सन्त त्यागराज की एक कविता है- मैनें एक नदी देखी, जो बाढ़ के द्वारा तटवर्तियों को उजाड़ने के उपरान्त वैभव गँवा बैठी और सूखकर बालू मात्र रह गई। एक दिन मैंने समुद्र देखा। वह गहरा भी बहुत था और जल सम्पदा से भरपूर भी पर वह ज्वार-भाटों में सिर पटकने के अतिरिक्त और कुछ कर नहीं कर पा रहा था। मैनें एक कुआँ देखा जो असीम संचय की लालसा से स्रोतों से जल खींचता, पर नियति उसका साथ न देती। नियति उसे निश्चित सतह से ऊपर उठने ही नहीं दे रही थी।
इन विडम्बनाओं को देखकर सोचता हूँ कि कहीं जीवन भी तो ऐसा ही मखौल नहीं है।