परिशोधन प्रगति का प्रथम चरण

January 1984

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पत्थर का कोयला एक विशेष स्तर पर पहुँच कर हीरे की उपमा पा लेता है। यों उसका अनगढ़ प्रयोग करने वाले अंगीठी में जलाकर भी कमरे में रख लेते हैं और भोर होने से पूर्व ही विषैली गैस के कारण मर चुके होते हैं। जबकि हीरा उपलब्ध करने वाले सुसम्पन्न भाग्यवान बनते हैं। लोहा, राँगा, सीसा अमुक जैसे सामान्य खनिजों का बाजारू मूल्य तुच्छ होता है पर उन्हें जब भस्म रसायन बनाकर ग्रहण किया जाता है तो वे संजीवनी बूटी का काम करते और महंगे मूल्य पर बिकते हैं। पीने का पानी भाप बनाकर जब डिस्टिल्ड वाटर बना लिया जाता है तब उसकी गणना औषधियों में होती है, उसे कई रासायनिक क्रियाओं एवं सम्मिश्रणों में प्रयुक्त किया जाता है।

भावना समुदाय पर भी यही बात लागू होती है। वे भी यों तो गली-कूचों में भीड़ लगाते और गन्दगी फैलाते देखे जाते हैं पर जब उन्हें संस्कारिता की साधना द्वारा महान बना लिया जाता है तो फिर वे ऋषि-देवता कहाते, अपनी नाव पर चढ़ाकर असंख्यों को पार कराते हैं। यह स्तर को निखारने और ऊँचा उठाने की महत्ता है कि निरुपयोगी धूलि भी इस विशेष प्रक्रिया से गुजरने के उपरान्त अणु शक्ति बनती और अपनी प्रचण्ड क्षमता का परिचय देती है। हर व्यक्ति जन्मता तो साधारण मनुष्य के नाते ही है। कालान्तर में उसकी जीवन साधना ही उसे वह श्रेय दिलाती है जिसे मानवी गरिमा के अनुरूप माना जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों की अपनी महत्ता है। वे प्रसुप्त बीजांकुरों के रूप में विद्यमान तो रहते हैं, पर जो उन्हें कुरेदता-उभारता है वह निश्चित ही अपनी स्थिति से ऊँचा उठते हुए महामानव का पद पाता है। अपना परिशोधन, तप-प्रक्रिया द्वारा संस्कारीकरण तथा साधना उपादानों के माध्यम से भाव संस्थान का उदात्तीकरण ही वे सोपान हैं जिन्हें पास करते हुए यह पद प्राप्त होता है। किसी समझौते की इसमें कोई गुँजाइश नहीं।


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