इतना प्यार बहाओ जग में जैसे नवसूरज की लाली। उसमें जो डूबे वह समझे- आत्म-सुधा निधि मैंने पा ली॥
इतनी बांटो कोमलता, कि सभी उपवन में जाना भूलें। करुणामय उद्गार हमारे बढ़कर आसमान को छू लें॥
ईश्वर ने दी मानस बगिया, और मनुज है इसका माली॥
इतना बहे प्रकाश- किसी को ठोकर लगे न अपने आगे। इतनी हो तत्परता- दामिनी भी अपनी पुकार पर जागे॥
राहगीर पूछें- किसने यह लाल-मशाल जगत हित बाली॥
इतना हो सान्निध्य सुखद, अपनापन परिभाषा पा जाये। व्यथा किसी की सुनते-सुनते, अपना अंतरतम भर आये॥
संवेदन के पुष्प भार से झुक जाये इस उर की डाली॥
इतना हो विश्वास अडिग जैसे नभ, धरती और सितारे। आस्था की गहराई को लख सागर मरे शरम के मारे॥
हो न कहीं दीवार छद्म की, टूटे संदेहों की जाली॥
मिलें न यदि स्तांतिकण-गम नहीं- आंसू से ढालेंगे मोती। सूर्योदय तक कभी हमारी अंतर्ममता रहे न सोती॥
अपने घर आकर भी झोली किसी व्यथित की रहे न खाली॥
ऐसा जीवन जिएं सभी तो स्वर्ग उतर आये धरती पर। सही अर्थ में बने ‘मनुष्य’ -आज का भूला और भ्रमित नर॥
मानव में देवत्व और जीवन में आ जाये खुशहाली॥
*समाप्त*