प्रकृति के रहस्य अपने अन्तराल में खोजें

November 1985

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हम प्रकृति के असीम समुद्र में एक छोटी मछली की तरह रह रहे हैं। हम उसके मध्यान्तर में रहने वाले प्राणी हैं और वह वायुमण्डल की तरह हमारे चारों ओर घिरी है। इतना होते हुए भी हम उसके रहस्यों को अत्यन्त स्वल्प मात्रा में ही जान पाये हैं। मछली जन्म से लेकर मरण पर्यन्त जिस जलाशय में रहती है उसके सम्बन्ध में वह नगण्य जानकारी से अवगत होती है। उस जल का निर्माण किन गैसों से हुआ है? उसमें क्या रासायनिक पदार्थ घुले हैं, बेचारी को इतनी तक जानकारी नहीं होती।

प्रकृति के अनेकों रहस्य हमने जान लिये हैं और उस आधार पर कितने ही वैज्ञानिकों ने आविष्कार करके अपने को सुविज्ञ कहलाने संसार के सुविधा साधन बढ़ाने एवं दर्शकों को चमत्कृत करने में सफलता पाई है। इतने पर भी जो जानना शेष है वह असीम है। उसे समझ पाने में सीमाबद्ध मानव इंद्रिय शक्ति एवं बुद्धि की दौड़−धूप की मर्यादा में रहकर ही जो जान सकता था जान पाया है, या जान सकेगा। इसके अतिरिक्त भी जो असीम जानने योग्य बचा रहेगा उन्हें पूरी तरह समझ पाना कभी सम्भव हो सकेगा इसकी आशा नहीं के बराबर है।

हम धरातल के बारे में बहुत कुछ जानते हैं क्योंकि उसी पर रहते हैं और वायुयानों से उसकी स्थिति को हस्तामलकवत देख पाते हैं किन्तु इस पर भी उस पर निर्वाह करने वाले अगणित कृमि कीटक जैसे प्राणियों की अतीन्द्रिय क्षमता के सम्बन्ध में बहुत ही कम जान सके हैं। जीवन के संचालन में सहायक बैक्टीरिया और मरण के अग्रदूत वायरसों की विचित्रता और बहुलता के सम्बन्ध में अत्यल्प जान पाते हैं।

दाम्पत्य जीवन का निर्वाह करने का आदिम काल से अभ्यास है प्रजनन के संदर्भ में भी बहुत कुछ जाना जा सका है किन्तु यह सफलता अभी भी हस्तगत नहीं हुई है कि पुत्र या पुत्री में से जिसे चाहे उसे जन्म दे सकें।

ऊपर आसमान में दृष्टि उठाकर देखने से बादलों के उठाव तो दिखते हैं पर यह नहीं कहा जा सकता कि वे कब, किस स्थान पर कितनी मात्रा में जल वर्षायेंगे। आँधी−तूफान कब आ धमके, और कितनी उखाड़−पछाड़ करने के बाद कहाँ जाकर बुलबुले की तरह समाप्त हो जाय इसे कौन जानता है? किस क्षेत्र में किस महामारी का कितना प्रकोप होगा और वह चिकित्सा प्रयोजन को झुठलाकर कितनों को काल का ग्रास बना लेगा इस तक की तो समग्र जानकारी मिल नहीं पाई है। निश्चित और सफल चिकित्सा की बात तो और भी आगे की है।

समुद्र की गहराइयों में कहाँ, क्या भरा है। इसके सम्बन्ध में जो ज्ञान उपलब्ध हो सका है वह नगण्य है। अन्तरिक्षों की शून्यता में क्या पदार्थ, कितनी मात्रा में कहाँ भरा रहता है इसकी जानकारी कुछेक मील तक ही निहित हो सकी है। अनन्त आकाश में बिखरे हुए ग्रह तारकों और निहारिकाओं की वास्तविक स्थिति क्या है? इस सम्बन्ध में जो कुछ कहा जाता है वह सब अनुमान के आधार पर है। कौन जाने उन कल्पनाओं में कितनी सचाई है।

अपने ब्रह्माण्ड के ठीक पीछे उतना ही सशक्त और समग्र एक प्रति विश्व चलता है। एण्टी यूनिवर्स एंटौ मैटर−एन्टी एटम आदि की अस्तित्व मान्यता प्राप्त कर सकता है। किन्तु काया के साथ लगी रहने वाली इस छाया के सम्बन्ध में हम कितना कम जानते हैं। यदि उसे जान सके तो इन लोक-लोकान्तरों में, वहाँ के वातावरण में आमूल-चूल स्तर का परिवर्तन हो सकता है।

इससे भी अधिक स्पष्ट अंतर्जगत है। जिसमें मृतात्माएँ निवास करतीं और मनुष्य के साथ भले−बुरे व्यवहार करती रहती हैं। उनके क्रिया-कलापों के परिचय हमें एक निश्चित वास्तविकता की तरह मिलते रहते हैं। इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि वे किस स्थिति में कहाँ रहते और किस प्रकार निर्वाह करते हैं? विभिन्न धर्म सम्प्रदायों में यहाँ तक कि परामनोविज्ञानियों ने भी उनकी सत्ता के प्रमाण परिचय उपलब्ध कर लेने पर भी उनके निर्वाह एवं कार्यक्षेत्र के बारे में कोई निश्चित बात नहीं कही है। मरणोत्तर जीवन अभी भी उतना ही रहस्यमय बना हुआ है जितना कि पहले कभी था। बुद्धिवाद और प्रत्यक्षवाद ने यों उन मान्यताओं की बहुत कुछ सीमाबद्ध कर दिया है फिर भी अभी तक ऐसे प्रमाण मिलते रहते हैं जो सर ओलियर लाज जैसे विज्ञानियों को अध्यात्मवादी बना देते हैं।

वर्षा में यों पानी ही बरसता है। पर घटनाएँ साक्षी हैं कि उनमें कई बार शकर घुली हुई पाई गई है और ऐसी लालिमा वर्षी है जो कपड़ों और जमीन को रँग दे। आसमान से जीवित मछलियों मेंढकों जैसे जीवित जन्तुओं का बरसना तो और भी अधिक आश्चर्यजनक है।

कई रेगिस्तानों में अभी भी संगीत सुनाते रेत के कण पाये जाते हैं। खारे समुद्रों में मीठे पानी के फव्वारे उछलते पाये गये हैं। रबड़ की तरह मोड़े मरोड़े जाने वाले और पानी पर तैरने वाले पत्थर यह बताते हैं कि प्रकृति के विभिन्न पक्षों के संदर्भ में जो निष्कर्ष निकाले गये हैं वे आँशिक रूप से ही सही हैं।

ब्रह्माण्ड में अनेक ब्लैक होलों के अस्तित्व विद्यमान हैं जिनके बारे में किन्हीं साधनों से निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है पर वे अन्तरिक्ष में अवस्थित इतने भयंकर भँवर हैं जो अपनी चपेट में आने वाले धरती आकाश के अनेक भारी भरकम घटकों को उदरस्थ कर जाते हैं और यह पता नहीं चलता कि उनका हड़पा हुआ पदार्थ किस लोक को चला गया। कहा इतना भर जाता है कि मरे हुए तारों के प्रेत पिशाच हैं।

मनुष्य यों एक सीधा सादा-सा प्राणी है पर उसका मस्तिष्कीय रहस्यवाद कभी-कभी इतना विलक्षण जाता है कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। मोटे ग्रन्थों को स्मृति पटल पर सुस्थिर कर लेना। छोटी आयु में ही संगीत आदि की विलक्षण प्रतिभाओं का परिचय देना चकित कर देता है कि बिना किसी क्रमबद्ध प्रशिक्षण के यह विभूतियाँ किस प्रकार जाग पड़ीं।

अतीन्द्रिय क्षमताओं के क्षेत्र में कई मनुष्य ऐसे पाये गये हैं कि जो दूर दर्शन, दूर श्रवण, भविष्य कथन, विचार सम्प्रेषण आदि विशेषताओं से सम्पन्न होते हैं और अविज्ञात बातों को बिना किन्हीं सहायता के इस प्रकार बताते हैं मानो उनने वह सब प्रत्यक्ष देखा हो। उड़न तश्तरियाँ अभी भी रहस्य बनी हुई हैं। उन्हें बुद्धि भ्रम और प्रकृति घटकों की विलक्षणता कहकर समाधान किया गया है फिर भी अनेक द्वारा छोड़े अवशेषों या साथ ले जाये गये पदार्थों की यथार्थता का पता लगाने पर इन समाधान कर्ताओं को स्वयं असमंजस होता है कि लोकान्तरों से आवागमन का यह कोई माध्यम ही तो नहीं है।

रेगिस्तानों में जहाँ पानी का कोई आधार नहीं उगने वाले ‘करटैक्ट’ पौधों को हरे−भरे देखकर यह आश्चर्य होता है कि इन परिस्थितियों में वे जीवन जल किस प्रकार और कहाँ से प्राप्त करते हैं।

अपनी धरती तोप के गोले से भी अधिक तेजी से सूर्य की परिक्रमा करती है, अपनी धुरी पर घूमती है, लहराती है। इतने पर भी उस पर रहने वाले हम मनुष्यों को इससे तनिक भी प्रभावित नहीं होना पड़ता यह कैसे आश्चर्य की बात है। सभी ग्रह अधर में लटके हुए हैं और द्रुतगति से दौड़ते हैं फिर भी नीचे नहीं टपक पड़ते। यह कैसी मजबूत पारस्परिक आकर्षण की मजबूत रस्सियाँ उन्हें आपस में बाँधे हुए हैं यह कैसे आश्चर्य की बात है।

कई बार कई मनुष्यों के शरीर से झटका देने वाली बिजली या अग्निकाण्ड खड़ा कर देने वाली ज्वाला फूट पड़ती देखी गई है। 90 प्रतिशत पानी वाले इस शरीर का ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ना कितना अचरज भरा है।

मनुष्य ने अनेकों कल−कारखाने, पुल, बाँध आदि बनाये हैं पर वह अपने जाति वालों को एक धर्म, एक संस्कृति, एक कानून और एक देश बनाकर रहने के लिए सहमत न कर सका। उसके बुद्धि वैभव को इतना भी न कर पाने पर किस आधार पर सराहा जाय। अपराधी आतंकवादियों को काबू में रखना और युद्धों की अपेक्षा पंच फैसले से जो समस्याओं का हल न निकाल सकी। सर्वमान्य समता का सिद्धान्त मात्र पुस्तकीय प्रतिपादन बनकर रह रहा है यह कैसी विडम्बना है। करोड़ों को गरीबी, बीमारी, अशिक्षा और पिछड़ेपन की चक्की में पिसते रहने पर भी सभ्यता विकास के दावे कितने थोथे हैं, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि मनुष्य की बुद्धिमत्ता में कोई सन्देह न होते हुए भी उसके हाथ नगण्य जितना ही लगा है।

न्यूटन के आविष्कारों की जिस मण्डली में भूरि−भूरि प्रशंसा हो रही थी। उनमें वक्ताओं की सदाशयता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए भी उसने सच्च मन से इस वास्तविकता को स्वीकारा था कि वह एक छोटे बच्चे की तरह समुद्र के किनारे चक्कर लगाकर तुच्छ तुल्य के सीप घोंघे ही ढूँढ़ पाया है। जो जानना बाकी है वह इतना असीम है कि उसके ढाँचे की कल्पना तक नहीं की जा सकती।

सही बात भी यही है। हमारी सत्ता कितनी विलक्षण क्यों न हो पर वह शरीर में आबद्ध और मानसिक दृष्टि से प्रतिबन्धित है। हम अपने मस्तिष्क का सात प्रतिशत भाग काम में ला पाते हैं और 93 प्रतिशत ऐसे ही प्रसुप्त एवं अविज्ञात स्थिति में पड़ा रहता है। शरीर संरचना और उसके अनुरूप तालमेल बिठाते हुए जीवनचर्या बनाने तक में हम समर्थ नहीं हो सके अन्यथा उसे सौ वर्ष ही नहीं सैकड़ों वर्षों तक तपस्वियों की तरह जिया जा सकता था।

विज्ञान के भौतिक पक्ष पर ही यत्किंचित् अन्वेषण करने और थोड़े से चमत्कार प्रस्तुत करने में ही हमने सफलता पाई है। सो भी आधी−अधूरी। क्योंकि ब्रह्म और प्रकृति के सभी कार्य सुव्यवस्थित और सुनियोजित रीति से चल रहे हैं। जब हम इसमें देखते हैं तो उस अचंभे को अपने ज्ञान की अपूर्णता न कहकर प्रकृति के अपवाद कहकर अपने को समग्र सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं।

भौतिक बुद्धि और भौतिक उपकरणों की सहायता से किये गये अन्वेषण और निकाले गये सिद्धान्त सदा अपूर्ण और विवादास्पद ही बने रहेंगे। यथार्थता तक पहुँचाने के लिए हमें अपनी ब्राह्मी चेतना जगानी होगी और सृष्टा के साथ योग द्वारा एकात्मता स्थापित करने के आधार पर यह जानना होगा कि प्रकृति के रहस्यों में से जो अभी अविज्ञात बने हुए हैं उनका तात्विक कारण क्या है?

जो खिलौने हाथ लग गये हैं उनसे मन बहलाने या किसी दूसरे के शिर में दे मारते हुए उसे लहू-लुहान कर देने की विद्या सरल है। समुद्र की ऊपरी सतह पर तो नाव में बैठकर या हवा भरी रबड़ की कुप्पी पेट में बाँध−कर भी तैरा जा सकता है। पर लम्बी साँस ले सकने की क्षमता अर्जित करके पनडुब्बियों की तरह समुद्र की तली में मोती ढूँढ़ निकालना कितना कठिन है। उसे उस प्रकरण में पुरुषार्थ करने के अभ्यस्त लोग ही जान सकते हैं।

यदि हमारी अभिरुचि अविज्ञात को विज्ञात बना सकने की बुद्धिमत्ता अपनाने में हो तो उसका सही तरीका एक ही है कि अपने को अंतर्मुखी बनाने का अभ्यास डालें कि अपने भीतर कितना तिलस्म भरा हुआ है। योगी तपस्वी इन्हीं अनुभूतियों को अर्जित करने और रहस्यमय अदृश्य क्षेत्र में प्रवेश करने का प्रयत्न करते हैं। चक्रों, कोशों, ग्रन्थियों, उपत्यिकाओं में समाहित रहस्य ऐसे हैं जिनकी क्षमता और स्थिति समझ लेने पर मनुष्य बाह्य जगत में प्रकृति के रहस्यों को जानने में समर्थ हो सकता है।

चेतना का केन्द्र मस्तिष्क और सम्वेदना का स्रोत हृदय है। यदि इन दोनों चेतना केन्द्र के साथ अपनी अनुभूतियों का तादात्म्य किया जा सकता है तो ब्राह्मी चेतना के साथ भी अपना सम्बन्ध जुड़ सकता है। सच्चे सम्बन्धी परस्पर अपने रहस्यों को भी साक्षी पर प्रकट कर देते हैं। प्रकृति की अधिष्ठात्री मातृ शक्ति और चेतना के निकटवर्ती केन्द्र परब्रह्म के साथ सम्बन्ध जोड़ा जा सके तो समझना चाहिए कि सभी रहस्यों के उद्घाटन की चाबी हस्तगत हो गई।

मनुष्य की अपनी आवश्यकता, मर्यादा और क्रिया-शीलता की परिधि सीमित है। उतने भर से ही कार्यरत रहा जाय तो उतना समग्र रूप से उपलब्ध हो सकता है जो सरल जीवन को सुखपूर्वक जीने के लिए आवश्यक है इतना हस्तगत हो सके तो मनुष्य हँसती−हँसाती, उठती−उठाती जिन्दगी जी सकता है।

कदाचित किसी को रहस्योद्घाटन में ही रुचि हो और प्रकृति के अविज्ञात आधारों को समझने की उत्कण्ठा हो तो उसके लिए आवश्यक है कि आत्म−संरचना और उससे सम्बन्धित रहस्यों को जानने का प्रयत्न करें। जैसा कि हमारे पूर्ववर्ती ऋषि तपस्वी करते रहे हैं। इस आधार पर विज्ञान के वे रहस्य भी हस्तगत हो सकते हैं जो भौतिक उपकरणों से−बौद्धिक उछलकूद से एक सीमा तक भी सम्भव है। रहस्यों की चाबी तो उस प्रकृति पुरुष के हाथ में है जिसके साथ सम्बन्ध जोड़ने में हम प्रायः कतराते ही रहते हैं।


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