स्वयं ही बाँध लो लय में (kahani)

January 1984

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स्वयं ही बाँध लो लय में सृजन के गीत को रचकर। किसी का क्या पता दे या न दे संकल्प वाले स्वर॥

स्वयं ही भ्रान्तियों को छोड़कर दुष्कल्पना मेटो, असीमित हो रही हो जो कि ऐसी कामना मेटो।

हरो अज्ञान का तम छा रहा है जो कुहासा बन, कि जिसने कर दिया धूमिल सितारे सा तुम्हारा मन।

स्वयं ही रोशनी के दीप वालो भ्रान्त मानस पर- किसी को क्या, तुम्हारे हित उगाये ज्ञान का दिनकर॥

पगों में शक्ति इतनी हो न हारे पूर्व मंजिल के, स्वयं दृढ़तर करो यदि टूटते हों हौसले दिल के।

चुभें यदि शूल पाँवों में निकालो हाथ से अपने, न टूटें साथ छालों के सफलता के सुखद सपने।

स्वयं लक्ष्य का दिशि ज्ञान करलो हर दिशा लखकर। किसी का क्या पता दे या न दे संकेत भी बढ़कर॥

स्वयं के ही भरोसे पर बनाओ जिन्दगी का क्रम, न दे यदि साथ कोई तो न हो विश्वास अपना कम।

सहारे तो सहारे हैं किसी दिन टूट जायेंगे, किनारे तो किनारे हैं किसी दिन छूट जायेंगे।

स्वयं ही पार तक जाओ भँवर में नाव को खेकर। किसी को क्या बचाये जो तुम्हें मँझधार में पड़कर॥

स्वयं ही दो सहारा टूटती सी मान्यताओं को, स्वयं ही आज सेहला लो हृदय की उन व्यथाओं को।

कि जिनमें है शिकायत विश्व ने हमको नहीं जाना, न सहने योग्य पीड़ा थी, मगर उसको नहीं माना।

स्वयं ही प्यास को सीमित करो जो कर रही जर्जर। किसी का क्या, पता दे या न दे परितृप्ति का निर्झर॥

*समाप्त*


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