व्यावहारिक जीवन में मनुष्य एक-दूसरे की सहायता करते रहते हैं। इस सहकारी प्रवृत्ति के कारण ही मनुष्य बुद्धिमान बना और प्रकृति सम्पदा पर आधिपत्य कर सका है। सर्वथा एकाकी मनुष्य तो निजी सामर्थ्य को देखते हुए अन्यान्य प्राणियों से भी गया-बीता और दुर्बल असमर्थ सिद्ध होता है। सहकार ही स्वभावगत वह वैभव है, जिसका अभ्यास होने के कारण मनुष्य क्रमशः अधिक ऊँचा उठता और आगे बढ़ता चला गया है।
मनुष्यों में से जो जितने घटिया हैं, वे उतने ही संकीर्ण स्वार्थपरता से ग्रसित देखे जाते हैं, उन्हें अपने काम से काम एवं अपने मतलब से ही मतलब रहता है। दूसरों का दुःख दर्द समझने और उदार सहकार देने जैसी भावना उठती ही नहीं, सूझ जगती ही नहीं। ऐसे में कोई दुःखी जरूरतमन्द है या नहीं- यह सोचने-देखने की उन्हें फुरसत ही नहीं होती। किन्तु सभी ऐसे नहीं होते। बौद्धिक पिछड़ेपन की तरह यह भावनात्मक अधःपतन पाया तो अनेकों में जाता है, पर सब वैसे नहीं होते। अनेकों की प्रकृति में मानवी गरिमा के अनुरूप आत्मीयता एवं उदारता का भी बाहुल्य होता है और वे मिल-बाँटकर खाने की नीति पर विश्वास करते हैं। औरों का दुख बँटा लेने और अपना सुख बाँट देने की ललक जगी रहने से वे सेवा-साधना के अवसर ढूँढ़ते रहते हैं और जब भी, जहाँ भी सम्भव होता है अपनी उत्कृष्टता का परिचय देते हैं। सेवा धर्म अपनाने वालों को देवता कहा जाता है। देवोपम अन्तःकरण प्राप्त कर लेना मनुष्य का सर्वोपरि सौभाग्य माना गया है।
शरीर न रहने पर भी आत्मा का अस्तित्व अक्षुण्ण बना रहता है। मरण और जन्म के मध्य ऐसी ही स्थिति रहती है। इसमें प्रत्यक्ष पंच भौतिक कलेवर न रहने पर भी उनमें क्षमता विद्यमान रहती है, जिसके सहारे अपनी उदारता का परिचय दे सके और सेवा-साधना की दृष्टि रखकर दूसरों की सहायता कर सकें। ऐसी ही आत्माएँ देवता कहलाती हैं और ये अपनी स्थिति में रहते हुए भी लोक-कल्याण के लिए कुछ न कुछ करती रहती हैं।
कितने ही अवसरों पर किन्हीं-किन्हीं को अदृश्य सहायताएँ मिलती रहती हैं। इन्हें दैवी अनुदान या वरदान माना जाता है। ऐसी उपलब्धियाँ जिन्हें प्राप्त हुई हैं, उनके उदाहरण समय-समय पर सामने आते रहते हैं।
सन् 1837 की घटना है। बेल्जियम के पियरे डिरूडर नामक व्यक्ति का पैर पेड़ पर से गिरने के कारण टूट गया। हड्डी जुड़ी नहीं वरन् नासूर की तरह रिसने लगी। जख्म किसी तरह भरता ही न था। बड़ी कठिनाई से ही वे किसी प्रकार दर्द से कराहते पट्टी बाँधे थोड़ी दूर चल सकते थे। जहाँ से पैर टूटा था, वह जगह टेढ़ी-कुबड़ी हो गई थी। ऐसी स्थिति तक पहुँचे हुए मरीज को ठीक कर देने का वायदा किसी सर्जन ने भी नहीं किया।
निराश पियरे के मन में एक दिन उमंग उठी, वे सन्त लारेन्स की समाधि तक घिसटते-घिसटते पहुँचे। घुटने टेककर देर तक रोते और दिवंगत सन्त की आत्मा से सहायता की प्रार्थना करते हुए दिन भर बैठे रहे।
सन्ध्या होते-होते वापस लौटने का समय आया तो वे सामान्य मनुष्यों की तरह उठकर खड़े हो गये और सही पैर लेकर घर लौट आए। परिचितों में से किसी को भी इस घटना पर विश्वास न हुआ। प्रत्यक्ष देखने वालों की भारी भीड़ लगी रही। सभी की जीभ पर अदृश्य वरदान की चर्चा थी।
सन् 1945 में फ्रांस के राजा लुईस चौदहवें के विरुद्ध जनता ने विद्रोह कर दिया। 1702 में जगह-जगह गुरिल्ला युद्ध होने लगे। सेना नायक क्लैरिस नामक एक प्रोटेस्टैन्ट विद्रोही था। राजा का परास्त करने और अपने को वरिष्ठ, योग्य घोषित करने के लिए उसने अग्नि परीक्षा देने की बात कही।
लकड़ियों से ऊँची चिता बनाई गई और क्लैरिस भाव समाधि की स्थिति में उस पर चढ़कर खड़ा हो गया। चिता में आग लगा दी गई। धीरे-धीरे आग की लपटों ने क्लैरिस को चारों तरफ से घेर लिया और क्लैरिस मैदान में उपस्थित 600 लोगों की भीड़ को सम्बोधित करता रहा। लकड़ियाँ जलकर राख हो गईं। आग बुझ गई तब तक क्लैरिस का भाषण चलता रहा। क्लैरिस अग्नि परीक्षा में विजयी रहा। उसे आँच तक नहीं आई।
दक्षिण इटली के फोगिया कस्बे में एक दम्पत्ति के यहाँ नौ वर्षीय बालक जियावेनियो-लिटिल जान रीढ़ की बीमारी के कारण नन्हें बच्चों जैसा घिसट-घिसट कर हाथ-पैरों के बल चला करता था। एक दिन जियोवेनियो फोगिया की सड़कों पर घिसटता चल रहा था, अचानक उसे अपने पीठ पर दिव्य स्पर्श का अनुभव हुआ। नजर उठाकर ऊपर देखा तो बगल में पादरी पैड्रेपियो खड़े थे। कुछ पूछने से पहले ही पादरी चले गये और जियावेनियो कृतज्ञता से पादरी की कृपा को मन ही मन सराहता रहा। उसकी अपंगता दूर हो गई थी। उठ खड़ा हुआ और दौड़ता हुआ अपने घर आया। पादरी पैड्रेपियो की कृपा से वह कृतार्थ हो चुका था।
सन् 1881 के मध्य में कैप्टन नीलकरी अपने दो बच्चों के साथ लारा जहाज को लेकर लीवरपूल से सान फैन्सिस्को की ओर समुद्री लहरों के साथ आँख मिचौली खेलते गन्तव्य की ओर बढ़ते चले जा रहे थे। मैक्सिको की पश्चिमी खाड़ी से 1500 मील पूर्व लारा में आग लग गई। कैप्टन नील अपने परिवार तथा 32 अन्य जहाज कर्मियों के साथ जान बचाने के लिए लारा को छोड़कर तीन छोटी लाइफबोटों पर सवार हो गये।
लम्बी जलयात्रा तय करते हुए सभी व्यक्तियों को प्यास सताने लगी। दूर-दूर तक फैले अथाह समुद्र में पीने योग्य मीठे पानी का कहीं कोई चिन्ह नहीं दिखाई दे रहा था। प्यास के मारे 36 सदस्यीय यात्रियों में से 6 जहाजकर्मी बेहोश हो गये।
कैप्टन करी को निद्रा आ गई और स्वप्न में देखा कि पास में कुछ दूरी पर समुद्र के छोटे से घेरे में हरा पानी है जो पीने योग्य है। निद्रा भंग हुई और कैप्टन का जहाज हरे पानी पर तैर रहा था। थोड़ा-सा पानी एक वेसल में लेकर कैप्टन ने पिया तो पाया स्वप्न में देखे पानी से अधिक मीठा एवं स्वच्छ जल था। सभी ने पानी पिया और जीवन की सुरक्षा की। कैप्टन नील ने इसे एक समुद्री नखलिस्तान की संज्ञा दी यह कैसे किस प्रकार उन्हें उपलब्ध हुआ, इसकी पूर्वापर संगति बिठा सकने में कोई समर्थ नहीं था।
ऐसे अनुदान कभी-कभी किन्हीं को अनायास भी मिल जाते हैं, यह अपवादों की बात हुई। उनके पीछे निश्चित आधार यह है , कि मनुष्य अपने व्यक्तित्व को वैसा बनाये जैसा देव वर्ग को प्रिय है। आत्म-परिशोधन की तपश्चर्या में तथा लोक-मंगल की सेवा-साधना में संलग्न ऋषि-कल्प व्यक्तियों को ऐसे अनुदान अपनी पात्रता के आधार पर विपुल परिमाण में उपलब्ध होते रहते हैं। ऐसे प्रमाणों की एक लम्बी शृंखला है। पात्रता विकसित की जा सके तो हर कोई दैवी अनुकम्पा पाकर अदृश्य जगत से लाभान्वित हो सकता है।