प्राण विद्या को पंचाग्नि साधना का वर्णन एवं विधान वस्तुतः चेतना क्षेत्र की ऊर्जा का ही प्रयोग परिचय है। प्राणायाम के अनेकानेक विधानों में उसी क्षमता के अनेक रूपों का उत्पादन एवं प्रयोग की रीति-नीति का विवरण बताया एवं विस्तार सिखाया जाता है।
चेहरे पर आँखों में इसी की चमक होती है। वाणी में मिठास भी इसी की होती है और सिंह जैसी गर्जन भी। दूसरों पर प्रभाव डालना इसी के माध्यम से बन पड़ता है। प्राण विद्युत सम्पर्क में आने वालों को चुम्बक की तरह खींचती और अपनी विशेषताओं से प्रभावित करती है। ऋषि आश्रमों के इर्द-गिर्द उनमें निवासियों का प्राण छाया रहता है और उसका प्रभाव हिंस्र पशुओं तक पर पड़ता है। सिंह गाय एक घट पानी पीने की घटनाऐं ऐसे ही क्षेत्रों में दृष्टिगोचर होती हैं। नारद के प्रभाव से वाल्मीकि और बुद्ध के सान्निध्य में अंगुलिमाल का काया-कल्प हो जाना ऐसे ही प्रचण्ड प्राण प्रहार का प्रतिफल है। कुसंग और सत्संग में यही प्राण ऊर्जा विशेष रूप से काम करती है।
यह प्राणाग्नि होती तो हर किसी में है किन्तु उसकी न्यूनाधिकता प्राणि विशेष की स्थिति पर निर्भर है। आचरणों और साधनों से उसे घटाया बढ़ाया भी जाता है। अनाचारी असंयमी उसे घटाते-घटाते जीवित रहते हुए निष्प्राण स्तर के दीन-दुर्बल बनते चले जाते हैं जबकि संयमी ब्रह्मचारी तपस्वी उसे बढ़ाते चलते हैं और अभिवृद्धि का परिचय बढ़ी-चढ़ी प्रतिभा प्रखरता के रूप में देते हैं।
यह प्राणाग्नि कई बार प्रयत्नपूर्वक प्रकट की जा सकती है और कई बार अनायास ही अप्रत्याशित रूप से उभरती है। पौराणिक गाथा के अनुसार शिव पत्नी सती ने पितृगृह में अपने शरीर से ही योगाग्नि प्रकट करके शरीर दाह किया था। अन्य योगियों के बारे में भी ऐसी ही गाथाएँ मिलती हैं जिनने शरीरान्त के समय अन्य किसी के द्वारा अन्त्येष्टि किये जाने की प्रतीक्षा न करके अपने भीतर से ही अग्नि प्रकट की थी। और काया को भस्मसात् कर लिया था। शाप देकर दूसरों को भस्म कर देने के तो कितने ही कथानक हैं। शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था और दमयंती के शाप से व्याध जल बनकर भस्म हो गया था। भस्मासुर ने तो इस विशिष्टता को अपनी तपस्या के सहारे एक सिद्धि के रूप में ही प्राप्त कर लिया था वह किसी पर भी हाथ रखकर उसे भस्म कर सकता था।
यह प्राणाग्नि के प्रयत्नपूर्वक किये गये प्रयोग हुए। इसके पीछे कुछ उद्देश्य और प्रयोग भी हैं पर आश्चर्य तब होता है जब यह कायिक ऊर्जा अनायास ही किसी किसी के शरीर से फूट पड़ती है और अपनी काया को ही नहीं समीपवर्ती सामान को भी जलाने लगती है। ऐसे प्रमाणों के सरकारी अभिलेखों में कितने ही विवरण उपलब्ध हैं जिनमें बिना किसी दूसरे द्वारा वैसा कुछ किये जाने या स्वयं भी आत्मघात जैसा प्रयत्न न करने पर भी अनायास ही व्यक्ति विशेष के शरीर से अग्नि प्रकट हुई और उसने अग्निकाण्ड जैसा दृश्य उपस्थित कर दिया। कड़ी जाँच-पड़ताल से भी यह प्रामाणित न हो सका कि यह दुर्घटना बाहर से जलाई गई किसी अग्नि के द्वारा हो सकी।
स्वतः किसी शरीर में से प्राणाग्नि प्रकट होने की घटनाओं का विवरण सत्रहवीं सदी के बाद में खोजा और पंजीकृत किया गया है। उनमें कितनी ही घटनाएँ प्रकाशित पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहती हैं। जहाँ इस प्रकार की जाँच-पड़ताल की व्यवस्था नहीं है वहाँ भी कुछ ऐसा ही होता रहता होगा, पर उसका प्रामाणिक उल्लेख न होने से ऐसी चर्चा का विषय नहीं बनाया जा सकता जिसके सहारे किसी तथ्य तक पहुँचने का प्रयास किया जा सके।
प्रामाणिक घटनाओं में से कुछ उल्लेख उपलब्ध हैं-
13 जनवरी 1943 को 52 वर्षीय एलन एम. स्माल का जला हुआ शरीर डियर इस्ले, मेन स्थिति उनके मकान से बरामद किया गया। शरीर के नीचे बिछा हुआ कार्पेट झुलस गया था। इसके अतिरिक्त कमरे की किसी भी वस्तु पर आग का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
29 जुलाई 1938 को श्रीमती मेरी कार्पेन्टर अपने पति एवं बच्चे के साथ नाव पर सवार होकर नारफाक इंग्लैण्ड में छुट्टियाँ व्यतीत करने जा रही थीं। नाव पर ही अचानक उनका शरीर चारों तरफ से अग्नि ज्वाला से घिर गया और कुछ ही मिनटों के अन्दर जीता जागता शरीर जले हुए शव में परिणित हो गया। नाव पर बैठे किसी अन्य व्यक्ति को आँच तक नहीं लगी और नाव की भी कोई क्षति नहीं हुई। निरीक्षण करने वाले आफीसर ने कहा- “माना उसके कपड़े से आग लगी, परन्तु मेरे समझ में नहीं आता यह सब कैसे घटित हुआ।”
सन् 1904 के अन्त में इंग्लैण्ड के लिंकन शायर प्रांत में स्थिति बिन ब्रूक पुरोहिताश्रम में दिसम्बर महीने में एक अजीबोगरीब घटना घटित हुई। पुरोहिताश्रम के इस विशाल भवन में अचानक तीन बार आग लगी जिससे भवन का बहुत सा हिस्सा जलकर नष्ट हो गया। आग लगने के कारणों का पता अज्ञात ही बना रहा। एक महीने बाद बिन ब्रूक का एक किसान अपने रसोई घर में गया जहाँ नौकरानी लड़की झाडू लगा रही थी। उसके पीठ से लम्बी-लम्बी लपटें निकल रही थीं। किसान ने आवाज लगाई और तुरन्त ही उस लड़की पर झपट पड़ा। आग निकलने वाले स्थान पर हाथ से ढक दिया और आग बुझ गई। परन्तु तब तक लड़की बुरी तरह से जल चुकी थी।
प्रोफेसर जेम्स हैमिल्टन ‘टेनेसी’ प्रान्त के नशेवाइल विश्वविद्यालय में कार्यरत थे। 5 जनवरी 1835 को विश्वविद्यालय से वापस घर आये जो तीन चौथाई मील की दूरी पर था। घर के बाहर दीवार पर टँगे हुए हाइग्रोमीटर को देखा उस समय शून्य से भी 8 डिग्री तापमान कम था।
अचानक हैमिल्टन को बायें जंघे पर बिच्छू के डंक मारने जैसी वेदना महसूस हुई। उस स्थान पर गर्मी भी अत्यधिक लग रही थी। नजर पड़ते ही उन्होंने देखा कि उस स्थान से कई इंच लम्बी चमकीली लपटें निकल रही थीं। हैमिल्टन को उपाय सूझा और उस स्थान को हाथ से ढ़ककर आक्सीजन की सप्लाई को रोक दिया। थोड़ी देर बाद ज्वाला शान्त हो गयी।
घर जाकर कपड़े उतारे और घाव का निरीक्षण किया। तीन चौथाई चौड़ा और तीन इंच गहरा घाव था। घाव वाले स्थान पर पैंट के जल जाने से उसमें एक छोटा सा छिद्र हो गया था। घाव की मरहम पट्टी टेनेसी के प्रख्यात डॉ. जान आवर्टन एम.डी. की देख-रेख में सम्पन्न हुआ। इस छिद्र को भरने में 32 दिन लगे।
सन् 1847 में फ्राँस में एक 71 वर्षीय बूढ़े की मृत्यु स्वतः प्रवर्तित अग्नि में जल जाने के कारण हुई। कोर्ट ने इसे हत्या का मामला मानकर मृतक के पुत्र और जमाई को गिरफ्तार कर लिया। दोनों पर वृद्ध को मार डालने और जला देने का संगीन अपराध थोपा गया।
लड़के और जमाई का कहना था कि उसके पिता रात्रि के समय अपने बिस्तर पर सो रहे थे। अचानक उनका शरीर अग्नि की सफेद लपटों से घिर गया और चन्द मिनटों में ही राख के ढेर में परिणित हो गया। हाथ और पैरों के निचले हिस्से को छोड़कर शेष कुछ नहीं बचा। अवशिष्ट राख भी बहुत थोड़ी थी। सम्पूर्ण कमरा गहरे धुँए से भर गया था।
लड़कों के इस कथन की पुष्टि के लिए कोर्ट ने डॉ. मैसन के एक दलीय आयोग को नियुक्त किया। डॉ. मैसन ने छान-बन करने पर पाया कि लड़के और जमाई का कथन सत्य है। कोर्ट ने स्वतः प्रवर्तित अग्निकाण्ड का मामला मानकर दोनों अभियुक्तों को बरी कर दिया।
19 फरवरी 1888 को रविवार के दिन कोलचेस्टर, इंग्लैण्ड में एक बूढ़ा सिपाही शराब पीकर सूखी घास के गट्ठरों पर सोने के लिए चढ़ गया। लेटते ही उसके शरीर के चारों तरफ उठती ज्वाला की लपटों ने शरीर को भस्मीभूत बना दिया। आश्चर्य यह था कि सूखी घास का एक तिनका भी नहीं जला।
इंग्लैण्ड में साउथम्पटन शहर के पास बुटलाक्स हीथ गाँव में श्रीमान जान किले नामक दम्पत्ति निवास कर रहे थे। 26 फरवरी 1905 को सुबह जान के मकान से खड़खड़ाहट की आवाज सुनकर पड़ौसियों ने उनके मकान के अन्दर प्रविष्ट किया। अन्दर आग की लपटें फैली हुई थी। मि. किले फर्श पर पड़े राख के ढेर में परिणत हो गये थे। श्रीमती किले उसी कमरे में कुर्सी पर बैठी बुरी तरह जलकर कोयले में बदल गई थी। परन्तु जिस कुर्सी पर श्रीमती किले बैठी थी उस पर आँच तक नहीं लगी थी। थोड़ी दूर फर्श पर तेल का लैम्प लुढ़का पड़ा था जिसे देखकर पुलिस को आग लगने के कारणों का पता लगाने के लिए कहा गया। लैम्प से आग लगाने का अर्थ था कमरे के फर्नीचर, कपड़े आदि सभी जल जाने चाहिए थे, किन्तु ऐसा नहीं हुआ था। अतः दम्पत्ति को “एक्सीडेन्टलडेथ” का प्रकरण मानकर जाँच-पड़ताल को वहीं समाप्त कर दिया गया।
सन् 1932 में जनवरी के ठंड के दिनों में नार्थ कैरोलिना के ब्लैडैनबोरो शहर में निवास करने वाली महिला श्रीमती चार्ल्स विलियम्सन के रुई के कपड़े में अचानक आग धधकने लगी। उनके आसपास कहीं कोई आग नहीं थी और न ही उनका ड्रेस किसी ज्वलनशील पदार्थ के सम्पर्क में ही था। उनके पति और लड़की ने जलते हुए कपड़ों को उतारकर उनकी प्राण रक्षा की। इस तरह की घटना उनके साथ तीन बार घट चुकी थी। इसके बाद श्रीमान् विलियम्सन का एक जोड़ी पैन्ट एक आलमारी में टंगा था। उसमें भी आग लग गई और जल कर भस्म हो गया। इसके बाद बिस्तर और पर्दे में आग लग गई। कमरे के बहुत से सामान न नीली लौ में जलते देखे गये परन्तु उनके समीप पड़े किसी अन्य वस्तु को आग की लपटों ने छुआ तक नहीं। इस ज्वाला में न तो कोई गन्ध थी और न ही किसी प्रकार का धुँआ था। जिस वस्तु को आग लगी वह पूर्णतया भस्मीभूत हो गया।
विभिन्न हस्तियाँ- आर्सेन एक्सपर्ट, पुलिस दस्ते, गैस और विद्युत कम्पनी के विशेषज्ञ सभी बुलाये गये। परन्तु आग लगने का कारण रहस्यमय ही बना रहा। चार दिनों तक यह अग्निकाण्ड चलता रहा और पाँचवें दिन अचानक अपने आप समाप्त हो गया। अदृश्य हाथों द्वारा संचालित इस अग्निकाण्ड का उत्तर किसी के पास नहीं था।
सन् 1907 में भारतवर्ष के दीनापुर जिले के मनेर गाँव से एक जली हुई महिला का शव ले जाते हुए दो व्यक्तियों को दो पुलिस वालों ने पकड़ लिया। महिला का शव जिला मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत किया गया। कपड़े के अन्दर शरीर से तब भी लपटें निकल रही थीं। महिला के कमरे का निरीक्षण किया गया। वहाँ बाहरी आग लगने के कोई चिन्ह नहीं मिले।
ये घटनाएँ बताती हैं कि मानवी सत्ता मात्र रासायनिक पदार्थों की नहीं बनी है उसमें प्राण ऊर्जा की प्रचण्डता भी विद्यमान है। यह विद्युत भण्डार सामान्यतया शरीर निर्वाह भर के काम आता है। इसका बहुत बड़ा अंश प्रसुप्त स्थिति में निरर्थक पड़ा रहता था। प्राणाग्नि के ऐसे असंख्य उपयोग हो सकते हैं जिनके सहारे मनुष्य अबकी अपेक्षा कहीं अधिक समर्थ वरिष्ठ सिद्ध हो सके।