सृष्टा की अगम्य संरचना

November 1985

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शरीर के अन्तराल में जीवनकोश, तन्त्रिकाएँ, ऊतक, द्रव रसायन, रक्त कण, हारमोन्स, जीन्स प्रभृति आँख से न दिख पड़ने वाले असंख्य पदार्थों से यह शरीर बना है। इतने पतले मोतियों से यह माला गुंथी है कि देखकर आश्चर्य होता है कि बनाने वाले औजार और हाथ कितने नन्हें होंगे। चावल के दाने पर गायत्री मन्त्र लिख देने वाले कई कारीगरी अपनी कृतियों को जिसे भेंट करते हैं उससे अच्छा पुरस्कार पाते हैं। पर चावल की तरह निर्जीव नहीं, अरबों−खरबों घटकों को निरन्तर क्रमबद्ध गतिशीलता बनाये रखने वाले जिन जीव कणों की रचना हुई है उसे देखते हुए लगता है कि इनका सृजेता कोई बहुत ही लघु आकार का होगा।

पशु पक्षियों और चलते−फिरते गतिशील प्राणियों की बात छोड़िये मिट्टी पानी में मिले हुए सूक्ष्म जीवी, बैक्टीरिया और वायरस जैसे अदृश्य किन्तु शरीर में उथल−पुथल मचा देने वाले दैत्य जैसी सामर्थ्यों से भरे−पूरे अदृश्य जीव कणों की संरचना और कार्य पद्धति पर जब नजर डाली जाती है तो लगता है सृजेता भी प्रायः इतना ही छोटा होगा। परमाणुओं के भीतर एक समूचा सौर मण्डल नियोजित करके उसे भी नियमित गति से चलने वाला−और विस्फोट के समय प्रलय खड़ी कर देने वाला तत्व कितना छोटा है कि उसका परिचय अनुमान के आधार पर ही हस्तगत हो सका है। इसीलिए उसे नियन्ता की “अणोरणीयान्” अणुओं का भी अणु, छोटे से भी छोटा कहा गया है।

किन्तु जब दूसरी ओर नजर पसार कर देखते हैं तो ब्रह्माण्ड की विशालता देखते हुए लगता है कि इतने बड़े−बड़े घटक जिस कुम्हार ने अपने चाक को घुमाते हुए बनाये होंगे उसका कारखाना और आवा कितना बड़ा होगा। जिसमें सृजन ही नहीं होता वरन् उनमें से किसी को भी चैन से न बैठने देने वाली−निरन्तर द्रुतगति से दौड़ने वाले पिण्डों में असीम सामर्थ्य भर दी है वह स्वयं आकार में कितना बड़ा होगा। उसकी कारीगरी एवं कुशलता देखते हुए सहज विश्वास होता है कि उसे ‘महतो महीयान्’ की उपमा दिया जाना सर्वथा सार्थक है।

ब्रह्माण्ड की विशालता की कल्पना करने मात्र से बुद्धि थकित और चकित रह जाती है और सोचना पड़ता है कि इतने विशाल घटकों की संरचना और उनकी बिना परस्पर टकराये निरन्तर गतिशील घुड़दौड़ की व्यवस्था बनाने में कितनी कारीगरी और दूरदर्शिता का समावेश हुआ है। उसे जाँचना, समझना तो दूर कल्पना मात्र कर सकने में मानवी बुद्धि अपने को असमर्थ पाती है। जिधर भी आँख उठाकर देखते हैं भीतर और बाहर आश्चर्य ही आश्चर्य दृष्टिगोचर होता है। गीताकार ठीक ही कहता था ‘आश्चर्यवत् पश्यति कश्चिदेन’।

यह देखना और कहना तथ्य को देखते हुए इतना स्वल्प है कि उसे समग्रता की तुलना में राई−रत्ती का भी लाख करोड़वाँ भाग कह सकते हैं।

पदार्थ विज्ञान की वर्णमाला पढ़ने वाले जब ब्रह्माण्ड की गुरुता और पिण्ड की लघुता को देखते हैं तो अपनी तोतली वाणी में छोटे बच्चों की तरह कुछ ऐसा बोलते हैं जो स्वयं उनकी समझ में नहीं आता। फिर दूसरों को वे किस प्रकार समझा सकेंगे।

हर कोई जानता है कि प्राणी में जीवन सत्ता काम करती है। उसका अन्त होते ही मृत्यु घोषित कर दी जाती है पर यह जीवन आखिर है क्या? इसका जान सकना अभी तक उनके लिए सम्भव न हो सका। यह कह देना सरल है कि मनुष्य एक चलता−फिरता पेड़−पौधा है। शरीर के अंत के साथ ही उसका अन्त हो जाता है। पर यह बात भी गले नहीं उतरती क्योंकि मरने के बाद यदि शरीर को किसी उपयुक्त विधि से समाप्त न किया जाय तो उसके भीतर से ही असंख्य छोटे−बड़े कृमि उत्पन्न हो जाते हैं और काया के सरंजाम को स्वयं ही खा−पीकर वह बराबर कर देते हैं। जब मृत शरीर में अनेक प्राणियों का जन्म हो सकता है तो उसे जड़ पदार्थ कैसे कहा जाय? और यदि शरीर के रासायनिक पदार्थों को जीवन स्रोत कहा जाय तो मृत शरीर फिर पूर्ववत् काम करने योग्य क्यों नहीं रहता? जीवन की पहली चेतना की विलक्षणता की अभी तक कोई व्याख्या नहीं की जा सकी तो उसकी सत्ता का स्रोत और भविष्य का विवेचन कर सकना तो और भी कठिन है। यन्त्र उपकरणों, आविष्कारों के जो छोटे−मोटे खिलौने बन पड़े हैं उन पर विज्ञान जगत को अहंकार करना ऐसा ही है जैसा गीली बालू का महल बनाने वाले का अपने को बहुज्ञ इंजीनियर मानना।

प्रकृति जड़ है और यह सारा उसी ने अनायास ही बनाकर खड़ा कर दिया है। यदि ऐसा है तो उसके भीतर परस्पर पूरक और सहयोग सन्तुलन बनाये रहने वाली क्षमता किस प्रकार उत्पन्न हो गई। अनगढ़ और निर्जीव वस्तुएँ घर में भी आये दिन जरा से आघात से टूटती−फूटती रहती हैं। फिर इतने छोटे और इतने बड़े घटकों में निरन्तर टकराव होना चाहिए था व क्यों नहीं होता? शरीर के जीवकोश और ब्रह्माण्ड के ग्रह नक्षत्र आपस में टकराते क्यों नहीं? अपनी−अपनी निर्धारित कक्षा पर नियत चाल से क्यों कर चलते रहते हैं। यदि प्रकृति निर्जीव है तो उसकी कृतियां भी ‘घुणाक्षर न्यान’ के अनुसार जैसी−तैसी बनानी चाहिए और उनके बीच कोई पारस्परिक तालमेल नहीं होना चाहिए जबकि ‘इकालॉजी’ के सिद्धान्त को सर्वत्र लागू हुआ देखते हैं। ऐसी दशा में यह कहना कि सृष्टि क्रम प्रकृति द्वारा स्वयमेव संचालित हो रहा है, इसमें किसी चेत सत्ता का दखल होने की आवश्यकता नहीं पड़ी। यह कथन सर्वथा उपहासास्पद ही कहा जा सकता है।

शरीर के जीवकोश जल्दी−जल्दी मरते और नई वंश वृद्धि करते हुए रिक्तता की पूर्ति करते रहते हैं। एक का दूसरे घटक के साथ दूरदर्शिता पूर्ण सहयोग है तभी जीवन क्रम चल पाता है।

ब्रह्माण्ड की गतिविधियों पर तनिक-सी दृष्टि डालने पर प्रतीत होता है कि यह सब कितना जटिल और कितना अद्भुत है। अपने सौर मण्डल को ही लें। उसके ग्रह और उपग्रह कितनी चमत्कारी छटा दिखाते हैं कि उसकी विलक्षणता किसी जादूगर के तमाशे जैसी हैरत में डालने वाली प्रतीत होती है।

सूर्य पृथ्वी से कितनी दूर है पर उसकी किरणें ही यहाँ आकर जीवन और हरितमा की परिस्थितियाँ प्राप्त करती हैं। ब्रह्माण्डीय किरणों की बौछार से पृथ्वी अपना सन्तुलन न गँवा बैठे इसके लिए उसके ऊपर एक से एक अद्भुत कवच चढ़े हुए हैं। उत्तर ध्रुव अंतर्ग्रही अनुदानों में से जितने उपयोगी हैं उतने अपने पेट में ले जाता है और उपयोग करने के बाद जो कचरा बचता है उसे दक्षिण ध्रुव के द्वारा निखिल अन्तरिक्ष में धकेल देता है। यदि यह व्यवस्था न होती तो पृथ्वी भी अन्य निर्जीव पिण्डों की तरह ही एक होती और यहाँ जो अनुपम सौंदर्य एवं वैभव बिखरा पड़ा है उसका कहीं अता−पता भी न होता।

सूर्य अपने साथ नौ ग्रह और 43 चन्द्रमाओं का परिवार साथ लेकर एक महासूर्य की परिक्रमा के लिए निकला है। यह यात्रा लाखों वर्षों में पूरी होगी। इस बीच कोई बाल−बच्चा बिछुड़ न जाय इसलिए उन सबको अपने साथ एक चुम्बकीय रस्सी से बाँध रखा है। इतना ही नहीं उनमें क्रियाशीलता बनाये रखने के लिए आवश्यक ऊर्जा भी भेजता रहता है।

पृथ्वी से सूर्य 109 गुना हैं। दोनों के बीच की दूरी 93000000 मील है। सूर्य की परिक्रमा वह एक वर्ष में पूरी करती है। उसमें उसकी गति प्रति घण्टा 100191 मील होती है। समूचे सौर मण्डल का व्यास 1 शंख 18 अरब किलोमीटर है। इतने क्षेत्र की साज सम्भाल रखे रहने की जिम्मेदारी अपने सूर्य की है। सौर परिवार न केवल सूर्य से बंधा है वरन् उनके सम्बन्ध परस्पर भी इतने घनिष्ठ हैं कि बिना किसी टकराव के वे परस्पर एक दूसरे की अनेकों प्रकार से सहायता करते रहते हैं।

समूचा ब्रह्माण्ड कितना बड़ा है। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि आसमान में जो तारे दिख पड़ते हैं वे हम से लाखों प्रकाश वर्ष दूर हैं। प्रकाश वर्ष एक पैमाना है जिसे प्रकाश की चाल एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील के हिसाब से माना जाता है। इस हिसाब से एक दिन, एक महीना या एक वर्ष कितनी दूरी का बोध है। इसका हिसाब लगाने में ढेरों कागज खप जायेगा। फिर इतने प्रकाश वर्षों का तो कहना ही क्या जितनी कि दूरी उन सबके बीच में है।

ब्रह्माण्ड तेजी से फूल और फैल रहा है। उसके मध्यवर्ती करोड़ों निहारिकाएं और उन निहारिकाओं में करोड़ों सौर मण्डलों का होना। इतने पर भी उन सबका एक दूसरे से दूर हठते आगे बढ़ते जाना यह असमंजस उत्पन्न करता है कि यह फुलाव और फैलाव आखिर कितना आगे तक बढ़ेगा और उसके लिए अन्तरिक्ष की विशालता कितनी होनी चाहिए। सन्तोष उसी सिद्धान्त से होता है कि ब्रह्माण्ड की बनावट गोलाई की है इसलिए फैलते चलते हुए निहारिका मण्डल और सौर मण्डल भी परिभ्रमण की गति अपना लेंगे और एक सीमित अन्तरिक्ष में ही चक्कर काटते रहेंगे।

ब्रह्माण्ड में निहारिकाओं में अभी अनगढ़ मसाला भरा पड़ा है। उनमें विस्फोट हो सकता है और नये सौर मण्डलों की सृष्टि हो सकती है वर्तमान ग्रह-नक्षत्रों में से कितनों की ही स्थिति पृथ्वी जैसी भी हो सकती है और उन में साधारण जीवधारियों से लेकर−मनुष्य से भी अधिक ज्ञान विज्ञान के धनी हो सकते हैं। यह प्रश्न भी विचाराधीन है कि ब्रह्माण्ड भर के बुद्धिमान मनुष्यों में परस्पर तालमेल बैठने से वर्तमान सृष्टि में से सजीव और निर्जीव पिण्डों की गतिविधियों में असाधारण परिवर्तन हो सकता है। स्थिति को देखते हुए उस पुरातन मान्यता को भी बल मिलता है जिसके अनुसार कि लोक-लोकान्तरों में अन्य सशक्त देवताओं की उपस्थिति अन्य लोकों में मानी गई है और उनकी सहायता मनुष्यों को मिलते रहने की बात कही गई है। ग्रहों की निहारिकाओं की उथल−पुथल से पृथ्वी वालों को क्या लाभ मिलता है और किन संकटों की आशंका रहती है। इस संदर्भ में ब्लैक होल, धूमकेतु आदि एक से एक बढ़कर आश्चर्यजनक रहस्य भौतिक विज्ञानियों की पकड़ में आते जा रहे हैं। और भविष्य में अन्तरिक्ष की अधिक शोध बन पड़ने पर मनुष्य की ससीमता असीम हो जायगी।

यहाँ तो हम सबको इतना ही जानना पर्याप्त होगा कि लघुतम पिण्ड घटकों और विशालतम ब्रह्माण्ड सदस्यों की संरचना करने वाली उसे सृष्टा को मान्यता मिलनी चाहिए जो मनुष्य को मर्यादाओं में रखना चाहता है और कर्मों का प्रतिफल देने में किसी प्रकार का पक्षपात किसी के साथ नहीं करता।


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