का समूह ही ‘काम’ कहा गया है और इसे पतन के गर्त्त में धकेलने वाला शत्रु कहा गया है। गीताकार के शब्दों में यह ‘काम’ ही ऐसा उद्वेग है जो मनुष्य को अपनी और दूसरों की आँखों में गिरा देता है।

इस विडम्बना से कैसे पीछा छूटे? इस प्रश्न का भक्तिमार्गी उत्तर देते हैं कि ईश्वर की शरण में जाना और ज्ञानमार्गी कहते हैं अपने को सीमित संकीर्णता से उबारकर सबको अपने और अपने को सब में देखना। ऐसी मनःस्थिति में परमार्थ ही स्वर्ग बन जाता है और दूसरों को सुखी बनाने वाले कार्य अपनी निजी सफलता से बढ़कर आनन्ददायक प्रतीत होने लगते हैं।

ईश्वर की शरीर में जाने की बात भी ऐसी ही है। अदूरदर्शी परमात्मा को कोई व्यक्ति विशेष मानते हैं। और उसे भी उन्हीं दुर्बलताओं से ग्रसित मानते हैं जिनसे कि मनुष्य घिरे रहते हैं। पूजा उपचार के निमित्त प्रयुक्त किये जाने वाले काल्पनिक ईश्वर और सर्वव्यापी निराकार परब्रह्म में भी ऐसा ही, जमीन आसमान जैसा अन्तर रहता है।

इस संदर्भ में शास्त्र कहता है कि−

सर्वभूतस्य मात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ईक्षते योग मुक्तात्मा सर्वत्र सम दर्शनः। −गीता

अर्थात्− सम्पूर्ण प्राणियों में अपने को और अपने को सब प्राणियों में योगीजन देखते हैं। जिन्हें सर्वत्र एक ही तत्व दिखता है वे मुक्तात्मा हैं। वही योगी हैं।

अयमांसर्वभूतेषु भूतात्मानां कृतालयम्। अर्हयेदान मानाभ्यां मैत्राभिन्नेनं चक्षुषा। मनसैतानि भूतानि प्रणमेद बहुमान यत्। ईश्वरो जीव कलया प्रविष्टो भगवानिति॥ −गीता

अर्थात्− सब प्राणियों को मेरी ही आत्मा समझकर उन्हें भिन्न−अभिन्न भाव से देखना, उनकी सेवा सहायता करना, मान देना, इन प्रयोजनों में संलग्न जीव भगवान को प्राप्त करता है।

यच्चक्षुषा न पश्यति, येन चक्षुंषि पश्यन्ति तदेव ब्रह्मत्वविद्धिनेदं यदिदं उपासते। −उपनिषद्

अर्थात्− जो आँखों से नहीं देखा जा सकता। जिसके कारण नेत्र देखते हैं। उसी परब्रह्म को जानना चाहिए। जिसकी पूजा उपासना की जाती है वह ब्रह्म नहीं है।

परमेश्वर की शरण में जाना हो तो इस तरह जाना चाहिए कि उत्कृष्टताओं के समुच्चय परमेश्वर को अपने अन्तरंग और बहिरंग जीवन में ओत−प्रोत कर लें। यदि साकार ब्रह्म से सम्बन्ध जोड़ने की इच्छा हो तो यह विराट् विश्व ही उसकी प्रतिमा है। उसकी पूजा−अर्चा के निमित्त संसार में सदाशयता और सज्जनता की सुसंस्कारिता का अभिवर्धन अपनी समूची सामर्थ्य के अनुरूप करना चाहिए।

प्राणों को अपने में और अपने को प्राणियों में समाया हुआ देखने का अर्थ यह है कि दूसरों के दुःख बँटाने और अपने सुख बाँट देने में अपना सन्तोष और आनन्द निरन्तर चढ़ता चले। जो बरताव दूसरों द्वारा अपने लिए किये जाने की अपेक्षा करते हैं वही हम स्वयं भी दूसरों के लिए करते हैं। साथ ही एक बात का और भी ध्यान रखें कि औसत नागरिक जैसा जीवन क्रम अपनाये। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का यथार्थवादी तत्वज्ञान इस आधार पर नियत है और अपनी बचत के समय श्रम और साधनों को उनके लिए लगा सकना सम्भव होता है जिन्हें कि ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की मान्यता के अनुरूप शरीर और परिवार की तरह अपना माना जाना चाहिए।

दृष्टिकोण में इतनी उदात्त आत्म-भावना या ब्रह्म परायणता का समावेश हो जाने पर ही अन्तःकरण उस ढाँचे में ढलता है जिसके आधार पर कि उच्चस्तरीय तत्वज्ञान को प्रतिपादन तक सीमित न रखकर अपने चरित्र व्यवहार का भी अविच्छिन्न अंग बनाया जा सके।

ऐसे एकात्म भाव के ढाँचे में अपने को ढाल लेने वाले दूसरों को जो परामर्श देते हैं वह सुनने वालों के कानों तक सीमित नहीं रहता और मस्तिष्क को झकझोरता हुआ अन्तराल तक उतर जाता है। इतना ही नहीं, ऐसा भी होता है कि उनका व्यक्तित्व वातावरण में उच्चस्तरीय ऊर्जा बखेरे और उससे परिचित अपरिचित अनेकों अनायास ही सत्प्रेरणाऐं ग्रहण करते और प्रभावित होते चले जायें। ऐसा जीवन ही धन्य है जो स्वयं तरे और अन्य असंख्यों को तारे।

इस स्तर का जीवन कितने दिन जिया गया इस पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है। वे अल्पायु होने पर भी वयोवृद्धों से बढ़कर है और जिनने भारभूत जीवन जिया वे दीर्घायु होते हुए भी बालकों से भी गये बीते अबोध हैं। कहा गया है कि−

तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते।

अर्थात्− तेजस्वियों की आयु कितनी हो गई। इसकी समीक्षा नहीं करनी चाहिए वे तो अजर−अमर होते हैं।


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