अपनों से अपनी बात

January 1984

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अकेले न रहें- विस्तार में जुट पड़ें

अखण्ड ज्योति के पाठक परिजनों की गरिमा का मूल्याँकन उसके सूत्र संचालक, उनकी सुरुचि श्रद्धा एवं आदर्शवादिता के स्तर को देखते हुए करते हैं। सामान्यजनों का आदर्शों के प्रति कोई लगाव नहीं जबकि पाठक न केवल उस दिशा में रुचि लेते हैं, वरन् युग धर्म के निर्वाह का यथा सम्भव प्रयास भी करते हैं। उन्हें स्वयं भी अपनी आन्तरिक वरिष्ठता और विशिष्टता का अनुभव इसी रूप में करना चाहिए। साथ ही यह भी ताना-बाना बुनना चाहिए कि इस प्रभात पर्व की पुण्य बेला में उनका अतिरिक्त योगदान भी अनुकरणीय स्तर का होना चाहिए।

मुर्गा ब्राह्मण मुहूर्त की पूर्व सूचना देने और जो जग सकें उन्हें जगाने के लिए बाँग लगाने की जिम्मेदारी निभाने भर से यशस्वी हो गया। उषा सूर्योदय से पूर्व मुस्कराती भर है। पक्षियों का कलरव दिनकर के अभिनन्दन में किसी बड़ी स्वागत समारोह से कम नहीं आँका जाता। फूल खिलते तो अपनी डालियों पर ही हैं पर समझा यह जाता है कि वे दिनमान की अभ्यर्थना में मुखर हो चले। नगण्य का भी अपना महत्व होता है। परमाणु में भी सामर्थ्य होती है। स्वल्प पूँजी वाले दीपक भी देवता की आरती का श्रेय पाते हैं। अखण्ड ज्योति परिजनों की पुष्पमाला बाजारू मूल्य की दृष्टि से उपहासास्पद भी हो सकती है, पर उसके द्वारा युग देवता का जो शोभायमान श्रृंगार होने जा रहा है, उसे अपने स्थान पर अपने ढंग का अनोखा ही कहा जा सकता है।

अब हमें अपने परिवार के विकास-विस्तार की बात सोचनी चाहिए। केला कटने और फलने के साथ ही तने में से सौ पौध विकसित कर देता है, जो उसका वंश चलाती ही नहीं, बढ़ाती भी रहें। बाँस भी यही करता है। उसकी जड़ें भी नये अंकुर फोड़ती रहती हैं। परिपक्व होकर कटने तक की स्थिति तक पहुँचने से पहले ही वह अपने वंशधरों की इतनी संख्या बढ़ा चुका होता है। कि उसका एकाकी अस्तित्व एक शोभायमान झुरमुट रूप में विकसित हो चले।

कहते हैं मनु-शतरूपा या आदम-हब्बा के संयोग से मानवी सृष्टि उत्पन्न हुई। यह विकासक्रम असुरों ने ही नहीं देवताओं ने भी सम्पन्न किया है। अकेले हनुमान ने राम भेंट के उपरान्त सुग्रीव को उकसाया और दूर-दूर तक बिखरे रीछ वानरों को समेट कर समुद्र बाँधने के मोर्चे पर जुटाया। असहाय पाण्डवों का अपना जीवन निर्वाह ही कठिन था, कौरवों से लड़ने के लिए सेना कहाँ से बनती? यह कार्य कृष्ण के बड़े भाई बलराम ने अपने कन्धों पर उठाया और एक समर्थ सैन्य दल मोर्चे पर ला खड़ा किया। यह देवताओं का वंश वृद्धि क्रम है।

राणाप्रताप और छत्रपति शिवाजी स्वतन्त्रता संग्राम के लिए प्रतिज्ञाएँ लेते समय सर्वथा एकाकी थे। संकल्प के उपरान्त वे सहयोगियों की तलाश में निकले। यों उन दिनों आतंक का साम्राज्य था और हर कोई अपनी प्राण रक्षा के लिए चिन्ताग्रस्त था तो भी गोताखोरों के हाथ मोती लगे और उस माहौल में भी उन्हें साथ मिल गये। जुझारू दल बने। दीपक से दीपक जले और कारवाँ बढ़ता ही रहा। देर तो लगी पर प्रतिज्ञा पूरी होकर रही। भारत स्वतन्त्र है, जैसा कि उन दो संकल्प वालों ने चाहा और व्रत अपनाया।

बुद्ध घर से निकले तो सर्वथा एकाकी थे। तप करने के दिनों भी वे अकेले थे। बुद्धत्व प्राप्त करने के उपरान्त उनकी अन्तरात्मा ने कहा अकेलापन पर्याप्त नहीं तिनके समेटने से रस्सा बटा जायेगा। सींकों से बुहारी बनेगी। ईंटें इकट्ठी किये बिना भवन कैसे बने। जब राम को रीछ बानरों की, और कृष्ण को ग्वाल-बालों की आवश्यकता पड़ी तो एकाकीपन अपनाकर मैं ही प्रभु प्रेरणा को पूरी करने में किस प्रकार समर्थ हो सकूँगा? टोली बनाऊँ। मण्डली जमा करूँ। बुद्ध निकले। था तो सर्वत्र अंधेरा। हाथ को हाथ नहीं सूझा था। फिर भी साहस तो साहस जो ठहरा। बुद्ध हुँकारे तो कुहराम मच गया। एक मुर्गा बोला तो उसके बिरादरी वाले भी चुप न रहे। बाँग पर बाँग लगती चली गई। सोने वालों की नींद हराम हो गई। आखिर प्रभात उग कर ही रहा।

नाविक का साहस ही है, जो नाव को भुजदंडों के बलबूते उफनती नदी की छाती चीर कर देखता है और असंख्यों को पार उतारता है। भुजाएँ उसकी भी वैसी होती हैं, जैसी सामान्यजनों की। विशेषता पराक्रम की होती है।

युगान्तरीय चेतना का आलोक व्यापक बनाना आज अति महत्वपूर्ण कार्य है। प्रज्ञा-परिवार के परिजनों संख्या उत्साहवर्धक तो है, पर सन्तोषजनक नहीं। 500 करोड़ जन समुदाय का चिन्तन चरित्र और व्यवहार बदलने की दृष्टि से हम मुट्ठी भर लोग बहुत ही कम हैं। हमें वंश−वृद्धि करनी चाहिए। अपने जैसे अन्य खोजने, बनाने, उगाने, पकाने के प्रयत्न में हमें लगना चाहिए। अन्यथा बढ़ती हुई भ्रांतियाँ, विकृतियाँ दुष्प्रवृत्तियाँ अगले दिनों अपनी बाढ़ में सब कुछ बहा ले जायेंगी। जो संचित सभ्यता को डुबो देने में समर्थ होंगी। रोकथाम तो होनी ही चाहिए। चोरों की बारात को चुनौती देने के लिए युग प्रहरियों को भी तो कटिबद्ध होना चाहिए। मोर्चा संभालने के लिए मुट्ठी भर सैनिक पर्याप्त नहीं होते। उनका संख्या बल भी बढ़ना चाहिए और स्तर भी। आज की एक महती आवश्यकता है, जिसे पूरा करने के प्रज्ञा परिवार के वर्तमान परिजन भी बहुत कुछ कर सकते हैं।

यों करने को तो इन दिनों एक से एक बड़े काम सामने पड़े हैं। विनाश से जूझने और सृजन को समर्थ बनाने के लिए इतना कुछ करने के लिए पड़ा है, जिसके लिए हजारों परशुराम, भगीरथ, दधीचि, हरिश्चन्द्र भी कम पड़ेंगे, पर उतना न सही हम सभी टिटहरी-गिलहरी जैसे अपने अकिंचन अनुदान तो प्रस्तुत कर ही सकते हैं। केवट की तरह युग देवता के सहयोग में नाव खेने जैसा श्रमदान तो बन ही पड़ सकता है। अन्यत्र जा सकना सम्भव न हो, कोई बड़ा काम करने का साहस न हो तो भी इतना तो करना ही चाहिये कि जहाँ रहते हैं वहाँ बुहारी लगायें, दीपक जलायें और प्रगतिशीलों जैसा वातावरण बनायें। सम्पर्क क्षेत्र को सुविस्तृत बना सकना सम्भव न हो तो उस निमित्त परिवार की चहार दीवारी, तो कार्य क्षेत्र बन ही सकती है।

इन दिनों प्रज्ञा परिवार को स्वाध्याय मण्डलों के रूप में संगठन खड़े करने और प्रकाश वितरण में जुटाने के लिये कहा गया है। विचार क्रान्ति की प्रज्ञा अभियान की व्यापकता इससे कम में बन नहीं पड़ेगी। युग चेतना से अवगत-अनुप्राणित व्यक्ति ही इस योग्य हो सकते हैं कि युग धर्म पहचानें। युगशिल्पी बनें और युग प्रहरी के रूप में जन जागरण का माहौल बनायें। इस सन्दर्भ में सबसे पहला काम समय की पुकार सुनने और परिवर्तन की पृष्ठभूमि समझना है। स्वाध्याय मण्डलों को यही काम सुपुर्द किया गया है।

स्वाध्याय मण्डलों का बड़ा और विस्तृत स्वरूप भी है। उसके अन्तर्गत ज्ञानरथ के रूप में चल देवालय खड़ा करने और बिना इमारत वाले प्रज्ञा संस्थानों का संचालन करने की बात भी है। एक कार्यकर्ता की नियुक्ति से न केवल हर शिक्षित को घर बैठे बिना मूल्य नियमित रूप से स्वाध्याय की सुविधा प्रस्तुत की जा सकती है। वरन् साथ-साथ सत्संग का उपक्रम भी चलता रह सकता है। स्लाइड प्रोजेक्ट, टेप रिकार्डर जैसे उपकरणों से कोई सामान्य व्यक्ति घर-घर में गली-मुहल्लों में प्राणवान सत्संग की व्यवस्था निरन्तर बनाये रह सकता है। पूँजी जुटाने के लिए स्मारिका प्रकाशन की और नियुक्त कार्यकर्ता के निर्वाह के लिए जन्म दिवसोत्सव मनाने और उस अवसर पर ज्ञानघट स्थापित करने की रीति-नीति अपनाई गई है। यह बड़े स्वाध्याय मण्डलों की बात हुई। इसके लिए थोड़ी दौड़-धूप करने, सम्पर्क बनाने और साधन जुटाने की आवश्यकता पड़ेगी। प्रतिभावानों से कहा गया है कि वे अपने व्यस्त कार्यक्रमों में एक छोटी प्रक्रिया यह भी सम्मिलित करते रहें और निर्वाह क्रम में बिना किसी प्रकार का हर्ज किये इस सरल किन्तु दूरगामी सत्परिणाम प्रस्तुत करने वाली परमार्थ व्यवस्था को भी चलाते रहें। स्वाध्याय मण्डलों का संस्थापन और संचालन ऐसा कार्य है, जिसे कोई भी भावनाशील उत्साही व्यक्ति एकाकी प्रयास से भली प्रकार चलाता रह सकता है।

जो इतना न कर सकें संकोचशीलता अथवा व्यस्तता जिनके आड़े आती हो, वे अपने घर-परिवार की परिधि में चल सकने वाला स्वाध्याय मंडल बनालें। घर के शिक्षितों को प्रज्ञा साहित्य पढ़ाने और अशिक्षितों को सुनाने की यदि नियमित व्यवस्था चल पड़े तो समझना चाहिए कि इससे भी पारिवारिक स्वाध्याय मण्डल बन गया। घर के छोटे-बड़े सदस्यों के सहारे भी यह प्रक्रिया गतिशील हो सकती है। आखिर परिवार भी तो एक छोटा समाज या राष्ट्र ही है। उतने क्षेत्र में भी लोक मानस का परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संवर्धन का प्रयास बन पड़े तो समझना चाहिए कि छोटे खेत में बोया गया बीज भी अगले दिनों टोकरी भर धान्य के रूप में विकसित होगा।

अखण्ड ज्योति पाठक पत्रिका मँगाते और स्वयं पढ़ कर उसे एक कोने में रख देते हैं। अब आगे से यह होना चाहिए उसे घर के शिक्षितों को पढ़ने के लिये दबाव डालें और अशिक्षितों को पढ़ कर सुनाया करें। अखण्ड ज्योति की पूरक दूसरी पत्रिका है युग निर्माण योजना। उसे भी मँगाना आरम्भ कर दें। दो मासिक पत्रिकायें पढ़ने-पढ़ाने से युग चेतना का दीपक अपने छोटे परिवार में प्रकाश वितरण की उत्साहवर्धक भूमिका निभा सकता है। परिवार को आदर्शवादिता की ओर अग्रसर करना भी युग सृजन का ही छोटा किन्तु महत्वपूर्ण अंग है। पत्रिकाओं को घर से बाहर के सम्पर्क क्षेत्र में भी पढ़ाने-लौटाने के लिये भी बिना कुछ अतिरिक्त समय खर्च किये प्रयत्न किया जाता रह सकता है। एक पत्रिका को कम से कम दस पढ़ें, इतना भी नियमित रूप से बन पड़े तो समझना चाहिए कि विचार क्रान्ति की प्रज्ञा अभियान की वंशवृद्ध योजना अग्रगामी हो चली।

इसी प्रक्रिया में थोड़ा और अधिक उत्साह उभरे, तो फिर घरेलू प्रज्ञा पुस्तकालय की स्थापना की जाय। इन दिनों मिशन के सूत्र संचालक प्रतिदिन एक प्रज्ञा फोल्डर लिखते हैं। इसे लिख चुकने के बाद ही जल ग्रहण करते हैं। इस नव सृजित प्रज्ञा साहित्य को नियमित रूप से अपने घर मँगाने का प्रबन्ध करने की व्यवस्था की जा सकती है। हर फोल्डर का लागत मूल्य चालीस पैसा है। यह इतने मजबूत कागज पर छपे हैं कि सौ व्यक्तियों द्वारा पढ़ लिये जाने पर भी स्थिरता-सुन्दरता यथावत् बनी रहती है। चालीस पैसा प्रतिदिन की कटौती अन्य कार्यों में से करके परिवार की प्रज्ञा सम्पदा बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम उठाया जा सकता है। इसे पारिवारिक वैभव वृद्धि के लिए बचाई, जुटाई या लगाई गई राशि कहा जा सकता है।

पत्रिकायें तो महीने में एक ही बार आती हैं पर यह फोल्डर हर दिन नई प्रेरणा लेकर लिखे और पहुँचाये जाते हैं। इससे पढ़ने वालों को नित नया पाने की उत्सुकता बनी रहती है और उगा हुआ उत्साह नियमित भोजन मिलते रहने के कारण ठंडा नहीं पड़ने पाता। जिनके लिए सम्भव हो वे घरेलू प्रज्ञा पुस्तकालय स्थापित कर लें और पारिवारिक परिधि में काम करने वाला स्वाध्याय मंडल चलाना आरम्भ कर दें।

स्वाध्याय के साथ-साथ सत्संग का भी अन्न जल जैसा युग्म है। सत्संग के लिए रात्रि को प्रज्ञा पुराण कथा चल पड़नी चाहिये। घर के सभी छोटे-बड़े उसे श्रद्धापूर्वक सुनें। कहने का अभ्यास करने से वक्तृत्व कला का विकास होता है। प्रेरणाप्रद कथायें सुनने की पुरातन परम्परा को पुनर्जीवित करने की प्रक्रिया ऐसी है जिससे भाव चेतना में उत्कृष्टता भरने का उपचार सहज ही चलता रह सकता है और उस आधार पर घर में देव परम्परा के प्रति सभी का श्रद्धा विश्वास बना रह सकता है। यह उज्ज्वल भविष्य का प्रतीक चिन्ह है। महिलायें प्रज्ञा पुराण कथा तीसरे पहर कथा कहकर परिवारगत अथवा मुहल्ले में सत्संग प्रक्रिया चलाती रह सकती हैं। प्रज्ञा पुराण एक खण्ड छप चुका है दूसरा, तीसरा खण्ड अगले महीनों में छप जाने की आशा है। जिनने प्रथम खण्ड पढ़ा है वे दूसरे और तीसरे खण्डों के लिए के लिए साल भर से प्रतीक्षा कर रहे हैं।

अगले दिनों पारिवारिक सत्संग प्रयोजनों के लिए टेपों की योजना बनी है। उनमें जीवन निर्माण के भक्ति-भावना के नव-सृजन के गीत रहेंगे। बच्चों के लिए, युवकों के लिए, महिलाओं के लिये, वृद्धों के लिये हर स्तर की कथा, संस्मरण एवं प्रेरक प्रसंगों की भरमार रहेगी। जिनके पास टेप रिकार्डर हैं वे इस योजना से लाभ उठाते रहेंगे। अपने तथा दूसरों के घरों में यह सत्संग लाभ प्रस्तुत करते रहेंगे।

प्रतिदिन पच्चीस पैसे का बजट बना दिया जाय तो उतने भर से दोनों मासिक पत्रिकायें, दैनिक प्रज्ञा फोल्डर वार्षिक प्रज्ञा पुराण का युग साहित्य खरीदा और पढ़ाया जा सकता है। पारिवारिक बजट में इतनी राशि और बढ़ानी पड़े और इसके लिए किन्हीं कम महत्व के कार्यों में कटौती करनी पड़े तो समझना चाहिए कि यह एक बुद्धिमत्ता पूर्ण कदम उठा और उपयोगी संतुलन बन पड़ा। घरेलू स्वाध्याय मंडल की स्थापना इतने भर से हो गयी और उस आधार पर स्वाध्याय एवं सत्संग की उभय पक्षीय प्रक्रिया बन पड़ी। इस आधार पर अपने स्वजन सम्पर्क में यह बीजारोपण हो सकता है जिसके लिए प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का उद्घोष किया जाता रहा है।

‘हम बदलेंगे युग बदलेगा’ ‘हम सुधरेंगे युग सुधरेगा’ का संकल्प पूरा करने के लिये अग्रगामियों को कुछ तो करना ही होगा। आदर्श उपस्थित करके ही अन्यान्यों को अनुकरण की प्रेरणा दी जा सकती है। युग परिवर्तन का वातावरण व्यापक बनाने के लिये उसका श्रीगणेश अपने घर परिवार से किया जा सकता है। उसके लिये किसी से परामर्श की, सहयोग अर्जित करने की आवश्यकता नहीं, इतना तो हममें से कोई भी कर सकता है। भावनात्मक वंश वृद्धि के लिये बाहरी क्षेत्र में प्रवेश करने, कदम बढ़ाने में कठिनाई प्रतीत होती हो तो घर परिवार में तो किसी रोकथाम की व्यवधान की कठिनाई नहीं है।

स्वाध्याय सत्संग की तरह ही भावनात्मक नवनिर्माण का एक माध्यम आस्तिकता अभिवर्धन भी है। धार्मिकता आध्यात्मिकता की तरह आस्तिकता भी भावना, चेतना में उत्कृष्टता अभिवर्धन का एक नितान्त आवश्यक माध्यम है। अखण्ड ज्योति परिजन न केवल विचार विस्तार की आवश्यकता समझें वरन् उसके साथ-साथ घर में आस्तिकता का वातावरण बनाने के लिए प्रयत्न करें। इस आधार पर चरित्र चिन्तन और व्यवहार में देवत्व का अभिवर्धन होकर चिरस्थाई सुख-शांति के लिए इसकी भी महती आवश्यकता है। आस्तिकता का बीजारोपण एवं परिपोषण करने के लिए न्यूनतम उपासना की भी एक मर्यादा बन चले। यह प्रज्ञा युग की अवतरण बेला है। गायत्री महामन्त्र में युग प्रज्ञा के समस्त तत्वों का समावेश है। किसी उपयुक्त स्थान पर महाप्रज्ञा गायत्री का एक चित्र स्थापित किया जाय। पूजा स्थल रहे उस पर चित्र प्रतिमा सजे तो और भी अच्छा अन्यथा दीवार पर चित्र इस प्रकार लगाया जाय कि उसका दर्शन और नमन-वन्दन हर किसी के लिए सम्भव हो सके। अगरबत्ती जला देने से भी यज्ञ पिता की प्रतीक पूजा भी साथ-साथ होती रह सकती है। दीवार पर स्थापित करना हो तो उसके नीचे एक लकड़ी की पट्टी भी लगा देनी चाहिए, अगरबत्ती जलाने के लिए चित्र टीन पर छपे हरिद्वार, मथुरा से मिल जाते हैं।

न्यूनतम उपासना यह हो सकती है कि सिर झुकाकर हाथ जोड़कर आँखें बन्द करके चौबीस बार मन ही मन गायत्री मंच का मानसिक जप कर लिया जाय और साथ ही प्रातःकालीन अरुणोदय के रूप में स्वर्णिम सविता का ध्यान करते रहा जाय। ध्यान का अर्थ छवि दर्शन ही नहीं उसकी प्राण ऊर्जा का व्यक्तित्व के कण-कण में समावेश की भावना करनी भी है। चौबीस मंत्र जपने में तीन मिनट लगते हैं। इतनी ही देर साथ-साथ सविता का ध्यान और दिव्य प्रकाश का अन्तः चेतना में अवतरण की भावना भी करते रहा जाय। इतने भर से न्यूनतम उपासना हो सकती है और उसका भोजन करने से पूर्व कोई भी निर्वाह कर सकता है। इसमें तो स्नान जैसा बंधन भी नहीं है।

स्वाध्याय, सत्संग और साधन की त्रिविधि प्रक्रिया अपने घर परिवार में चल पड़े तो पड़ौसियों मित्रों, परिचितों, सम्बन्धियों तक में भी आलोक वितरण की इस प्रक्रिया को अग्रगामी बनाया जा सकता है। अपने प्रज्ञा पुस्तकालय का लाभ उन्हें भी दिया जाने लगे, इसमें थोड़े से मनोयोग भर की आवश्यकता है। घर में आते-जाते रहने वाले या दफ्तर कारखाने में नित्य ही मिलते जुलते रहने वालों को अपने पुस्तकालय के प्रज्ञा फोल्डर एवं पत्रिकाओं के अंक पढ़ने के लिये दिये जाते रहें तो समझना चाहिए कि ज्ञान यज्ञ को व्यापक बनाने की सेवा साधना का निर्वाह भी साथ-साथ चल पड़ा।

प्रतिभायें सदा अपने सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित करने में सफल होती रही हैं। बुरे लोगों में भी जब मान्यता और क्रिया का समन्वय रहता है तो वे अपने जैसे अनेकों अनुयायी सहचर विनिर्मित कर लेते हैं। व्यसनी, चोर, लवार, लम्पट जब अपने गिरोह खड़े कर लेते रहते हैं। अनेकों को इन दुष्प्रवृत्तियों की ओर ललचाने सिखाने में सफल होते हैं तो कोई कारण नहीं कि आदर्शवादिता यदि जीवन्त स्तर की हो तो अपना विकास विस्तार न कर सके।

इन पंक्तियों में युग चेतना को अग्रगामी बनाने के लिये घरेलू स्वाध्याय मंडल की स्थापना के लिए कहा जा रहा है। अपने परिवारों में से एक भी ऐसा न रहे जिसमें हर छोटे किन्तु दूरगामी परिणाम प्रस्तुत करने वाले प्रयास के लिए उत्साह प्रदर्शित न किया गया हो। भावनात्मक वंश वृद्धि के लिए उन सभी को कहा जा रहा है कि अपने जैसे दस और विचारशील उत्पन्न करें। प्रज्ञा परिजन अगले वर्ष तक एक करोड़ बन कर रहे। 500 करोड़ों को बदलने के लिए इससे कम से काम चल नहीं रहा है।


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