मनोबल का अभिवर्धन और सदुपयोग

November 1985

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मनुष्य की काया मजबूती की दृष्टि से बड़े प्राणियों की तुलना में दुर्बल भी कही जा सकती है। पर उसका मनोबल ऐसा विलक्षण है कि यदि प्रयत्नपूर्वक शरीर को सुदृढ़ बनाने में लग जाय तो उससे कुछ से कुछ बन सकता है। जिनने विभिन्न प्रकार की बलिष्ठताओं सम्बन्धी कीर्तिमान स्थापित किये हैं, उनमें से अधिकाँश ऐसे थे जिन्हें आरम्भिक दिनों में गया−गुजरा ही माना जाता था पर अपने मनोबल का उपयोग करके आश्चर्यजनक प्रगति कर सकने में समर्थ हुए।

हरियाणा के चन्दगीराम आरम्भिक दिनों में क्षय से बुरी तरह ग्रसित थे। योरोप के सैण्डो जुकाम से बुरी तरह पीड़ित रहते थे और शरीर हड्डियों का ढाँचा मात्र था पर जब उन्होंने अपने शरीर को सम्भालने का निश्चय किया और सुधार के नियमों को दृढ़तापूर्वक कार्यान्वित करने लगे तो संसार के माने हुए पहलवानों में उनकी गणना होने लगी और स्थिति में काया−कल्प जैसा परिवर्तन हो गया।

कालिदास और वरदराज युवावस्था तक मूढ़मति समझे जाते थे विश्व विख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टीन तक की बुद्धि आरम्भिक दिनों में बहुत मोटी थी किन्तु इन लोगों ने जब अपने बुद्धि पक्ष में तीक्ष्णता लाने का निश्चय किया तो उनकी विद्वता प्रथम श्रेणी के मनीषियों में गिनी जाने लगी। ओलंपिक खेलों और सरकसों में अद्भुत काम करने वाले−कीर्तिमान स्थापित करने वाले आरम्भ से ही वैसी स्थिति में नहीं थे। उनने अपने को किसी विशेष ढाँचे में ढालने का सच्चे मन से प्रयत्न किया और उस स्थिति तक जा पहुँचे जिसे देखकर साथियों को उनकी प्रगति के पीछे कोई जादू चमत्कार दिखने लगा।

अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन, दयनीय दरिद्रता वाले परिवार में उत्पन्न हुए। उपयुक्त वातावरण और साधन न होते हुए भी ऊँचे दर्जे के वकील बने राजनीति में प्रवेश किया तो चुनावों में 13 बार हारे। इतने पर भी उनने अपना मन छोटा न होने दिया। मनोबल स्थिर रखा और प्रयत्नों में ढील नहीं की। अन्ततः अमेरिका के अद्वितीय प्रतिभावान राष्ट्रपति बन सके। इन अमेरिकी राष्ट्रपतियों में जार्ज वाशिंगटन और गिरफींटा जैसों को पैतृक सुविधा साधन नहीं मिले। वरन् अभावों और प्रतिकूलताओं से जूझते हुए− अपना रास्ता आप बनाते हुए आगे बढ़ सके।

इतिहास के पृष्ठ पलटे जाँय तो सुविधा साधनों के आधार पर व्यक्तित्व का विकास करने वाले लोग बहुत ही कम मिलेंगे। वे सुविधाओं की बहुलता का विलासी उपयोग करने में ही व्यक्तित्व की दृष्टि से हेय और हीन बनते गये हैं। प्रगतिशीलों की जीवन गाथा बताती है कि मनोबल और साहस ही छोटी परिस्थिति वालों को प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँचाने में समर्थ हुए हैं। जिनने अपने ऊपर नियमित व्यवस्था दृढ़ता और साहसिकता का पल्ला पकड़ा उनके प्रगति पथ को कोई भी अवरुद्ध न कर सका।

दृष्टि पसार कर देखा जाय तो गये गुजरे स्तर का जीवनयापन करने वालों में से अधिकाँश ऐसे रहे हैं जिनने अपने व्यक्तित्व को उठाने वाले गुण कर्म, स्वभाव को प्रगतिशील बनाने में ध्यान नहीं दिया। अपने को हीन मानते रहे और साहस भरे नये कदम उठाने से कतराते रहे। दूसरों का मुँह ताकते रहे और यह आशा लगाये बैठे रहे कि अन्य लोग कृपा कर उनकी सहायता करेंगे और अपने कंधे पर रखकर ऊँचा उठावेंगे। अन्ततः उनकी यह आशा निराशा में ही परिणत होती रही।

कितने ही व्यक्ति देवताओं की मनुहार करके अपने ऊपर सुयोग बरसाने की प्रतीक्षा करते रहते हैं। अवगति का दोष ग्रह नक्षत्रों या भाग्य को देते रहते हैं। पर इससे बनता क्या है। मात्र आत्म-प्रवंचना करके किसी प्रकार उठती उमंगों का समाधान कर चुप बैठते और दिन काटते हुए जिन्दगी बिता देते हैं।

आत्म−हीनता मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। उसके रहते भविष्य अन्धकारमय ही दिखता रहता है और आशा का प्रकाश किसी कोने से उठता नहीं दिखता। ऐसे लोग या तो दीन हीन, शोषित प्रताड़ित परिस्थितियों के साथ समझौता करके मौत के दिन पूरे करते हैं या विवशता में कोई चारा न देखकर पलायनवादियों की तरह मोर्चा छोड़कर भाग खड़े होते हैं और साधु बाबा जैसा कोई विचित्र वेश बनाते हैं अथवा आत्म-हत्या कर बैठने जैसे कोई अविवेक पूर्ण कदम उठाते हैं।

धन को बड़ी वस्तु माना जाता है। कई शरीर सौष्ठव और शिक्षा के प्रमाण पत्रों को महत्व देते हैं। किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि मनोबल के अभाव में अन्य सभी उपलब्धियां धूल के बराबर हैं। उनके सहारे मनुष्य बहुत थोड़ी सुविधाएँ अर्जित कर सकता है। किन्तु मनोबल के प्रखर होने पर उसका हर कदम प्रगति की दिशा में उठता है।

यह मनोबल किसी के द्वारा अनुदान में नहीं मिलता। अपनी व्यक्तिगत सूझ−बूझ के सहारे ही उसे बढ़ाया जाता है। मनोबल का प्रथम प्रयोग और अभ्यास अपने दुर्गुणों से जूझने और सद्गुणों को बढ़ाने के माध्यम से किया जाता है। लोग यह भूल जाते हैं कि छोटी−छोटी दुर्बलताएँ मनुष्य को उसी प्रकार छूँछ बना देती हैं जैसी कि फूटे घड़े में बूँद−बूँद रिसते रहने पर उसे खाली कर देता है और इसके विपरीत बड़ा कण जमा करने में मन भर का बड़ा पात्र भर जाता है।

दुर्गुणों में चोरी बेईमानी जैसे दोषों की प्रमुखतया निन्दा की जाती है। किन्तु सच पूछा जाय तो आलस्य और प्रमाद सबसे बड़े दुर्गुण हैं। अस्त−व्यस्तता और अव्यवस्था के रहते व्यक्ति न तो प्रतिभावान बन सकता है और न अन्यान्यों पर अपनी छाप छोड़ सकता है। भले ही वह कितना ही योग्य क्यों न हो। वह जिस काम में भी हाथ डालेगा उसमें खामियाँ ही खामियाँ भरी दृष्टिगोचर होंगी। ऐसे लोगों को कोई दायित्वपूर्ण काम सौंपने में भी लोग कतराते हैं। और बेईमान न होने पर भी अव्यवस्था के कारण उसे गये−गुजरा मानते हैं। ऐसे लोग एक प्रकार से अपनी प्रतिष्ठा ही गँवा बैठते हैं। उन्नति के अवसर प्राप्त करना तो दूर की बात रही। जो अपनी खामियों पर तीखी दृष्टि नहीं रखता और उन्हें सुधारने का प्रयास नहीं करता समझना चाहिए कि उसका विधाता सदा बायाँ प्रतिकूल ही रहेगा।

मनोबल की अभिवृद्धि का महत्व यदि समझ लिया गया तो समझना चाहिए कि आत्म−सन्तोष और लोकसम्मान का सुनिश्चित मार्ग मिल गया। मनोबल बढ़ाने के लिए सर्वप्रथम इसी अखाड़े में उतरना पड़ता है जिसमें निजी व्यक्तित्व को निखारना प्रमुख है।

विज्ञजनों का यह कथन शत−प्रतिशत सही है कि ईश्वर केवल उनकी सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैं। जो अपने प्रति उपेक्षा बरतते हैं और हीन भावनाओं से ग्रसित रहते हैं, उनका साथ तो भाग्य भी छोड़ देता है। परखने वालों को दोष देना व्यर्थ है। यदि अपना दाम खोटा होगा तो उसे हर जगह तिरष्कृत होना पड़ेगा। कोई मूर्ख या ब्रह्मज्ञानी ही उन्हें अपना सकता है।

बाहरी प्रतिकूलताओं पर विजय प्राप्त करना कठिन नहीं है। उनकी उपेक्षा की जा सकती है। असहयोग का रुख अपनाया जा सकता है। विरोध सफल होता न दिखे तो अपने को उस माहौल से हटाकर दूसरा स्वतन्त्र रास्ता अपनाया जा सकता है। आवश्यक नहीं कि जिन व्यक्तियों या परिस्थितियों के साथ तालमेल नहीं बैठता, उनके साथ बँधा ही रहा जाय। जो ढर्रा अनुकूल नहीं पड़ता उससे बदलने में आवश्यक संकोच बरतने के लिए अपने को बाधित माना जाय। यदि अपनी ओर से किन्हीं दुर्गुणों के कारण विसंगति नहीं बैठ रही है तो आत्म समीक्षा के उपरान्त उन परिस्थितियों से अपने को अलग कर लेना चाहिए जो अपने को रास नहीं आती।

अपनी प्रतिभा, सूझ−बूझ और तत्परता ऐसी होनी चाहिए जो सम्बन्धित व्यक्तियों को नरम करने और मोड़ने में सफल हो सके। पर यदि प्रयासों का उपयुक्त परिणाम नहीं निकलता और निरन्तर कुढ़ते या असन्तुष्ट रहने की अपेक्षा यही अच्छा है कि उस घेरे से अपने को बाहर कर लिया जाय और ऐसा रास्ता अपनाया जाय जो बार−बार न भी बदलना पड़े। हर परिवर्तन से पूर्व उसके पक्ष विपक्ष में चिन्ता, अधिक से अधिक गहरा चिन्तन हो सकता हो उसे कर लेने के उपरान्त ही नया कदम उठाना चाहिए और उस नये प्रयोग में इतनी सूझ−बूझ और प्रामाणिकता का परिचय देना चाहिए कि बदलने के कारण जो चर्चा का माहौल बना है उस कालिख पर सफेदी पुत सके।

स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि मनःस्थिति के अनुरूप परिस्थितियाँ बनती हैं। परिस्थितियों की प्रतीक्षा में बैठे रहने की अपेक्षा यह कहीं सरल और कहीं सफल होता है कि अपने को अधिकाधिक सद्गुणी बनाया जाय। व्यक्तित्व को उस स्तर तक पहुँचाया जाय जिस तक पहुँचने पर किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ने की सम्भावना सुनिश्चित होती है।

व्यक्तित्व का परिष्कार−भाग्योदय का सबसे सही तरीका है। जो प्रामाणिक है, वे न तो दुत्कारे जाते हैं। न असफल रहते और न उपेक्षा के भाजन बनते हैं। हीरा अन्ततः उनके हाथों ही जा पहुँचता है जो उसका मूल्य समझते और उपयोग जानते हैं। यदि अपना मनोबल आत्म−निरीक्षण, आत्म−सुधार, आत्म−निर्माण और आत्म−विकास पर केन्द्रित किया जा सके तो प्रतीत होगा कि आन्तरिक काया−कल्प हो गया। दुष्प्रवृत्तियों का परित्याग करते−करते उस स्थान में खालीपन नहीं रहता वहाँ सत्प्रवृत्तियाँ अपने पैर जमाती हैं और अपने को प्रामाणिक एवं जिम्मेदार घोषित करती हैं। ऐसे व्यक्तियों की हर जगह माँग है। उन्हें कोई छोड़ना नहीं चाहता वरन् प्यासे की तरह अपनी सहायता के लिए ढूँढ़ता रहता है।

जो सतर्कता, सूक्ष्म बुद्धि सूझ−बूझ अपने को परिष्कृत करने में लगाई गई है, उसी का प्रयोग जब बाहरी कामों में होता है तो वे इतने सुन्दर बन पड़ते हैं कि कर्ता की प्रतिष्ठा में चार चाँद लगा दें। ऐसे लोगों का ईर्ष्यालु भी कुछ बिगाड़ नहीं सकते। कारण कि वे प्रतिद्वन्द्विता में ठहरते नहीं। थोथे गाल बजाते हैं। उनकी निन्दा तथा अड़ंगेबाजी कसौटी पर खोटी सिद्ध होने के कारण उतना अहित नहीं कर सकती−वैसा वातावरण नहीं बना सकती जो अपनी गरिमा को चोट पहुँचा सके।

हर क्षेत्र के प्रगतिशीलों की जीवन गाथाएँ पढ़ने पर प्रतीत होता है कि उनने अपने क्रिया−कृत्य के साथ समग्र तत्परता और तन्मयता बरती है। उद्देश्य ऊँचे रखे हैं और अपनी गतिविधियों को आदर्शों में च्युत नहीं होने दिया। ओछे मनुष्य धूर्तता अपनाकर जो तात्कालिक सफलता प्राप्त कर लेते हैं वह उनकी गरिमा को गिराती जन सहयोग से वंचित करती और भविष्य को अन्धकार मय बनाती है। ऐसे अनीतिपूर्ण लाभ, वस्तुस्थिति को प्रकट किये बिना नहीं रहते और अन्ततः घाटे में ही रहते हैं।

प्रगति की अभिलाषा उचित है। हर कोई अपनी लौकिक एवं पारलौकिक सुख−शान्ति चाहता है और उत्कर्ष की महत्वाकाँक्षाएँ सँजोये रहता है। यह न तो अनुचित है, न कठिन। मनुष्य अपने आपको सज्जन, सुव्यवस्थित और प्रामाणिक बना ले तो समझना चाहिए कि उसने आगे बढ़ने का सही रास्ता पा लिया और यदि उसने अपनी गतिविधियों को शालीनता और सूझ−बूझ से भरी−पूरी रखा तो अपने प्रयास ही उसे उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचा देंगे। ऐसे लोगों को सुयोग्य जनों का भावभरा सहयोग भी मिलता है कि स्थिति ऐसी हस्तगत होती है जिसे सराहनीय ही नहीं अनुकरणीय भी कहा जा सके।

साहस दिखाने और श्रम की विवशता हर स्तर के व्यक्ति के सामने रहती है। पराक्रम किये बिना किसी का गुजारा नहीं। समझ से काम लिये बिना तो पशु पक्षियों का भी काम नहीं चलता, फिर मनुष्य जीवन में इनकी अनिवार्यता तो माननी ही पड़ेगी।

बात इतनी भर है कि अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्टता आदर्शवादिता का दूरदर्शी सूझ−बूझ का समुचित मात्रा में समावेश किये रखा जाय। अपने साथ कड़ाई करने और दूसरों के साथ नरमी बरतने की नीति अपनाई जाय। महापुरुष की जीवन गाथाओं से उनके कर्तृत्व और व्यक्तित्व के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई महानता को गम्भीरता पूर्वक समझने का प्रयत्न किया जाय। जो व्यक्तित्व की दृष्टि से खरा है वह बहुमूल्य सोने या हीरे की तरह है। उसकी गरिमा और कीर्ति अक्षुण्ण है। इतनी अक्षुण्ण कि मरने के उपरान्त भी अपनी गाथा से अनेकों का उपयोगी मार्गदर्शन करती रहती है।


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