शब्द शक्ति की ऊर्जा से परिचालित-काया की सशक्त प्रयोगशाला

January 1984

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मानवी काया का स्थूल रूप उतना ही है जो खाने पीने सोने के काम आता है, जो रोने-हँसने और मरने-जीने के गतिचक्र में बँधा हुआ अपना समय व्यतीत करता है। मस्तिष्क का मन और बुद्धि भाग इस गाड़ी को धकेलता रहता है। कल पुर्जे अन्न, जल का ईंधन पाकर गतिशील बने और निर्वाह विनोद के साधन जुटाने में लगे रहते हैं। इससे आगे की गहराई वहाँ से प्रारम्भ होती है जहाँ ‘चित्त’ (अचेतन मन) और अहंकार अन्तःकरण (सुपर चेतन) का क्षेत्र आरम्भ होता है। यह मनःक्षेत्र की बात हुई। कार्य क्षेत्र में षट्चक्र, ग्रन्थि त्रय, नाड़ी त्रय, चतुर्विशत् उपत्यिकाएँ, पंचकोश, कुण्डलिनी, सहस्रार के रहस्यमय शक्ति भण्डारों की साज सज्जा है।

यह समूचा क्षेत्र सामान्यतः निष्क्रिय पड़ा रहता है। न मनःक्षेत्र की अचेतन, सुपर चेतन क्षमताएँ काम आती हैं और न षट्चक्र, पंचकोश आदि से कोई वास्ता पड़ता है। अप्रकट अस्तित्व को ही रहस्य कहते हैं। इसलिए मनःक्षेत्र और कार्य क्षेत्र की इन सर्वसाधारण की पहुँच से बाहर की अविज्ञात विशिष्टताओं को भी रहस्य लोक दिव्य लोक कहा जाता है। इसे ही प्राचीन काल में शोध प्रयत्नों के लिए प्रयुक्त किया जाता था। खर्चीले, कष्ट साध्य और आये दिन ईंधन मरम्मत माँगने वाले वैज्ञानिक यन्त्रों का निर्माण करने की अपेक्षा यह अच्छा समझा गया कि ईश्वर प्रदत्त सर्वांगपूर्ण काया में ही जब प्रकृति लोक ही नहीं ब्रह्म लोक को भी खोजने-खींचने, घसीटने की क्षमताएँ विद्यमान हैं तो बाहर क्यों भटका जाय? कस्तूरी हिरन की तरह क्यों उपहासास्पद बना जाय।

ऋषियों का समग्र प्रयास एक ही रहा है कि काय कलेवर को एक सर्वांगपूर्ण, समग्र, सुन्दर सहज उपलब्ध प्रयोगशाला माना जाय। साथ ही उसी क्षेत्र में सन्निहित सृष्टा के उत्तराधिकार में उपलब्ध अनन्त ऋद्धि-सिद्धियों को बीज रूप में ही पड़े न रहने देखकर उन्हें उगाने और विशाल वृक्ष में परिणत करने का प्रयास किया जाय। इस प्रयास को योग एवं तप की संज्ञा दी गई है। उसमें किसी अन्यत्र रहने वाले देवी देवता की मनुहार नहीं है वरन् आत्मदेव के अंग−उपाँगों का ही न्यास उपचार करने का विधान है। वृक्ष की खुराक आसमान से नहीं, जड़ों से मिलती है। मानवी सत्ता का चरम विकास उसके अन्तःक्षेत्र को उभारने से ही सम्भव होता है। आकाश के देवताओं को किसी का मनुहार सुनने और निहाल करने के लिए उपहार का टोकरा लिए-लिए फिरने की फुरसत कहाँ है ?

पेट भरने के लिए अपना ही मुँह चलाना पड़ता है। पढ़ने के लिए अपनी ही बुद्धि लड़ानी पड़ती है। दूसरे के मुँह से किसका पेट भरा है, दूसरों की बुद्धि का सहारा लेकर कौन विद्वान बना है। आत्मिक प्रगति की आकाँक्षा भी अपने ही साधनात्मक पुरुषार्थ से पूरी होती है। उसमें बेचारे देवताओं को अनुग्रह ही एक सीमा तक पात्रता के अनुरूप में हो सकता है। बात पात्रता पर आई तो उसे भी पुरुषार्थ ही कहा जायेगा। आत्म क्षेत्र के गहन मन्थन को ही साधना, उपासना आदि नामों से सम्बोधित किया जाता है।

प्राचीन काल में अनेकों दिव्य अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग होता था। तन्त्र शास्त्र में प्रायः इसी प्रकार के उपचारों की भरमार है। उसी क्षेत्र में ऐसी उपलब्धियों की भरमार थी जो क्षमताओं, सुविधाओं और सफलताओं के भण्डार सामने ला खड़ी करती थी। इस प्रकार के उपायों को योग-तप कहा जाता था। उनके द्वारा भौतिक क्षेत्र में ऋद्धि-सिद्धियों को हस्तगत किया जाता था। साथ ही अन्तःक्षेत्र को आनन्द-उल्लास से भरे रहने वाले स्वर्ग मोक्ष का लाभ मिलता था। यह समूचा उपार्जन अन्तःक्षेत्र का है। विशाल ब्रह्माण्ड में जो कुछ है वह अपने कायपिण्ड में बीज रूप में विद्यमान है। उसमें उसे उपयोगी हो उसे उभारने का पुरुषार्थ करना ही आत्म साधना का उद्देश्य रहा है। जहाँ तथ्यों का ध्यान रखते हुए- विद्या को निष्ठापूर्वक अपनाते हुए प्रयास चले हैं वहाँ अभीष्ट सफलता भी मिली है। ऋषि युग का इतिहास इसका साक्षी है।

कायिक और मानसिक क्षेत्र की संरचना एक सर्वांगपूर्ण यन्त्र उपकरणों से भरी-पूरी प्रयोगशाला के समान है। उसे अभीष्ट उत्पादन में समर्थ फैक्टरी भी कहा जा सकता है। इस तथ्य से अवगत होने के उपरान्त दूसरा प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस कारखाने को चलाने के लिए ऊर्जा कहाँ से मिले? ईंधन कहाँ से जुटे। बिजली, भाप, ताप आदि का कोई स्त्रोत साधन तो होना ही चाहिए। अन्यथा बहुमूल्य मशीनें भी तनिक सी हलचल नहीं कर सकती। उपकरणों को ऊर्जा ही तो चलाती है। इस ऊर्जा के लिए भी कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है। वह भी प्रचुर परिमाण में उसी समर्थ सृष्टा ने हस्तान्तरित कर दी है, जबकि इतना बहुमूल्य शरीर क्षेत्र रूपी बहुमूल्य अनुदान मनुष्य को बनाया गया।

यह ऊर्जा ईंधन क्या है? इसका संक्षिप्त किन्तु समग्र उत्तर है- “शब्द शक्ति”। काया से जो शब्द निकलते हैं। सामान्यतया वे विचारों के आदान-प्रदान में काम आते हैं। यही उसका मोटा काम चलाऊ उपयोग है। इससे ऊँचे स्तर की शब्द शक्ति वह है जो जीभ से नहीं मुखाकृति, मस्तिष्क एवं अन्तःकरण से निकलती है। इन्हें मध्यमा, परा और पश्यन्ति कहते हैं। वार्तालाप परामर्श में प्रयुक्त तो बैखरी वाणी ही होती है पर उसकी नगण्य-सी क्षमता में समर्थता, प्रखरता तब उत्पन्न होती है, जब मध्यमा, परा, पश्यन्ती का भी उच्चारण के साथ ही समन्वय समावेश होता रहे। इसके लिए परिष्कृत वाणी चाहिए। जो समूचे व्यक्तित्व के हर पक्ष को उत्कृष्टता से अनुप्राणित कर सके। यदि वक्तृता का आनन्द लेना हो, उसे चमत्कारी सफलता प्रस्तुत करने में समर्थ देखता हो तो फिर जिह्वा तक सीमित न रहकर अन्य तीन रहस्यमयी वाणियों को मुखर करने के लिए साधनात्मक अभ्यास की आवश्यकता समझनी चाहिए। वाणी की कला भी अपने स्थान पर उपयोगी है, पर उठने भर से लोक-मानस की दिशाधारा निकृष्टता से उलटकर उत्कृष्टता की ओर मोड़नी हो तो उसके लिए उच्चस्तरीय शब्द शक्ति चाहिए।

साधना क्षेत्र में शब्द शक्ति के बारे में अधिक गम्भीरता के साथ सोचा जाना चाहिए एवं उस प्रतिपादन पर ध्यान देना चाहिए जिसमें ‘शब्द और नाद ब्रह्म’ की महिमा शास्त्रकारों के अनन्त रूपों में और गम्भीरता के साथ प्रस्तुत की है। शब्द ब्रह्म अर्थात् गद्य उच्चारण, नाद ब्रह्म अर्थात् ताल स्वर पर आश्रित गीत वाद्य। मन्त्र विज्ञान को इसी क्षेत्र की महान उपलब्धि कहा जा सकता है। मन्त्र में शब्द गुन्थन की विशेषता भी एक तथ्य है पर उससे भी कहीं अधिक विशिष्टता मांत्रिक की निजी जीवनचर्या के साथ जुड़ी रहती है। मन्त्र शक्ति में वाणी का उच्चारण विधान ही पर्याप्त नहीं माना जाता। इसकी प्राण-प्रतिष्ठा उस साधना द्वारा होती है जिसमें मन्त्र को सिद्ध करने के लिए भाव भरे पुरश्चरण किए जाते हैं। इस प्रक्रिया का तात्विक स्वरूप इतना ही है कि मांत्रिक को, साधक को अपनी जीवनचर्या में उत्कृष्टता का सघन समावेश करना चाहिए। उसे ऋषिकल्प होना चाहिए। यहाँ दशरथ की पुत्र प्राप्ति अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए किए गए पुत्रेष्टि यज्ञ का स्मरण करना चाहिए जिसमें वशिष्ठ ने राज्यधान्य खाने के कारण मन्त्र शक्ति उत्पन्न करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की थी। वाणी की प्रखरता वाले शृंगी ऋषि उस कार्य के लिए बुलाये गये थे तब प्रयोजन पूर्ण हुआ था। मन्त्र का रहस्य, साधक की जीवन साधना के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।

सामान्य लोग जीभ चलाते और बकवास करते रहते हैं। वरिष्ठ व्यक्ति सारगर्भित, आदर्शों का पक्षधर, जीवन में प्रयुक्त-अनुभूत, श्रद्धा विश्वास से भरा-पूरा शब्दोच्चार करते हैं। वस्तुतः यह मन्त्र प्रयोग ही होता है। मन्त्र विचार को ही कहते हैं। तपः पूत उच्चारण को मन्त्र कहा जाता है। यह जप अनुष्ठान में, शाप-वरदान में भी काम आते हैं पर सामान्यतया उन्हें सम्भाषण के रूप में भी प्रयुक्त किया देखा जाता है। लेकिन यदि परिवर्तन भावना क्षेत्र का होना है, लोक मान्यताओं में घुसी हुई अवांछनीयता को उलटकर उस क्षेत्र में औचित्य की नये सिरे से प्राण-प्रतिष्ठा होनी है तो ऐसी दशा में उसके उपयुक्त साधन सामग्री ही खोजनी होगी। वह भी ऐसी जिसके लिए जहाँ-तहाँ हाथ पसारते न फिरना पड़े। मानव मात्र का काय कलेवर एक सर्वांगपूर्ण प्रयोगशाला की तरह प्रयुक्त करने के लिए परिष्कृत स्तर का बनाना पड़ेगा। परिष्कृत अर्थात् पवित्र, प्रखर। उसके लिए संयम साधना और परमार्थ परायणता के दोनों ही प्रयोग साथ-साथ चलने चाहिए। इस अवलम्बन के बिना आत्मसत्ता इस योग्य नहीं बनती कि वह उच्चस्तरीय शक्तियों का अवतरण एवं अवधारण सहन कर सके।

जीवन साधना से मानवी काया एक उच्चस्तरीय यन्त्र उपकरणों से भरी प्रयोगशाला का काम देने लगती है। ऊर्जा की आवश्यकता शब्द शक्ति होगी। उच्चारण को मन्त्र स्तर तक पहुँचाना पड़ेगा। परिष्कृत जीवन अर्थात् गाण्डीव। मन्त्र अर्थात् शब्द बेधी बाण। अर्जुन की तरह इन सभी उपकरणों के प्रयोग का अभ्यास करने और प्रवीण होने के लिए हर साधक को कटिबद्ध, अग्रसर होना चाहिए। ऐसी प्रयोगशाला हर मनुष्य में सृष्टा की अनुकम्पा से अनायास ही उपलब्ध है।


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