कवीन्द्र रवीन्द्र (kahani)

November 1985

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कवीन्द्र रवीन्द्र ने एक बड़ा मार्मिक गीत रूपक लिखा है− मैं घर−घर भीख माँगने के लिए गाँवों में गया हुआ था। तभी तेरा स्वर्ण रथ मुझे दिखायी पड़ा और मुझे उम्मीद बँधी कि मेरे बुरे दिनों का अब अन्त होने वाला है। तेरा रथ पास आकर रुका और मैं बिना माँगे दान की प्रतीक्षा में तेरे सामने जाकर खड़ा हो गया। तेरी दृष्टि मुझ पर पड़ी और तू मुस्कराता हुआ रथ के उतार आया। मैंने समझा मेरा सौभाग्य मेरे पास आ गया, पर तूने ही मेरे सामने हाथ पसार दिया। कैसा परिहास किया तू ने भी- भिक्षुक से भिक्षा मांगी। मैं बड़ी उलक्षन में पड़ गया दबे मन से मैंने झोली ऐ एक अन्न का दाना निकाल कर तुझे दे दिया। वह दाना ले कर तू चला गया और मैं निराशा से भर उठा, पर सूर्यास्त के समय जब झोली खाली की, तो उसमें से सोने का एक दाना निकला। मैं जोर−जोर से रोने लगा− ‘‘काश, मैंने तुझे सर्वस्व अर्पित कर दिया होता।”


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