एक बूढ़ा राहगीर था। रात हो गई, थक कर कहीं टिकने का स्थान खोजने लगा। एक महिला को दया आयी। उसने बाड़े में पेड़ के नीचे ठहरने को स्थान बता दिया। बूढ़ा चैन पूर्वक सो गया। गहरी नींद आई।
सबेरे चलने से पूर्व उसने सोचा-अच्छी जगह है। खिचड़ी पका लें। खाकर चलेंगे। सो वहीं उसने लकड़ी बटोरकर खिचड़ी पकाने लगा। बटलोई उसी महिला से माँग ली।
गृह स्वामिनी अपने काम-काज में लगी थीं। बूढ़े ने उसका ध्यान बँटाते हुए पूछा- “एक बात पूछूँ? बाड़े का दरवाजा कम चौड़ा है। अगर सामने वाली मोटी भैंस मर जाय तो फिर उठाकर बाहर कैसे ले जाया जायेगा?”
गृह स्वामिनी को इस व्यर्थ की कड़ुई बात का बुरा तो बहुत लगा पर यह सोचकर चुप रह गई। बूढ़ा जाने ही वाला है इसके मुँह क्यों लगा जाये।
खिचड़ी आधी ही पक पाई थी कि दूसरी बार गृह स्वामिनी फिर उधर से निकली। इस बार बूढ़े ने फिर दूसरा प्रश्न पूछा- “आपके हाथों का चूड़ा बहुत कीमती है। यदि विधवा हो जायँ तो इसे तोड़ना पड़ेगा और बहुत हानि होगी न?
अब की बार महिला से न सहा गया। उसने बुड्ढ़े के गमछे में अधपकी खिचड़ी उलट दी। चूल्हे की आग बुझा दी। बटलोई छीन ली और धक्के देकर घर के बाहर निकाल दिया।
गमछे में अधपकी खिचड़ी का पानी टपकता रहा और बुड्ढ़े के सारे कपड़े उससे लथ-पथ होते रहे। इसी स्थिति में वह आगे चलता रहा।
रास्ते में लोगों ने कपड़ों पर कीचड़ चिपकी और मक्खियाँ भिनकती देखी तो पूछा- यह सब क्या है?
बुड्ढे ने तथ्य का सार बताते हुए कहा- “यह मेरी जीभ का रस टपका है, जिसने भूखा रखा, तिरस्कार किया और अब घिनौनी वेष-भूषा में उपहासास्पद बनाया है।