रहस्यमयी उपत्यिकाओं का पर्यवेक्षण

January 1984

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षट्चक्रों और 24 उपत्यिकाओं का वर्णन योग−विज्ञान में विस्तारपूर्वक किया गया है। दिव्य शक्तियों के भाण्डागार के रूप में इनका निरूपण हुआ है। सृष्टा ने अमोघ शक्तियाँ बीज रूप में अपने युवराज मनुष्य को प्रदान की हैं। साथ ही उन्हें छिपाकर भी रखा है। प्रसुप्त स्थिति में रहने दिया है ताकि आवश्यक परिपक्वता पात्रता विकसित होने पर ही वह इन्हें उपलब्ध कर सके और सही समय पर सही रूप में उपलब्ध कर सके।

षट्चक्रों को आत्मिक शक्तियों का भण्डार माना गया है। सातवाँ सहस्रार है। यह सप्तलोक है। यह लोक एक से एक ऊपर है। इनकी विभूतियाँ सिद्धियाँ भी एक के बाद दूसरे में अधिक हैं। इन्हीं पर चढ़ते हुए आत्मा परब्रह्म तक पहुँचता और पूर्णता को प्राप्त करता है। यह षट्चक्र स्थूल शरीर में नहीं वरन् सूक्ष्म और कारण शरीरों में है। उन्हें इन्द्रियों या उपकरणों की सहायता से नहीं देखा जा सकता।

इसके अतिरिक्त अध्यात्म विज्ञान के अनुसार 24 उपत्यिकाओं का उल्लेख है। इन्हें गायत्री मन्त्र के 24 अक्षरों के साथ जोड़ा गया है। इन्हें 24 देवता, 24 ऋषि, 24 अवतार भी कहा गया है। यह स्थूल शरीर में विद्यमान रहस्य भरी ग्रन्थियाँ हैं जिन्हें प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। कुछ समय पूर्व तक इनके सम्बन्ध में विशेष जानकारी नहीं थी। वे माँस क्षेत्र में अवस्थित साधारण सी फुटकियाँ मानी जाती हैं। ऐसी और भी कितनी ही हैं। गर्दन के आसपास उनकी भरमार है। कभी-कभी वे फूल या सूज जाती हैं तब मुसीबत पैदा करती हैं। गलगंड, कन्ठमाला, विषवेल आदि नामों से इनका विकृत स्वरूप प्रसिद्ध है। उनके निवारण के लिए सेंक, लेप, आपरेशन जैसे उपचार काम में लाये जाते हैं।

उपत्यिकाओं में से कुछ का विशेष विवरण थोड़े समय पूर्व ही प्राप्त हुआ है। इनमें से जो भली प्रकार जानी जा सकीं उन्हें अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ कहा जाता है। इनमें से विशेष प्रकार के स्राव अत्यन्त स्वल्प मात्रा में निकलते हैं और वे अपने ढंग से रक्त में मिल जाते हैं। इन स्रावों की न्यूनाधिकता तथा उत्कृष्टता-निकृष्टता के ऐसे विचित्र परिणाम होते हैं जिन्हें देखते हुए आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।

शरीर में अनेक प्रकार के स्रावों और शोषक किण्वकों की व्यवस्था है। पाचन प्रक्रिया को समग्र बनाने के लिए मुख से, आमाशय से, यकृत से, आँतों से कितने ही प्रकार के स्राव निकलते हैं। दिन-रात में उनका परिणाम भी काफी हो जाता है। जबकि अंतःस्रावी ग्रन्थियों के स्राव, जिन्हें हारमोन कहा जाता है नगण्य-सी मात्रा में निकलते हैं। इतने पर भी वे इतने अद्भुत परिणाम प्रस्तुत करते हैं जिन्हें देखते हुए उन्हें जादू के पिटारे से उपमा दी जाती है। मनुष्य विशेषताओं की कितनी विशेषताओं को घटाने और बढ़ाने में इनका असाधारण योगदान होता है। पतलापन, मोटापा, लम्बाई बौनापन आदि विचित्रताओं में यह हारमोन ही जादू की छड़ी घुमाते रहते हैं। प्रजनन अवयवों की निष्क्रियता सक्रियता में इनकी अद्भुत भूमिका रहती है। इन्हें के व्यतिरेक लिंग परिवर्तन के घटनाएँ भी होती रहती हैं।

हारमोन ग्रन्थियों में अभी थोड़ी सी ही विदित हो सकी हैं। किन्तु सम्भावना अभी औरों के भी प्रकाश में आने की है। कभी सूर्य, चन्द्र दो ही आकाश के अधिष्ठाता थे। पीछे नवग्रहों का पता चला। अब उनमें प्लेटो, नेप्च्यून, यूरेनस भी शामिल हो गए हैं। अनुसंधान की इतिश्री नहीं हुई है और सौर मण्डल के ग्रह-उपग्रहों की शृंखला पर नया प्रकाश पड़ता जा रहा है और उनकी संख्या तथा स्थिति की जानकारी मिल रही है। अंतःस्रावी ग्रन्थियों के सम्बन्ध में भी यही बात है। कभी उन्हें पुरुष के अण्डकोश और नारी के स्तन के रूप में ही समझा जा सकता था। पीछे शुक्राणुओं और डिम्बकोशों की थैलियाँ भी प्रजनन प्रयोजन की आन्तरिक उथल-पुथल में भाग लेती देखी गई। अब इन्हें अंतःस्रावी ग्रन्थियों के रूप में खोज निकाला गया है। इनमें से छह प्रमुख मानी गई हैं। उनकी गतिविधियों की रूपरेखा भी बहुत कुछ स्पष्ट हो चुकी है।

इतने पर भी यह नहीं समझा जाना चाहिए कि जो जाना गया है वह अन्तिम है। अभी उस शृंखला में और भी कितनी ही कड़ियाँ जुड़ने की सम्भावना है। आशा की जानी चाहिए कि वह दिन दूर नहीं जब रहस्यों पर से पर्दा उठता जायेगा और उन 24 उपत्यिकाओं पर प्रकाश पड़ेगा जो विज्ञात अंतःस्रावी ग्रन्थियों के ही समतुल्य सशक्त सिद्ध होगी वरन् उनसे भी बढ़ी-चढ़ी रहस्य भरी भूमिकाएँ सम्पन्न कर रही है।

शरीर की गतिविधियों के संचालन में कभी हृदय, यकृत, आमाशय, आँत, गुर्दे आदि को ही सब कुछ माना जाता था और इन्हीं के सही रहने पर आरोग्य निर्भर माना जाता था। पर अब बारीकियों में उतरने की सुविधा हुई है तो रुग्णता दुर्बलता के कारण उन सूक्ष्म संस्थान भी खोजे जाने लगे हैं जिनकी कुछ समय पहले तक चिकित्सकों को कोई खास जानकारी न थी।

उपत्यिका विज्ञान के अनुसार अंतःस्रावी प्रणाली शरीर के सभी प्रमुख क्रियाकलापों को प्रभावित करती है। इसके अन्तर्गत शरीर का विकास, प्रजनन, पोषण, रोग के विरुद्ध रक्षात्मक व विभिन्न परिस्थितियों में अनुकूलता स्थापित करने की क्षमता विद्यमान है। शरीर की उत्तम क्रियाकलापों हेतु सभी वाहिनी ग्रन्थियाँ सुसंचालित होनी चाहिए।

वैज्ञानिक अब तक इस अंतःस्रावी प्रणाली को समझने का प्रयास कर रहे हैं क्योंकि इससे स्रवित होने वाले रासायनिक तत्व इतने अल्प मात्रा में होते तथा इतनी शीघ्रता से क्षरित होते हैं कि उनका जैव रासायनिक विश्लेषण अत्यन्त कठिन होता है।

पुरुष प्रजनन अंतःस्रावी प्रणाली में प्रमुख ग्रन्थि तथा टेस्टिस होती है। गोनेड्स (टेस्टिस) की दो प्रमुख क्रियाएँ है- शुक्राणु कोश की रचना तथा पुरुष यौन हारमोन एन्ड्रोजन्स को स्रवित करना, जो पुरुष की सहायक यौन विशेषताओं को प्रकट करता है। दाढ़ी व छाती पर के बाल, गम्भीर आवाज, लम्बी अस्थियाँ व पेशियाँ बालक को मनुष्य के रूप में परिवर्तित कर डालती हैं।

नारी प्रजनन विशेषताओं का भी नियन्त्रण अंतःस्रावी प्रणाली द्वारा होता है, जो नर की तुलना में अधिक जटिल होता है। सहायक यौन विशेषताओं के साथ-साथ नारी का मासिक धर्म तथा गर्भधारण प्रक्रिया भी हारमोन्स से प्रभावित होता है। स्त्रियोचित कोमलता भी इसी पर निर्भर करती है। इसी प्रकार यौवनारम्भ के समय इस्ट्रोजन्स नारी में स्तन के विकास, मासिक धर्म की शुरुआत तथा अन्य मादा विशेषताओं को प्रकट करते हैं।

एड्रीनल मेडुला अर्थात् एड्रीनल ग्रन्थि का आन्तरिक हिस्सा दो मुख्य हारमोन एड्रीनेलिन व नॉर-एड्रीनेलिन को उत्पन्न करता है। यह व्यक्ति को भागने अथवा युद्ध करने में प्रयुक्त करता है। क्रोध अथवा भय, दुर्घटना, दर्द अथवा रक्तस्राव तथा अधिक तापमान की स्थिति में ये हारमोन्स सामान्य अवस्था की तुलना में एक हजार गुना अधिक उत्पन्न होता है तथा रक्त में वितरित होकर अंगों ऊतकों को आपत्तिकालीन स्थिति में तत्पर होने का संकेत देता है।

वैज्ञानिक अब यह बताते हैं कि व्यक्ति में आक्रामक प्रवृत्ति का निर्धारण एड्रीनेलिन एवं नारएड्रीनेलिन के अनुपात के ऊपर आधारित होता है। एक दब्बू व्यक्ति में एड्रीनेलिन रसस्राव कम होता है तथा आक्रामक व्यक्ति में नार एड्रीनेलिन की मात्रा कम होती है।

गले के निचले हिस्से में स्थित है। इस हारमोन की समुचित मात्रा के अभाव में व्यक्ति मानसिक दृष्टि से मन्द सुस्त व कमजोर होता है। उसकी चयापचय प्रक्रिया भी कमजोर हो जाती है। हृदय की गति मन्द पड़ जाती है। इसके विपरीत थाइराइड हारमोन्स के अधिक स्राव से हृदय की गति तीव्र हो जाती है, चयापचय दर बढ़ जाता है, अधिक भूख लगने लगती है, मानसिक दृष्टि से अत्यन्त विचलित होता है।

पीनियल ग्रन्थि जो मस्तिष्क में स्थित है, एक अत्यन्त अद्भुत ग्रन्थि है। इसे व्यक्ति का तृतीय नेत्र तथा आत्मा का स्थान बताया जाता है। पिट्यूटरी ग्रन्थि से विकास हारमोन्स का नियन्त्रण होता है। यह ऊतकों के विकास में सहायक होता है। इस हारमोन की कमी से व्यक्ति नाटा और अधिक स्राव से लम्बे कद का होता है।

अंतःस्रावी ग्रन्थियों के स्रवित होने वाले रसायनों में ऐसी क्या विशेषता है जो मनुष्य के स्वभाव, स्तर, विकास एवं शरीर को असाधारण रूप से प्रभावित करती है। इसका कारण अभी ठीक से नहीं जाना जा सका। उपलब्ध जानकारियों से इतना भर पता चलता है कि वे शरीर को, उसके प्रकट और अप्रकट अवयवों को प्रभावित करती हैं। स्वभाव और व्यक्तित्व को उठाने-गिराने में सहायक होती है। किन्तु ऐसा क्यों होता है? इस स्रावों में ऐसी क्या विशेषता है? इस सम्बन्ध में किसी सुनिश्चित निष्कर्ष तक पहुँच सकना सम्भव नहीं हुआ। जो कहा जाता है उसे अनुमान पर ही आधारित समझा जाना चाहिए।

अध्यात्म विज्ञान के सूक्ष्म दर्शियों ने इन रहस्य संस्थानों की विशिष्टता को बहुत पहले ही समझ लिया था और उन्हें उपत्यिका नाम देकर यह प्रयत्न किया था उन्हें ध्यानयोग एवं साधना विधानों के माध्यम से नियन्त्रित, परिमार्जित एवं उत्तेजित करने में सफलता प्राप्त की जाय और उस आधार पर शरीर को वैसा बनाया जाय जैसा कि अभीष्ट है।

चक्र की साधना, कुण्डलिनी विज्ञान के अन्तर्गत आती है। वह चेतना क्षेत्र की प्रतिभा, प्रखरता एवं उत्कृष्टता को बढ़ाने के लिए प्रयुक्त की जाती है। उपत्यिका साधनाओं का क्षेत्र इससे कुछ हटकर है। उन्हें स्थूल शरीर को परिष्कृत बनाने के लिए जागृत एवं समुन्नत किया जाता है। इसके लिए आसन, प्राणायाम, बन्ध, मुद्रा, जप, ध्यान जैसे कृत्यों का अवलम्बन लिया जाता है।

अंतःस्रावी हारमोन ग्रन्थियों के प्रभाव को ध्यान में रखते हुए शरीर-संरचना की बारीकियों को समझने वाले अब इस खोज में हैं कि खोज को और आगे बढ़ाया जाये। सभी उपत्यिकाओं के स्थान, स्वरूप एवं क्रियाकलाप को इस प्रकार समझने-समझाने का प्रयत्न किया जाये, जिससे प्रत्यक्षवादियों की भी वस्तुस्थिति समझने में कठिनाई न हो। समग्र अरोग्य के इच्छुकों को अब यह आवश्यकता अनुभव होने लगी है कि खाद्य-औषधियों के सहारे रक्त-माँस को प्रभावित करने की प्रचलित चिकित्सा पद्धति में नया अध्याय जोड़ा जाय और देखा जाय कि उपत्यिका संस्थान को प्रभावित करके शरीर और मस्तिष्क की निरोगता एवं समर्थता से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान किस प्रकार किया जा सकता है।


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