वर्चस की प्राप्ति एवं आत्मिक प्रगति का एक मात्र अवलम्बन

January 1984

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प्रगति का क्षेत्र भौतिक हो या आध्यात्मिक उसमें एक ही नियम काम करता है और उसी से ‘अभीष्ट’ सफलता प्राप्त होती है। वह नियम है- तपश्चर्या। भौतिक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए प्रत्येक शक्ति को अभीष्ट श्रम करना पड़ता है। किसान, मजदूर, विद्यार्थी, सैनिक, पहलवान, कलाकार, चपरासी, शिल्पी आदि सभी की सफलतायें उनमें प्रयत्न, पुरुषार्थ श्रम और साहस पर निर्भर रहती हैं। इस प्रयत्न परायणता को एक प्रकार से महाप्रज्ञा का तत्त्वदर्शन कहा जा सकता है, जो कि आत्मिक जीवन में भी एक समान लागू होता है। उस क्षेत्र की प्रगति पूरी तरह इस तथ्य पर निर्भर है कि साधन तपश्चर्या का साहसिकता किस मात्रा तक प्रचंड हो सकी है। उपासना और साधना का तात्विक पर्यवेक्षण करने पर प्रतीत होता है कि अध्यात्म विज्ञान का सारा ढाँचा ही प्रगति के लिए आवश्यक ऊर्जा उत्पन्न करने की प्रेरणा देता है। यह ऊर्जा तपश्चर्या के माध्यम से ही उत्पन्न होती है।

व्यक्तित्व की- अन्तः चेतना को ऊपर उठाने के लिए तपश्चर्या से उत्पन्न ऊर्जा के बिना काम नहीं चल सकता है। पैदल चलने को शरीर में शक्ति चाहिए। मोटर चलाना हो तो भी शक्ति की व्यवस्था जुटानी होती है। जीवन को ऊँचा उठाना हो, आगे बढ़ाना हो तो भी समर्थता उत्पन्न करके अपनी पात्रता विकसित करनी होगी।

आत्मिक प्रगति की दिशा में अभीष्ट सफलतायें प्राप्त करने वालों का इतिहास आदि से अन्त तक एक ही तथ्य प्रमाणित करता है कि उनने आवश्यक तपश्चर्या करके अपनी पात्रता विकसित की फलतः उन्हें विभूतियों, सिद्धियों से लाभान्वित होने का अवसर मिला। महामानवों से लेकर ऋषि महर्षियों तक की सफलतायें पूर्णतया उनकी तप साधना पर निर्भर रही है।

यथार्थता यह है कि भौतिक क्षेत्र की तरह ही आत्मिक क्षेत्र में भी आत्मपरिष्कार के लिए प्रबल पुरुषार्थ करने पड़ते हैं। उन्हीं के आधार पर वह क्षमता विकसित होती है जो अन्तर्गत की प्रसुप्त दिव्य क्षमताओं को जगाकर किसी को विभूतिवान् बना सके। इसी आधार पर दैवी अनुग्रह भी आकर्षित किये जाते हैं। वृक्षों का चुम्बकत्व बादलों को अपनी ओर खींचता है और उन्हें पानी बरसाने के लिए विवश करता है। धातुओं की खदानें भी इसी आधार पर बनती और बढ़ती है कि जमा हुआ धातु भण्डार अपनी आकर्षण क्षमता से दूर-दूर तक फैले हुए सजातीय कणों को खींचता रहता है और उनके खिंच-खिंचकर जमा होते रहने से खदान का आकार भण्डार बढ़ाता है। फूल खिलता है तो भौंरे प्रशंसा करने, मधुमक्खी याचना करने और तितली शोभा बढ़ाने के लिए अनायास ही जा पहुँचती है यही बात सिद्धान्ततः आत्मिक प्रगति की दिशा में अक्षरशः लागू होती है। साधक की पात्रता का विकास जिस अनुपात से होता है उसी क्रम में उसका वर्चस्व बढ़ता चला जाता है। इन दिव्य उपलब्धियों का उद्गम अन्तःक्षेत्र में भी है और व्यापक ब्रह्म सत्ता से भी अजस्र अनुग्रह बरसते हैं। दोनों ही क्षेत्रों की उपलब्धियों से साधक निहाल होता है। इतने पर भी मूल तत्व जहाँ का तहाँ है। जो पाना है उसका मूल्य चुकाया ही जाना चाहिए।

भौतिक क्षेत्र में पुरुषार्थ और उनके प्रतिफल का कर्म और भाग्य का सिद्धान्त पग-पग पर चरितार्थ होता है। पुरुषार्थी सफलता पाते और अन्य शेखचिल्ली कल्पनाओं के पंख लगाकर कल्पना लोक में उड़ते रहते हैं। आत्मिक क्षेत्र में प्रगति प्रदान करने वाला पुरुषार्थ तपश्चर्या ही है। गायत्री महाशक्ति की उपासना करने वालों के आत्मिक विभूतियों को प्राप्त करने के लिए उपयुक्त पुरुषार्थ करने का सिद्धान्त सहज ही समझ में आ सकता है, यदि वे यह समझ सकें कि आत्मिक पुरुषार्थ का नाम तपश्चर्या है। इसी मार्ग पर चलते हुए प्राचीन काल में महान आत्मवेत्ता उच्चस्तरीय सफलतायें प्राप्त कर सकने में सफल हुए हैं। भागीरथ का गंगावतरण- पार्वती का शिव वरण तप साधना से ही सम्भव हो सका था। तपस्वी दधीचि की अस्थियों से ही व्यापक असुर साम्राज्य को ध्वस्त करने वाला वज्र बना। ध्रुव को परम पद तप से ही मिला। सप्तऋषियों को उच्चस्तरीय गरिमा इसी आधार पर प्राप्त हुई। विश्वामित्र ने इसी शक्ति के आधार पर नई दुनिया बनाने का साहस किया था। परशुराम का तप ही उनके कुठार के रूप संसार भर के अनाचार से लड़ सकने की क्षमता बनकर प्रकट हुआ था। शृंगी ऋषि के तप बल से ही उनकी मंत्र शक्ति इतनी समर्थ हो सकी कि उनके आचार्यत्व में किया गया दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ सार्थक हो सका। मध्यकाल में भी भगवान बुद्ध से लेकर इस सदी के योगी अरविंद तक की परम्परा में तपश्चर्या ही प्रधान रही है।

असुर वर्ग की क्षमतायें भी तपश्चर्या के आधार पर ही उभरी थी। पुराण साक्षी है कि हिरण्यकश्यपु, रावण, कुम्भकरण, मेघनाद, मारीच, वृत्तासुर, भस्मासुर, सहस्रबाहु असुरों ने प्रचण्ड सामर्थ्य तप के बल पर ही प्राप्त की थी। भले ही वे उन सामर्थ्यों का सुनियोजन न कर पाये हों। गृहस्थ जीवन में रहते हुए कितने ही नर-नारी तप साधना के सहारे उच्चस्तरीय आत्म-शक्ति का सम्पादन कर सके हैं। गान्धारी ने नेत्र शक्ति, संजय की दिव्य दृष्टि, कुन्ती की देव सन्तान, सुकन्या के पति की वृद्धता निवारण, सावित्री का यम संघर्ष अनुसूया द्वारा तीन देवों को बाल स्वरूप जैसे घटनाक्रमों में तप की क्षमता ही उभरती हुई दिखाई पड़ती है। लोक हित के अनेक महत्वपूर्ण कार्य कर सकने वाले महामानवों में विलक्षण क्षमता का विकास साधना शक्ति के सहारे ही हो सका था। चाणक्य, समर्थ रामदास, गुरुनानक, ज्ञानेश्वर, शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस आदि के द्वारा लोकहित के जो महत्वपूर्ण काम बन पड़े उससे उनके तपस्वी जीवन की गरिमा प्रकट होती है। तप साधना के स्वरूप भिन्न-भिन्न हो सकने पर उन सबमें व्यक्तित्व को पवित्र परिष्कृत, प्रखर बनाने वाली कष्टसाध्य जीवनयापन प्रक्रिया का समावेश तो निश्चित रूप से ही रहेगा। सरलतापूर्वक, स्वल्प श्रम में पूजा पाठ करके गायत्री का अनुग्रह और आलोत्कर्ष का लाभ किसी को भी नहीं मिल सका है। भगवद् भक्ति भावुकता मात्र नहीं है। जीवनयापन की रीति-नीति में आदर्शवादिता के लिए कष्ट सहन करने की नीति का समावेश किये बिना उपासना का मूल प्रयोजन पूरा ही नहीं होता।

सामान्य व्यक्तियों में स्वार्थ परायणता, लोक लालसा और विषय तृष्णा ही छाई रहती है जबकि महामानव देवी परम्पराओं को इस प्रखरता के साथ अपनाते हैं कि उसके सम्मुख पशुता को परास्त होते और पलायन करते ही देखा जा सकता है। स्वार्थ और परमार्थ के संघर्ष में कौन विजयी होता है? पशु और देवता में से कौन जीतता है? इसका उत्तर इसी बात पर निर्भर है कि मानवी श्रमशीलता अपना समर्थन और योगदान किस पक्ष को प्रदान करती है। इस सन्दर्भ में धर्म युद्ध होना सुनिश्चित है। उस धर्म युद्ध में जिसको जितना शौर्य साहस एवं त्याग बलिदान प्रस्तुत करना पड़े, उसे उसी स्तर का तपस्वी कहा जा सकता है जिसने जितनी तप शक्ति अर्जित की समझना चाहिए वह आत्मिक प्रगति के लक्ष्य की ओर उतना ही आगे बढ़ा, महाप्रज्ञा का अनुदान उसे उतना ही मिला।

आत्मिक प्रगति का जिन्हें महत्व समझना हो उन्हें उस उपलब्धि का उचित मूल्य चुकाने का भी साहस उत्पन्न करना चाहिए। सिद्धियाँ सदा ही पुरुषार्थियों को प्राप्त रही हैं। विजयश्री शूरवीरों के ही हिस्से में आई है। आध्यात्मिक क्षेत्र का शौर्य साहस- पौरुष पराक्रम तप साधना के रूप में ही जाना जाता है। यहाँ एक बात पूरी तरह स्मरण रखी जानी चाहिए कि अकारण काया कष्ट देने को नहीं। उच्चस्तरीय आदर्शों के परिपालन में शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना आवश्यक है। इसी को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करना तप साधना कहलाता है। गायत्री की कृपा इससे कम में नहीं मिलती।


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