यज्ञ का अर्थ है− पुण्य, परमार्थ। उच्चकोटि का स्वार्थ ही परमार्थ है। उससे लोक कल्याण भी होता है और बदले में अपने को भी श्रेय सम्मान सहयोग आदि का लाभ होता है।
गीताकार ने जीवन में यज्ञीय तत्वज्ञान के समावेश करने का बहुत जोर दिया है और कहा है कि यज्ञ विधा की उपेक्षा करने का न लोक बनता है न पर लोक। जो यज्ञ से बचा हुआ खाते हैं। वे सब पापों से छूट जाते हैं और जो अपनी उपलब्धियों को अपने लिए ही खर्च कर लेते हैं वे पाप खाते हैं।
जिस प्रकार नित्य कर्मों में भोजन, शयन, स्नान, मल विसर्जन आदि को आवश्यक माना गया है। उसी प्रकार लोक मंगल के लिए श्रमदान, अंशदान की भी आवश्यकता है। इस संदर्भ में उपेक्षा बरती जाय तो समाज में दुष्प्रवृत्तियाँ बढ़ेंगी और उसका स्तर गिरेगा। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। जिस समाज में वह रहता है उसके प्रभाव से बच नहीं सकता। इसलिए आत्म−कल्याण का प्रयोजन पूरा करने के लिए भी अपनी जीवनचर्या में यज्ञ विद्या को सम्मिलित रखकर चलना चाहिए और उसे यदा−कदा नहीं नित्य नियमित रूप से करना चाहिए।
दैनिक बलिवैश्व प्रक्रिया के पाँच विभागों को पाँच ‘महायज्ञ’ कहा गया है। विशाल आकार−प्रकार से अग्निहोत्रों को जहाँ मात्र ‘यज्ञ’ नाम से पुकारा गया है वहाँ कुछ मिनटों में पूरी हो जाने वाली क्रिया को जरा-सी सामग्री लगने वाली क्रिया को महायज्ञ क्यों कहा गया? इसका सीधा−सा उत्तर है कि बलिवैश्व को मात्र कृत्य ही नहीं जीवन नीति का आवश्यक अंग माना गया है और उसे कभी भी न छोड़ने के लिए कहा गया है। जबकि विशाल यज्ञ जब कभी ही होते हैं और उनका प्रयोजन भी सामयिक समस्याओं एवं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होते हैं जब कि बलिवैश्व को आवश्यक कर्त्तव्यों की श्रेणी में गिना गया है और उन्हें कर लेने के उपरान्त तब भोजन ग्रहण करने का अनुशासन बनाया गया है। साथ ही उसकी परिणति का प्रतिफल भी बहुत आकर्षक बताया गया है।
यों बलिवैश्व का विधान कुछ बड़ा है और उसे पूरा करने के लिए संस्कृत भाषा के निर्धारित मन्त्रों को भी याद करना पड़ता है। पर उतना न बन पड़े तो उसे अति संक्षेप में रसोई पकाने वाली महिला भी बिना किसी कठिनाई के पूरा करती रह सकती है।
शांखायन, आश्वलायन, पराकर, गोभिल, खादिर आदि गुह्य सूत्रों में तथा शतपथ, गोपथ आदि ब्राह्मणों में बलिवैश्व की उपयोगिता एवं विधि−व्यवस्था का निर्देश किया गया है। शांखायन, गुह्य सूत्र के अध्याय (2.) काण्ड 17, सूत्र 4 में कहा गया है कि जो प्रायः सायं वैश्व देव यज्ञ करते हैं वे लक्ष्मी, दीर्घजीवन, यश तथा सुसन्तति प्राप्त करते हैं।
इस कल्प की उपेक्षा करने वालों की भर्त्सना करते हुए कहा गया है कि−
वैश्व देव विहीना ये आतिथ्येन बहिष्कृतया। सर्वे ते नरकं यान्ति काक योनि ब्रजन्ति च॥ −पाराशर स्मृति 1। 57
जो बलि वैश्व नहीं करते। अतिथि सत्कार से विमुख रहते हैं। वे नरक में पड़ते और कौए की योनि में जन्म लेते हैं।
बलि वैश्व में सम्मिलित पांच यज्ञ हैं। उनका परिचय इस प्रकार है।
ब्रह्म−यज्ञ का अथ है− ब्रह्मज्ञान आत्मज्ञान की प्रेरणा। ईश्वर और जीव के बीच चलने वाला पारस्परिक आदान−प्रदान।
देव यज्ञ का उद्देश्य है− पशु से मनुष्य तक पहुँचाने वाले प्रगति क्रम को आगे बढ़ाना। देवत्व के अनुरूप गुण, कर्म, स्वभाव का विकास, विस्तार, पवित्रता और उदारता का अधिकाधिक संवर्धन।
ऋषि यज्ञ का तात्पर्य है− पिछड़ों को उठाने में संलग्न करुणार्द्र जीवन−नीत। सदाशयता के सम्वर्धन की तपश्चर्या।
नर यज्ञ की प्रेरणा है− मानवी गरिमा के अनुरूप वातावरण एवं समाज व्यवस्था का निर्माण। मानवी गरिमा का संरक्षण। नीति और व्यवस्था का परिपालन नर में नारायण का उत्पादन। विश्व मानव का श्रेय साधन।
भूत यज्ञ की भावना है− प्राणि मात्र तक आत्मीयता का विस्तार अन्यान्य जीवधारियों के प्रति सद्भावना पूर्ण व्यवहार। वृक्ष वनस्पतियों तक के विकास का प्रयास।
चूँकि बलिवैश्व को भोजन से पूर्ण करने का विधान है इसलिए वे इसे आसानी से कर सकती हैं। चूल्हे में से पहली बनी रोटी के एक−एक टुकड़े को घी और शकर में मिला कर गायत्री मन्त्र बोलते हुए पाँच आहुतियों के रूप में होम देने की क्रिया जहाँ तनिक−सा समय और तनिक−सा वातावरण धार्मिक बनने की दृष्टि से उसका महत्व असाधारण है।
बलिवैश्व में जिन पाँच आदर्शों का प्रतिपादन पाँच महायज्ञों के रूप में किया गया है उन्हें मानवी गरिमा को समुन्नत बनाने वाले ‘पञ्चशील’ कह सकते हैं बौद्ध धर्म में पंचशीलों का बहुत ही विस्तारपूर्वक वर्णन विवेचन किया गया है। उनका बहुत महत्व−माहात्म्य बताया गया है। इन पंचशीलों को जीवनचर्या एवं समाज व्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न रूपों से वर्गीकृत भी किया गया है। इस प्रकार पंचशीलों के वर्ग उपवर्ग प्रकारान्तर से व्यक्ति एवं विश्व समस्याओं को सुलझाने सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खोलने में महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न करते हैं।
पारिवारिक पंचशीलों में 1. श्रमशीलता 2. सुव्यवस्था 3. मितव्ययिता 4. शिष्टाचार और सहकारिता प्रधान हैं। जिन व्यक्तियों में यह गुण होंगे वे स्वयं सुखी रहेंगे और अपने संपर्क क्षेत्र को प्रसन्न तथा समुन्नत रखेंगे। जिन परिवारों में यह सत्प्रवृत्तियाँ व्यवहृत होती होंगी, उसके सदस्यों का समुन्नत सुसंस्कृत होना सुनिश्चित है।
इसलिए जब अवसर हो तब घर के लोगों को एकत्रित करके समझाते रहना चाहिए कि मनुष्य पेट भरने के लिए ही पैदा नहीं हुआ है। उसे दूसरों का भी ध्यान रखना चाहिए और पिछड़ापन दूर करने तथा सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने में योगदान देना आवश्यक कर्त्तव्य मानकर उनके लिए समय और साधन जुटाते ही रहने चाहिए।
साथ ही बलिवैश्व के पाँच महायज्ञों में जिन पंचशीलों की ओर संकेत हैं उन्हें अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में प्रमुख स्थान देना चाहिए। समग्र सुख शान्ति का यही मार्ग है।