अदृश्य होते हुए भी सर्व समर्थ हमारा मनः संस्थान

January 1984

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उद्योग व्यवसाय से धन कमाया जाता है। अध्ययन अभ्यास से बुद्धि बढ़ती है। व्यायाम से पहलवान बना जाता है। साहस और पराक्रम से प्रगति का द्वार खुलता है। इन तथ्यों के प्रति जिस प्रकार हम सब आश्वस्त हैं उसी प्रकार यह भी जाना और माना जाना चाहिए कि मस्तिष्क के अन्तराल में भरे हुए विभूति भण्डार में कुरेदने और बटोरने के प्रयत्न में भी परिपूर्ण सफलता की गुँजाइश है।

आमतौर से मस्तिष्कीय क्षमताओं के सम्बन्ध में लोग भाग्यवादियों जैसी उदासीनता अपनाये रहते हैं और सोचते हैं भगवान ने जिसे जैसी प्रतिभा बुद्धिमत्ता दी है उसी से काम चलाना पड़ेगा। उस क्षेत्र की खामियों को सुधारने और विशिष्टताओं को उभारने में लोग अपने को असहाय असमर्थ मानते हैं पर वस्तुतः वैसी बात है नहीं। जिस प्रकार व्यायाम से बलिष्ठता, शिक्षा से बुद्धिमत्ता, व्यवसाय से सम्पन्नता अर्जित की जा सकती है ठीक उसी प्रकार मनः संस्थान का जादुई-भानुमती का पिटारा भी समुन्नत बनाया जा सकता है। कहना न होगा कि मानसिक क्षमता की अभिवृद्धि ऐसी सफलता है जिसे संसार की हर सम्पदा की तुलना में अधिक वरिष्ठ विशिष्ट मानना पड़ेगा।

मनोविज्ञान-रसायन विशेषज्ञ डॉ. स्किनर के अनुसार 20 करोड़ तन्त्रिका कोशिकाओं वाले तीन पौण्ड वजन के विलक्षण मानवीय मस्तिष्क में रसायनों एवं विद्युत धाराओं के प्रयोग से इसके रहस्यों को अब जल्दी ही समझा जाने लगा है, जिससे मानवीय सत्ता को देवता अथवा असुर बनाना सम्भव है। क्या सुविकसित मस्तिष्क की प्रतिभा का स्वल्प विकसित अथवा इसके ठीक विपरीत परिवर्तन सम्भव है? जर्मनी के मस्तिष्क विद्या विज्ञानी डॉ. ऐलन जैक तथा मार्क रोजन बर्ग कुछ ऐसा ही प्रयोग कर रहे हैं।

एलेक्ट्रियल स्टीमुलेशन ऑफ ब्रेन पद्धति के अनुसार कई प्रयोगशालाओं में आँशिक रूप से मस्तिष्क की धुलाई (ब्रेन वाशिंग) में सफलता प्राप्त कर ली है। अभी तक तो बन्दर, कुत्ते , बिल्ली, खरगोश, चूहे जैसे छोटे स्तर के जीवों पर ही प्रयोग किये गये हैं। आहार की रुचि, शत्रुता, मित्रता, भय, आक्रमण आदि के सामान्य स्वभाव को जिन परिस्थितियों में जिस प्रकार चरितार्थ किया जाना चाहिए उसे वे बिल्कुल भूल जाते हैं और चित्र−विचित्र प्रकार का आचरण करते हैं। बिल्ली के सामने जब एक चूहा छोड़ा गया तो वह आक्रमण करना तो दूर उससे डरकर एक कोने में जा छिपी। क्षण भर में एक दूसरे पर खूनी आक्रमण करना, एक आधे मिनट बाद परस्पर लिपटकर प्यार करना- यह परिवर्तन उस विद्युत क्रिया से होता है जो उनके मस्तिष्कीय कोशों के साथ सम्बद्ध रखती है। वैज्ञानिकों का कथन है कि कुछ ऐसा ही परिवर्तन बाह्य इलेक्ट्रोडों के माध्यम से मनुष्य में भी सम्भव है।

मिशीगन विश्वविद्यालय के डॉ. बर्नार्ड एग्रानोफ ने सुनहरी मछलियों पर यह प्रयोग किया कि उन्हें यदि भोजन के बाद प्यूरोमाइसिन नामक औषधि खिला दी जाय तो वे यह भूल जाती हैं कि वे भोजन कर चुकी हैं। कुछ कुत्तों का स्मृति नाशक दवा खिलाई गयी तो वे अपने और उस मालिक को भी भूल गये जिसे वे बहुत प्यार करते थे।

राकलैण्ड स्टेट हास्पिटल न्यूयार्क के डॉ. नाचान क्लाइन ने सर्पगन्धा बूटी से ‘एजिमेलीन’ नामक रसायन निकाला था। इससे उद्दीप्त मस्तिष्क को शान्त करने में बहुत सफलता मिली। पीछे इस रसायन को और भी परिष्कृत करके पिप्राडोल, क्लोरप्रोमेजीन मेप्रोबमेट जैसी दवाओं का ताँता बंध गया। अब इन शामक रसायनों के सहारे मस्तिष्क पर छाई चिन्ता, भय, उद्वेग, आवेश जैसी परेशानियों को एक गोली के साथ गले से नीचे उतारा जा सकता है और आराम के साथ चैन की नींद सोया जा सकता है। यह तो पाश्चात्य शोध की बात हुई, आयुर्वेद में अनेकों ऐसी जड़ी-बूटियाँ हैं, जिन्हें शामक, निद्राजनक, आक्षेपहर के रूप में बड़ी सफलता के साथ प्रयोग किया जाता रहा है। रसायनों से उद्भूत प्रतिक्रिया से परिचित वैज्ञानिक समुदाय अब धीरे-धीरे मानस पर हितकर प्रभाव डालने वाली इन वनौषधियों की ओर लौट रहा है। चरक एवं सुश्रूत ऋषियों के आविष्कारों के पुनर्जीवन का ही क्रम अब फिर चल पड़ा है।

प्रयोग निरापद चूँकि जानवरों पर ही हो सकते हैं, मस्तिष्कीय शोध के क्षेत्र में सीधे मनुष्यों पर हाथ नहीं डाला जाता। मानव-रसायनों के प्रत्यारोपण के प्रयोगों से अब मान्यता बनने लगी है कि यह प्रयोग अगले दिनों मनुष्यों पर भी सम्भव हो सकेंगे।

कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय के डॉ. एलन जेकवसन ने प्रशिक्षित चूहों के मस्तिष्क से आर.एन.ए. रसायन निकालकर अनाड़ी चूहों के मस्तिष्क में पहुँचाया तो अनाड़ी भी प्रशिक्षितों की तरह व्यवहार करने लगे। इस सन्दर्भ में मिशीगन विश्व विद्यालय के डॉ. ओटो शिमल ने घोषणा की है कि अब हमारे हाथ में मानव-मस्तिष्क को नियन्त्रित करने की शक्ति आ गई है, पर आशा की जानी चाहिए कि उसका प्रयोग केवल अच्छाई के लिए ही होगा, किन्तु साथ ही इस खतरे को भी ध्यान में रखना होगा कि इस नव-उपार्जित शक्ति का प्रयोग महत्वाकाँक्षी राष्ट्र अपनी चिन्तनधारा के जबरन विस्तार के लिए भी कर सकते हैं।

चिकित्सा शास्त्र का नोबुल पुरस्कार तीन प्रमुख वैज्ञानिकों को न्यूरॉलाजी में शोध हेतु मिला था। ये थे प्रोफेसर हाजकिन, हक्सले एवं एक्लिस। इस त्रिगुट ने ज्ञान तन्तुओं में एक विद्युत आवेश की खोज की और बताया कि यह बिजली किस तरह तन्तुओं और मस्तिष्कीय कोशों के बीच दौड़ती है और टेलीफोन की तरह स्थिति का संवाद-संकेत पहुँचाती लाती है। ज्ञान तन्तु एक प्रकार के बिजली के तार हैं जिन पर विद्युत आवेगों के साथ सन्देश दौड़ते रहते हैं। एक-एक तन्तु की लम्बाई एक लाख मील से भी अधिक होती है। इनकी मोटाई एक इंच के सौवें भाग से भी कम होती है। इन तथ्यों से मस्तिष्क की विराटता एवं शोध की असीम सम्भावनाओं का एक अनुमान होता है।

अठारहवीं सदी के अन्त में सर विलियम पैनफील्ड ने ब्रेन सेण्टर्स को जानने के लिए जो प्रयोग आरम्भ किए, उनकी श्रृंखला अभी चल ही रही है।

मस्तिष्क विज्ञानी कहते हैं कि स्थूल मस्तिष्क के दो भाग होते हैं- एक पुराना एनीमल ब्रेन (पूर्व संचित पाशविक कुसंस्कारों एवं अंतःप्रवृत्तियों से युक्त) तथा दूसरा ऊँचे स्तर का नया मस्तिष्क जो मात्र मनुष्य को ही मिला है। पहले में दर्द, भय, भूख, यौन, इच्छा, थकान, आक्रमण आदि के केन्द्र होते हैं जो मुख्यतः जीवन को बनाये रखने एवं नस्ल को जीवित रखने के लिए जरूरी हैं। जो दूसरा नया मस्तिष्क है उसमें और भी अधिक विकसित, प्रिफाण्टल लोब होते हैं जिनका कार्यक्षेत्र विशुद्धतः बौद्धिक है। तर्क बुद्धि, सिविकसेन्स, आपसी व्यवहार, योजनाबद्ध कार्यक्रम का निर्धारण, आदि यहीं निश्चित किए जाते हैं। भावनात्मक आवेगों पर नियन्त्रण यहीं से होता है।

उदाहरणार्थ प्रयोगशाला में विद्युतीय इलेक्ट्रोडों के माध्यम से बिल्ली की मानसिक स्थिति ऐसी बना दी गई कि वह चूहे पर आक्रमण का स्वभाव भूलकर उनसे डरने लगी। खरगोश और शेर की कुश्ती कराई गई तो शेर दुम दबाकर एक कोने में जा बैठा और खरगोश ने इस प्रकार हमला बोला मानो उसे अपनी बहादुरी जीत का पूरा पक्का विश्वास हो। आमतौर से पशु अपने सजातियों से ही यौन सम्बन्ध स्थापित करते हैं पर इलेक्ट्रोडों से प्रभावित जीवों ने अन्य जाति वालों के साथ यौन सम्बन्ध स्वीकारने में उत्साह दिखाया। इसी प्रकार वे अपने अभ्यस्त आहार को छोड़कर अन्य प्रकार का आहार अपनाने लगे। अधिक नींद लाने या बिना सोये ही बहुत समय तक स्वेच्छापूर्वक कार्यरत रहने में भी सफलता मिल गई।

विद्युतीय उपचारों के अतिरिक्त अन्य कई प्रकार के प्रयोग भी पिछले दिनों चलते रहे हैं। इनमें से एक है प्राण प्रहार- हिप्नोटिज्म। दूसरी है रासायनिक उपचार। मस्तिष्क को एक सीमा तक इन दोनों साधनों से प्रभावित करने में सफलता बहुत दिनों से मिलती आ रही है। अब उन साधनों को नये ढंग से नये प्रयोजन के लिए प्रयुक्त करने की बात सोची गई है। हिप्नोटिज्म से प्रभावित व्यक्ति अपनी स्वाभाविक मनःस्थिति को भूल जाते और प्रयोक्ता के सन्देशों को शिरोधार्य करते हुए वैसा ही सोचते वैसा ही करते हैं।

मस्तिष्कीय क्षमता को ही व्यक्तित्व का विकास समझने वाले वैज्ञानिकों ने इन दिनों इस सन्दर्भ में कई दृष्टियों से विचार किया और कई उपाय सोचे हैं। वे यह भी मानते हैं कि परिवार एवं समाज के वातावरण का मनुष्य के चिन्तन एवं स्वभाव पर असर पड़ता है इसलिए शिक्षा तथा परम्परा के क्षेत्र में कुछ ऐसा समावेश होना चाहिए जिसके प्रभाव से आज का मनुष्य कल की अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमान, साहसी और सद्गुणी हो सके।

इसके अतिरिक्त उनका विशेष ध्यान इस बात पर है कि ‘ब्रेन वाशिंग’ के कोई कारगर उपाय ढूँढ़ निकाले जायें। इस सन्दर्भ में कम्यूनिस्ट देश सबसे आगे हैं। उन्होंने अपने विरोधियों का सफाया करके सिर दर्द से छुटकारा पाने के उपायों में अत्यधिक उत्साह दिखाया है। वहाँ हल्का-फुलका यह प्रयोग भी किया है कि प्रतिपक्षी मान्यता वालों पर ऐसे मनोवैज्ञानिक दबाव डाले जायें ताकि वे अपनी पूर्व मान्यता को छोड़कर नये निर्देशों को हृदयंगम करने के लिए स्वेच्छापूर्वक सहमत हो जायें।

रूस के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर एनोरबीन ने कई प्रयोग करके यह दिखाया कि मनुष्य को सुख या दुःख की अनुभूति कराने वाले मस्तिष्क से स्रवित होकर रक्त में मिल जाने वाले दो विभिन्न प्रकार के रस हैं। इन रसों का स्राव स्वतः नहीं होता वरन् अच्छे-बुरे विचार एवं भावनाओं के कारण होता है। उन्होंने बताया कि मस्तिष्क में ऐसे सूक्ष्म संस्थान हैं जिनका सम्बन्ध ‘रेटी-कुलर कार्मेशन’ से है। वहीं से कुछ रसों का स्राव होता रहता है। एक प्रकार के रस से प्रसन्नता, प्रफुल्लता, मुस्कान, हँसी, मृदुलता, शिष्टता, सौम्यता आदि गुण फूटते रहते हैं, दूसरे प्रकार के रस से मनुष्य चिन्तित, दुःखी निराश और उद्विग्न बना रहता है।

यह अनुसन्धान और प्रतिपादन यह सिद्ध करते हैं कि मस्तिष्क के रूप में एक अलौकिक सामर्थ्य से भरा-पूरा देवता हमारे भीतर ही सिंहासनारूढ़ है। वह अदृश्य होते हुए भी सर्व समर्थ है पर मनःसरंजाम को समुन्नत बनाने की साधना ऐसी है जिसे निष्ठापूर्वक करते रहने वाले निहाल होकर ही रहते हैं।


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