योगानुभूतियों का एक ही राजमार्ग आत्म नियंत्रण

January 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

संकल्प शक्ति का चमत्कारों में एक यह भी है कि व्यक्ति अपनी काया पर इच्छित नियन्त्रण प्राप्त करले और उनके अवयवों का इच्छित प्रयोग कर सके।

आमतौर से ऐसा होता नहीं है। सचेतन मस्तिष्क का शरीर पर सीमित आधिपत्य है। यों हाथ-पैर की हलचलें उसी के आदेश से होती हैं। कमाने खाने से लेकर दिनचर्या से सम्बन्धित कार्य उसी की योजना से चलते हैं। इतने पर भी यह कहा जा सकता है कि अवयवों की आन्तरिक गतिविधियों पर विचार मस्तिष्क का कोई नियन्त्रण नहीं है। वे अचेतन के निर्धारण का अनुगमन करती है। रक्त संचार ,श्वास-प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष पर विचार मस्तिष्क का कोई नियन्त्रण नहीं। वह उनमें से किसी को भी स्वसंचालित गतिविधियों को न तो रोक सकता है और न बढ़ा सकता है। पाचन तन्त्र, मल-विसर्जन, स्वेद जैसी गतिविधियाँ किसी की अनुमति की प्रतीक्षा नहीं करती। वरन् इनके दबावों के अनुरूप सचेतन को इनकी आवश्यकतानुसार व्यवस्था बनाने को बाधित होना पड़ता है। मल-मूत्र, छींक, हिचकी, खाँसी आदि का वेग उभरने पर उसे रोक सकना नहीं बन पड़ता वरन् तद्नुरूप आचरण करने के लिए अवयवों को बाधित होना पड़ता है।

मनुष्य शरीर का स्वामी है, यह बात जितनी सच है उतनी ही यह भी सही है कि शरीर की आवश्यकताओं और उचंगों को पूरा करने के लिए विचार तन्त्र को बल पूर्वक बाधित होना पड़ता है। पेट में भूख लगी हो, नींद की खुमारी चढ़ी हो तो मस्तिष्क को उसकी व्यवस्था जुटाने के लिए विवश होना पड़ता है। ऐसी दशा में उसे शरीर का गुलाम भी तो कहा जा सकता है।

प्रत्यक्ष कर्म ही सचेतन की इच्छानुसार हो सकते हैं। पर इस समूची मशीन की निजी व्यवस्था पर आन्तरिक हलचलों पर किसी का कोई नियन्त्रण नहीं। पाचक रस उत्पन्न न हो तो अपच का मरीज दवा-दारू खोजने के अतिरिक्त और क्या करे? रक्तचाप, मधुमेह, अनिद्रा, तनाव आदि को कोई चाहता बुलाता थोड़े ही है। वे तो अनचाहे मेहमान की तरह अनायास ही आ धमकते हैं। आश्चर्य यह कि यह कहीं बाहर से नहीं आते भीतर से ही उपजते हैं। अपने ही खेत में अनचाही फसल उगने का यह कौतुक आये दिन देखना पड़ता है। इससे विदित होता है कि खेत अपना होने पर उसमें खर-पतवार उगना या कृमि कीटकों का उपज पड़ना किसी दूसरी ऐसी व्यवस्था के अन्तर्गत चलता है जो मालिकी का दावा करने वाले की परवाह किये बिना अपनी मर्जी करता है।

आत्म नियन्त्रण को योगाभ्यास का मूलभूत उद्देश्य माना गया है। इसके तीन पथ हैं। एक वह जिसे स्वभाव, आदत, अभ्यास कहते हैं। सभ्यता, संस्कृति इसी को कहते हैं। शिष्टाचार, सज्जनता, नियमितता आदि सद्गुणों को आत्म नियन्त्रण की परिधि में ही गिना जायेगा। इस क्षेत्र का अनुशासन जिनने नहीं सीखा वे आलसी, प्रसादी, गन्दे, असभ्य स्तर के होते हैं और ऐसे आचरण करते हैं जिससे कुरुचि उत्पन्न हो और भर्त्सना प्रताड़ना सहनी पड़े। आत्म नियन्त्रित व्यक्ति इन दुर्गुणों से बचे रहते हैं और प्रतिष्ठित नागरिकों में गिने जाते हैं।

आत्म नियन्त्रण का दूसरा पथ है विचारों पर नियन्त्रण। मस्तिष्क का लिव-लिवा पदार्थ यों अपनी ही खोपड़ी की पिटारी में कसा जकड़ा होता है फिर भी उसमें उठने वाली विचार तरंगें हिरनों की तरह किसी भी दिशा में कुलाचें भरती और बन्दरों की तरह कुछ भी उचक-मचक करती रहती हैं। बेसिर पैर से विचार उमड़ते रहते हैं। उनमें कितने ही अनर्गल, असम्भव, उपहासास्पद तक होते हैं। उनके कारण मस्तिष्कीय शक्ति का अपव्यय भी बहुत होता है और कई बार तो उद्वेग, उन्माद तक उठ खड़ा होता है। ऐसे बेतुके लोग जब किसी प्रसंग में सही सोचने तक में समर्थ नहीं होते तो फिर कुछ महत्वपूर्ण काम आरम्भ या पूरा कर सकेंगे इसकी आशा ही कैसे की जाय?

विचारों पर नियन्त्रण को मनोनिग्रह कहते हैं। मन को वश में करने के लाभों का अध्यात्म शास्त्र में सुविस्तृत माहात्म्य बताया गया है। मनोविज्ञान की दृष्टि से भी इस नियमन के लिए प्रशिक्षण एवं वातावरण बनाने के लिए प्रयत्न किया जाय। ‘ब्रेन वाशिंग’ के नाम से इस क्षेत्र की धुलाई के वैज्ञानिक प्रयास भी चल रहे हैं। साहित्य और कला के प्रशिक्षण और प्रचार के अनेकानेक उपचार उसी प्रयोजन के लिए प्रयुक्त होते रहते हैं। सभ्यता के विकास में शिक्षा का कितना बड़ा योगदान है इसे सभी जानते हैं। शिक्षा और कुछ नहीं विचार क्षेत्र को विस्तृत करने की विधि व्यवस्था मात्र है।

आत्म नियन्त्रण का तीसरा क्षेत्र है अचेतन की गहराई तक सचेतन की पहुँच। स्थिति को समझने और आवश्यकतानुरूप उसमें हस्तक्षेप एवं परिवर्तन का कौशल। इसे हठयोग कहा जाता है। हठयोग अर्थात् शरीर के आन्तरिक क्रिया-कलापों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन परिवर्धन।

सामान्यतया शरीर संचालन का क्रम प्रकृति प्रेरणा के अनुसार ठीक ही चलता रहता है पर उनमें कई बार विकृतियाँ ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देती हैं जिनको सुधारना चिकित्सा या शल्य क्रिया द्वारा भी नहीं बन पड़ता। उसमें परिवर्तन करने के लिए अचेतन के साथ जुड़े हुए तारों को हिलाना-जुलाना पड़ता है। चूँकि यह क्षेत्र विचार बुद्धि की प्रभाव परिधि से बाहर है उसमें हेर-फेर करने के लिए अचेतन क्षेत्र का आश्रय लेना पड़ता है। यह हर किसी के बस की बात नहीं। इसे कर सकना उन्हीं के लिए सम्भव है जो योगाभ्यास के माध्यम से इस स्तर की क्षमता अर्जित कर लेते हैं।

दीर्घ जीवन के लिए- जीवकोषों को विश्राम देने की आवश्यकता पड़ती है। यह कार्य हृदय और मस्तिष्क की गतिविधियों को कुछ समय के लिए रोक देने से ही सम्पन्न हो सकता है। यह विराम सामान्यतया मनुष्य के बलबूते से बाहर है फिर भी समाधि के अभ्यास से उस स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है जिसे अर्धमृत्यु के समतुल्य ठहराया जा सके। समाधि साधना से योगीजन पुराने शरीर में रहते हुए भी उसे समय-समय पर बार-बार नवीन कर लेते हैं। एक ही जन्म में कई जन्मों की जीवन यात्रा का लाभ लेते हैं।

समाधि स्थित में बाह्य मस्तिष्क का दबाव अचेतन पर से हठ जाता है। ऐसी दशा में उन्हें महा चेतन के साथ सम्बन्ध जोड़ने से सरलता मिल जाती है। इस स्थिति में उसे वह जानने, देखने, सुनने, समझने का अवसर मिलता है, जो इन्द्रिय शक्ति के सहारे सम्भव नहीं। इस स्थिति को दिव्य दर्शन या अवरोधानुभूति कहते हैं।

अतीन्द्रिय क्षमताओं का क्षेत्र अचेतन है। उसे यदि अवसर मिले तो इन्हें जगाने, उभारने में अपनी सामर्थ्य को केन्द्रित करे पर कठिनाई यह है कि अवयवों की आन्तरिक व्यवस्था सम्भालने में निरन्तर व्यस्त रहते उसकी अधिक शक्ति चुक जाती है। इस व्यस्तता से समय-समय पर छुटकारा दिलाना और निर्वाह शकट खींचने से आगे बढ़कर कुछ ऊँचा पराक्रम करना जिस स्थिति में होता है उस विश्रान्ति को समाधि कहते हैं। आत्म नियन्त्रण की यह सर्वोच्च स्थिति है।

अचेतन पर प्रभुत्व जमा सकने के लिए जैसी प्रचण्ड संकल्प शक्ति की आवश्यकता है उसे अर्जित करने के लिए कई प्रकार की तितिक्षाएँ करनी होती हैं। तपश्चर्या विधान में ऐसे कितने ही कृत्यों का समावेश है जिनमें दैनिक अभ्यासों में गतिरोध उत्पन्न करने जैसी लड़ाइयाँ अपने आप से लड़नी पड़ती हैं। हठयोगी तपस्वी यही करते रहते हैं और अन्ततः समाधि स्थित तक पहुँचते हैं।

समाधि की चरम स्थिति वह है जिसमें हृदय और मस्तिष्क अपना शरीरगत क्रिया-कलाप घटाकर न्यूनतम कर लेते हैं। पर यह आवश्यक नहीं है कि हर किसी को इसी स्थिति तक पहुँचना पड़े। भाव परक ध्यान जैसे उपायों से सामान्य जन भी अन्तः क्षेत्र को एक सीमा तक शिथिल कर सकते हैं और उतने से भी समाधि का आँशिक लाभ ले सकते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118