राज दरबार में एक बहरूपिया आये दिन बदल-बदल कर स्वाँग बनाकर जाया करता था। इनाम भी लाता।
राजा ने एक दिन कहा- ‘ऐसा स्वाँग बनाओ, जिसमें पहचाने न जाओ। ऐसा कर सकने पर एक स्वर्ण मुद्रा इनाम में मिलेगी।’
बहरूपिया वायदा करके चला गया। उसका फिर कुछ पता न चला। कुछ दिन बाद चर्चा फैली कि पास के जंगल में एक महात्मा आये हैं जिनकी तपस्या चकित करने वाली है। वे किसी का दिया कुछ लेते नहीं।
चर्चा राजा तक पहुँची। वे दर्शनों के लिए लालायित हो उठे। परिवार समेत वहाँ पहुँचे और बहुमूल्य भेंट पूजा साथ ले गये। साथ में सौ स्वर्ण मुद्रा भी थीं। तपस्वी को देखकर दंग रह गये। उसकी तितीक्षा, मौन साधना और निस्पृहता वैसी ही थी जैसी कि सुनी गई थी। राजा ने चरण रज मस्तक पर लगाई और बहुमूल्य भेंट सामग्री सामने प्रस्तुत की।
तपस्वी ने लेने से इंकार कर दिया और उसे गरीबों में बाँट देने का निर्देश किया। राजा इस दर्शन लाभ से अपने भाग्य को सराहते हुए वापस लौट आये।
दूसरे दिन बहरूपिया दरबार में पहुँचा और इनाम की एक स्वर्ण मुद्रा माँगने लगा।
राजा ने आश्चर्य से पूछा- ‘तुमने क्या स्वाँग बनाया?’ बहरूपिये ने अपने तपस्वी बनने की कथा कह सुनाई और उलट कर पूछा- आप मुझे पहचान तो नहीं सकें?
राजा ने वचनानुसार एक स्वर्ण मुद्रा दे तो दी, पर साथ ही यह भी पूछा- उस दिन जब इतनी बहुमूल्य भेंट सामग्री हमने प्रस्तुत की थी। उस दिन उसे क्यों लौटाया?
बहरूपिये ने कहा- ‘उस समय सन्त का वेष धारण किये था। उसे कलंकित नहीं करना था। उस आवरण को ओढ़ने के बाद सच्चा त्यागी ही शोभा देता है।’
****
एक राजा कोढ़ी हो गया। वैद्यों ने उपचार बताया। राजहंसों का माँस खाया जाय। हंस मान सरोवर पर रहते थे। वहाँ तक कोई पहुँचता न था। साधु सन्तों की ही वहाँ तक पहुँच थी। कोई सन्त तो पाप कर्म के लिए तैयार न हुआ पर बहेलिया ने सन्त का बाना पहनकर वहाँ जाना और पकड़ना स्वीकार कर लिया।
मानसरोवर के हंस साधुओं से हिले रहते थे। उन्हें देखकर उड़ते नहीं थे। बहेलिया की बात लग गई और हंस पकड़ लिये। राजा के सामने प्रस्तुत कर दिये।
राजा सोच में पड़कर सन्त श्रद्धा से अभिप्रेत इन भावुक हंसों का स्वार्थवश वध करना अनुचित है। दया उमड़ी और हंसों को मुक्त कर दिया गया। राजा का दूसरा उपचार चलने लगा।
इस घटना का बहेलियों पर भी प्रभाव पड़ा। वे सोचने लगे जिस सन्त वेष के लिए हंसों तक में इतनी श्रद्धा है उसे ऐसे हेय प्रयोजनों के लिए कलंकित नहीं करना चाहिए। बहेलियों ने संन्यास ले लिया और वे सब सन्त बन गये।
****
ईसा शिष्य मंडली के बीच विराजमान थे। उस दिन उनने एक किसान के बीज बोने की कथा सुनाई जिसमें से थोड़े ही उगे और सब नष्ट हो गये।
कुछ दानों को चिड़ियों ने चुग लिया। कुछ कड़ी धूप में झुलस गये। कुछ कीचड़ में सड़े और कुछ झाड़ियों के बीच पड़ने से धूप-रोशनी न मिलने से उगे ही नहीं। थोड़े-से वे पौधे ही बढ़े और फले जो उपयुक्त भूमि पर बोये और सावधानी के साथ सींचे रखाये गये थे।
ईसा ने कहा उपदेश और पूजा भी तभी फलित होती है जब साधक का चरित्र और चिन्तन भी उपयुक्त स्थिति में रहे और अनुकूलता उत्पन्न करने में योगदान करे।