साधना बनाम मनोकामना

November 1985

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साधना का उद्देश्य किसी के सामने गिड़गिड़ाना, झोली पसारना या नाक रगड़ना नहीं है। दीनता न आत्मा को शोभनीय है न परमात्मा को प्रिय। परमात्मा न खुशामद का भूखा है और न है उसे प्रशंसा की आवश्यकता। उसकी महानता अपने आप में अपनी प्रशंसा है। मनुष्यों की वाणी न उसमें कुछ वृद्धि कर सकती है और न कमी। अपने ही बालक के मुख से प्रशंसा कराना किसी मनुष्य को भी अच्छा नहीं लगता फिर परमात्मा जैसे महान के लिए तो उसमें क्या आकर्षण हो सकता है। प्रशंसा करके किसी से कुछ प्राप्त करने का प्रयत्न ओछे दर्जे का कृत्य माना जाता है। उस चंगुल में ओछे लोग ही फँसते हैं और उसे करने के लिए ओछापन ही तैयार होता है। खुशामद व चापलूसी का गोरख−धन्धा उन्हें पसन्द आता है, जो वस्तुतः प्रशंसा के पात्र नहीं। वे अपने चापलूसों के मुँह से अपनी बड़ाई सुनकर खुशी मना लेते हैं। असली न मिलने पर उस आवश्यकता को नकलियों से पूरा कर लेते हैं। भक्त और भगवान के बीच यदि यही खुशामद चापलूसी का धन्धा चले तो फिर समझना चाहिए दोनों की गरिमा गिर गई।

माँगना बुरा व्यवसाय है। चोरी से भी बुरा। चोर दुस्साहस करता है और खतरा मोल लेता है तब कहीं कुछ पाता है। पर भिखारी उतना भी तो नहीं करता। वह बिना कुछ किये ही पाना चाहता है। कर्म विज्ञान को एक प्रकार से वह झुठलाना ही चाहता है। संसार के स्वाभिमानी अपंग और असमर्थ भी स्वाभिमानी होते हैं। कोढ़ी और अन्धे भी कुछ कर लेते हैं। समाज उन्हें कर्तृत्व के साधन तो देता है, पर मुफ्त में बिठा कर नहीं खिलाता। इसमें देने वाले की उदारता भले ही हो पर लेने वाले को ऋण के भार से दबना पड़ता है और दीन बनकर स्वयं स्वाभिमान का हनन करना पड़ता है। यह हानि उस लाभ से बुरी है जो किसी दान से कुछ प्राप्त करके उपलब्ध किया जाता है।

उपासना से पाप नष्ट होने का वास्तविक अर्थ यह है कि ऐसा व्यक्ति जीवन साधना के प्रथम चरण का परिपालन करते हुए दुर्भावनाओं, दुष्प्रवृत्तियों के दुष्परिणाम समझेगा और उनमें सतर्कतापूर्वक वितरण हो जायेगा, पाप नष्ट होने का अर्थ है पाप कर्म करने की प्रवृत्ति का नाश, पर उल्टा अर्थ कर दिया गया पाप कर्मों के प्रतिफल का नाश। कदाचित ऐसी उलटवांसी सही होती तो फिर इस संसार में पाप को ही पुण्य और कर्त्तव्य माना जाने लगता। फिर कोई भी पाप से न डरता। राजदण्ड से बचने की हजार तरकीबें हैं। उन्हें अपना कर अनाचारी लोग सहज ही निर्द्वंद्व निश्चिन्त रह सकते हैं। दैव दण्ड ही एक मात्र बन्धन था सो इन धर्म ध्वजियों ने उड़ा दिया। अब असुरता को स्वच्छंद रूप से फलने−फूलने और फैलाने का पूरा−पूरा अवसर मिल गया। पाप कर्मों के दण्ड से मुक्ति दिलाने का आश्वासन पूजा−पाठ की कीमत पर जिनने भी दिया है उनने मानवीय आदर्शों और अध्यात्म के मूलभूत आधारों के साथ व्यभिचार किया है।

लघुता को विशालता में−तुच्छता को महानता में समर्पित कर देने की उत्कण्ठा का नाम प्रार्थना है। नर को नारायण−पुरुष को पुरुषोत्तम बनाने का संकल्प प्रार्थना कहलाता है। आत्मा को आबद्ध करने वाली संकीर्णता जब विशाल व्यापक बनकर परमात्मा के रूप में प्रकट होती है तब समझना चाहिए प्रार्थना का प्रभाव दिख पड़ा, नर−पशु के स्तर से ऊँचा उठकर जब मनुष्य देवत्व की ओर अग्रसर होने लगे तो उसे प्रार्थना की गहराई का प्रतीक और चमत्कार माना जा सकता है। आत्म-समर्पण को प्रार्थना का आवश्यक अंग माना गया है।

एक शराबी ने नशे में धुत्त होकर किसी के हाथों अपना मकान सस्ते दाम में बेच डाला होश आया तो अदालत में अर्जी दी कि नशे में होश हवाश ठीक न होने के कारण वह बिक्री की थी। अब होश में आने पर उस इकरार नामे से इनकार करता हूँ। पूजा, प्रार्थना के समय लोग न जाने क्या− क्या स्तुति, प्रार्थना करते हैं। ‘‘मैं तेरी शरण में आया हूँ, तेरा ही हूँ, तेरे चरणों में पड़ा हुआ हूँ, मेरा तो तू ही है। तेरे सिवा मेरा कौन है।” आदि आदि। वे इन शब्दों का अर्थ भी नहीं समझते और न फलितार्थ। जो शब्द कहे जा रहे हैं यदि वे समझ−बूझकर होश−हवाश में कहे गये होते तो जरूर उस स्थिति के अनुरूप जीवन क्रम ढालने और विचारों तथा कार्यों में उनका समावेश करने का प्रयत्न किया गया होता। पूजा स्थल से निकलते ही−जब जब प्रार्थना कथन को कार्यान्वित होने की आवश्यकता अनुभव होती है तब सब कुछ बहुत कठिन प्रतीत होता है। होश में आये हुये शराबी की तरह तब उस कथनी को करनी में परिणति कर सकने की हिम्मत न होने से यही कहना पड़ता है उस इकरार नामे से इनकार करता हूँ जो पूजा के समय सब कुछ भगवान को समर्पण करने वाली शब्दावली के साथ कहा गया था।

प्रार्थना में यही कामना जुड़ी रहनी चाहिए कि परमात्मा हमें इस लायक बनाये कि उसके सच्चे भक्त अनुयायी एवं पुत्र कहला सकने का गौरव प्राप्त करें। परमेश्वर हमें यह शक्ति प्रदान करे जिसके आधार पर भय और प्रलोभन से मुक्त होकर−विवेकसम्मत कर्त्तव्य पथ पर साहसपूर्वक चल सकें और इस मार्ग में जो भी अवरोध आवें उनकी उपेक्षा करने में अटल रह सकें। कर्मों के फल अनिवार्य हैं। अपने प्रारब्ध भोग जब उपस्थित हों तो उन्हें धैर्य पूर्वक सह सकने और प्रगति के लिये परम पुरुषार्थ करते हुए कभी निराश न होने वाली मनःस्थिति बनाये रह सकें। भगवान हमारे मन को ऐसा निर्मल बना दें कि कुकर्म की ओर प्रवृत्ति की उत्पन्न न हो और हो भी तो उसे चरितार्थ होने का अवसर न मिल पाये। मनुष्य जीवन की सफलता के लिये गतिशील रहने की पैरों में शक्ति बनी रहे ऐसी उच्चस्तरीय प्रार्थना को ही सच्ची प्रार्थना के रूप में पुकारा जा सकता है, जिसमें धन, सन्तान, स्वास्थ्य, सफलता आदि की याचना की गई हो और जिसमें अपने पुरुषार्थ कर्त्तव्य के अभिवर्धन का स्मरण न हो ऐसी प्रार्थना को याचना मात्र कहा जायेगा। ऐसी याचनाओं का सफल होना प्रायः संदिग्ध ही रहता है।

भगवान से माँगने योग्य वस्तुयें श्रद्धा, हिम्मत, श्रमनिष्ठा, सच्चरित्रता, करुणा, ममता, पवित्रता और विवेकशीलता जैसी वे सद्भावना एवं सत्प्रवृत्तियाँ हैं जो विपन्नता को सम्पन्नता में बदल देती हैं और अभाव रहते हुए जिनके कारण विपुल सम्पन्नता का सुख अनुभव होता रहता है। प्रगति और सफलता का सारा आधार सद्गुणों पर अवलंबित है। उनके बिना अकस्मात किसी प्रकार कोई लाभ मिल भी जाय तो उसे सम्भालना और स्थिर रखना सम्भव न होगा। सदुपयोग केवल उस वस्तु का किया जा सकता है जो उचित मूल्य देकर उपार्जित की गई है। अनायास बिना परिश्रम के मिली हुई सम्पत्ति का अपव्यय ही होता है और उससे अनेक व्यसन और उद्वेग पैदा होते हैं जिनके कारण वह उपलब्धि सुखदायक न होकर अनेक विपत्तियाँ और विकृतियां उत्पन्न करने का कारण बन जाती हैं। भगवान जिस पर प्रसन्न होते हैं उसे सद्गुणों का उपहार देते हैं क्योंकि वे अपनों आप में इतने महान हैं कि यह साधन सम्पन्नता न भी हो तो भी केवल उन सद्गुणों की सम्पदा के आधार पर मनुष्य सुखी समुन्नत और सम्मानित जीवन जी सकता है। यही दिव्य संपदायें भगवान से मांगनी चाहिए। यही हैं वे विभूतियाँ जिन्हें वे अपने भक्तों को दया करते हैं।

भौतिक सफलतायें हमें अपनी भुजाओं और कलाइयों से माँगनी चाहिए। अपनी अकल को तेज करना चाहिए और सूझ-बूझ से काम लेना चाहिए। अवरोध उत्पन्न करने वाली त्रुटियों को सुधारना चाहिए। सफलता का द्वारा खुल जायेगा।

भगवान स्वयं अपनी विधि-व्यवस्था में बँधे हुए हैं। उन्होंने इस सम्बन्ध में अपने आपके साथ तक कोई रियायत नहीं की, अपने सगे सम्बन्धियों तक को छूट नहीं दी। कर्मफल की व्यवस्था को ही सर्वत्र प्रधान रखा। ऐसा न होता तो कोई पुरुषार्थ करने के लिए तैयार ही क्यों होता और कुकर्मों से बचने के लिए किसी को आवश्यकता ही क्या पड़ती? प्रार्थना मात्र से सारी सुविधायें मिल जाती तो फिर कठोर, कर्मठता के लिए कटिबद्ध होने की इच्छा ही क्यों होती?


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