आत्म शिक्षण के लिए पूजा उपचार की प्रक्रिया

January 1984

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मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने की प्रक्रिया कई सीढ़ियों को पार करते हुए ऊँची उठती आगे बढ़ती है। मनःशास्त्र विशेषज्ञों ने इसे चार भागों में विभक्त किया है-

1. लर्निंग (शिक्षा) 2. रिटेन्शन (धारणा) 3. री काल (पुनरावाहन) 4. रिकाग्नीशन (प्रत्याभिज्ञा)

किसी बात को सांगोपांग आद्योपान्त समझने के लिए उसका पूर्वापर संगतियों के साथ अध्ययन आवश्यक होता है। इसे गुरुजनों द्वारा भी सुना, समझा और सीखा जा सकता है। ऐसा भी हो सकता है कि पुस्तकों के सम्पर्क और घटनाओं के सहारे जाना समझा जाय। इसके लिए बाह्य माध्यम आवश्यक होते हैं। दृश्य और श्रव्य साधनों को इसमें प्रधान योगदान होता है। यह साधन उपलब्ध न हों तो ज्ञान अत्यन्त सीमित स्तर का रहेगा। भेड़िये की माँद में पले बालक जब पकड़े गये तो उनका ज्ञान और स्वभाव अपने पालनकर्ताओं से अधिक ऊँचा न था। वनवासी आदिवासी जन सम्पर्क से दूर रहते हैं। अपने सीमित लोगों के साथ ही घुलते मिलते हैं। फलतः उन्हें अन्यत्र चल रही प्रवृत्तियों की न तो जानकारी होती है और न अभिरुचि। ऐसे में उनका परम्परागत पिछड़ापन भी यथावत् बना रहता है। पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ इसी प्रकार गुजर जाती हैं।

एक ही नगर गाँव में प्रगतिशील और पिछड़े लोग पाये जाते हैं। इसका कारण अध्ययन का अन्तर है। इस वर्ग को इसके लिए उपयुक्त अवसर मिला होता है जबकि दूसरा उससे वंचित रहा या रखा गया। शिक्षा की उपयोगिता इतनी ही नहीं है कि उसके सहारे चिट्ठी-पत्री या हिसाब-किताब रखना बन पड़े। वरन् इसलिए है कि उसके सहारे घर बैठे व्यापक क्षेत्र की जानकारियाँ अर्जित की जा सकें। इतिहास द्वारा पढ़ाए गये मीठे कडुए पाठों को पढ़ा और उसके सहारे उपयोगी अनुपयोगी का अन्तर कर सकना सम्भव हो सके। यह शिक्षण-अध्ययन, सम्पर्क, प्रवास, दृश्य आदि के सहारे उपलब्ध होता है। यदि यह क्रम ठीक प्रकार चला है तो मनुष्य ज्ञानवान विचारशील बनेगा और बुद्धिमान बनने की दिशा में अग्रसर होगा। इन्हीं तथ्यों को देखते हुए शिक्षा को उदरपूर्ण की तरह आवश्यक माना गया है। उसके बिना मस्तिष्क को क्षुधार्त की तरह दुर्बल रहना पड़ता है।

मस्तिष्कीय विकास का अध्यापन प्रथम और अवधारणा दूसरा चरण है। जो सुना, समझा, देखा या सुना गया, उसमें से कितना महत्वपूर्ण समझा और उसे कितनी गम्भीरतापूर्वक लिया गया यह अवधारणा है। आये दिन असंख्यों दृश्य आँखों के सामने से गुजरते रहते हैं। कानों के छेद से कितने ही शब्द टकराते रहते हैं। यह सब कौतूहल भर होता है और क्षण मात्र में इधर से उधर उड़ जाता है। मन बहलाने भर में यह हलचलें काम आती हैं। उपेक्षा की मनःस्थिति में इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जब प्रभाव ग्रहण करने की मनःस्थिति होती है तो उन दृश्यों या श्रव्यों पर अधिक ध्यान दिया और अधिक विचार किया जाता है। कुछ निष्कर्ष निकाला जाता है और जो महत्व प्रतीक होता है उसे स्मृति पटल पर अंकित किया जाता है। यह अवधारणा सुरक्षित रहती है और समयानुसार चिन्तन को सहायता देकर किसी उपयोगी निर्णय तक पहुँचाने का माध्यम बनती है। यह विशेषता जिनमें होती है। उन्हीं को बाहुज्ञ कहते हैं। धारणा की यही विशेषता है कि जो चुना और देखा गया है उसका महत्वपूर्ण अंश संचित संस्कार में जमा होता रहे और समयानुसार काम में आये। इस उपलब्धि को संस्कार कहते हैं।

यह संस्कार या संस्मरण कई बार तो उथले होने के कारण समयानुसार विस्मृत भी हो जाते हैं। किन्तु व्युत्पन्नमति की प्रखरता होने पर ऐसा सुयोग जगता है कि किन्हीं समस्याओं के समाधान में जब आवश्यकता पड़े तो तुरन्त उभर आये और संचित अनुभवों के आधार पर नये निर्धारण को अपनी साक्षी का स्मरण दिलाते हुए कहने लायक योगदान करे। यही है पुनरावाहन। ‘री काल’ की व्युत्पन्नमति में विचारणा का सही स्तर काम आता है।

भूतकाल के अनुभवों को वर्तमान के साथ मिलाकर भविष्य निर्धारण में उसका उपयोग करने की समग्रता को बुद्धिमत्ता कहा गया है। इसे व्यक्तित्व का मस्तिष्कीय सार संक्षेप कहा जा सकता है। गुण, कर्म, स्वभाव का स्तर इसी आधार पर विनिर्मित और विकसित होता है। कौन क्या है? यह उसकी मान्यता, भावना आकाँक्षा और विचारणा का प्रवाह देखकर जाना जा सकता है। इसी पर्यवेक्षण से यह जाना जा सकता है कि व्यक्ति वर्तमान में कितना वजनदार है और भविष्य में उसका क्या हश्र होने जा रहा है। विधाता द्वारा भाग्य लेखन की बात कही जाती है। कर्माक्षरों की विचित्रता को समझ सकना, बस से बाहर की बात मानी जा सकती है। किन्तु यदि किसी को प्रत्यभिज्ञा (रिकाग्नीशन) को समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि उसकी मान्यताओं ने किस पृष्ठभूमि पर परिपक्वता प्राप्त कर ली है। प्रेरणाओं का उद्गम कहाँ जम गया। यही है वह मनःस्थिति जो किसी का भाग्य और भविष्य निर्माण करती है।

व्यक्तित्व को ढालने वाला प्रशिक्षण क्या होना चाहिये, कैसा होना चाहिए। इसका विवेचन तो किया जा सकता है पर वैसे साधन नहीं जुटाये जा सकते। इच्छित वातावरण कहाँ मिले? यह सब कुछ घुला मिला है। ईमान के क्षेत्र में भगवान की ही स्थापना नहीं, इसमें शैतान की भी साझेदारी है। जड़−चेतन से मिलकर बनाये गये इस संसार में उत्कृष्टता का प्रवाह श्वास प्रश्वास की तरह चलता है। प्राणवायु खींचने और विषवायु फैंकने की प्रक्रिया साथ-साथ ही चलती है। पौष्टिक आहार का ग्रहण ही होता रहे यह सम्भव नहीं, मल विसर्जन की जुगुप्सा भी जीवनचर्या का ही अंग है। रात्रि के अंधकार को कितना ही भयानक अनावश्यक क्यों न कहा जाय, वह दिनमान के पीछे-पीछे चलता ही रहेगा। काया से छाया को कैसे पृथक किया जाये।

इन खटमिट्ठी परिस्थितियों में एक ही उपाय शेष रह जाता है कि उच्चस्तरीय आत्म शिक्षण के लिए अपनी अलग दुनिया बसाई जाय और उस एकान्त पाठशाला में पढ़कर अभीष्ट स्तर की आवश्यकता पूर्ण की जाये। वंश−वृद्धि के लिए प्रजनन कार्य में एकान्त की आवश्यकता पड़ती है। आत्मशिक्षा के साधना का मंच भी ऐसा है जिसमें गुरु और शिष्य दो को ही साथ रहना चाहिए। प्रसव में जननी और शिशु दो पर ही आफत बीतती है और सब तो परिचर्या, सहानुभूति भर के बाहरी लोकाचार को ही निभाते रहते हैं।

बात आत्म शिक्षा के लिए साधना प्रसंग की चल रही थी। उसके लिये शिक्षण, धारण, स्मरण और प्रत्यावर्तन के चारों आधारों का समावेश आवश्यक होता है। यह व्यवस्था एकान्त उपासना के आधार पर ही बन पड़ती है। भक्त और भगवान दो के बीच ही उस स्थिति में आदान प्रदान चलता है। कथा पाठ के आधार पर दिव्य और चरित्रों का दिव्य गुणों का चित्रण मानस पटल पर बनता है। इसके लिये संसारी घटनाक्रम के साथ सम्बन्ध जोड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती वरन् दिव्य लोक में चलते रहने वाले दैवी प्रवाहों के साथ सम्बन्ध जोड़ लेने से काम चल जाता है। भगवान को सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय माना गया है। उसका समूचा क्रिया कृत्य धर्म संस्थापना और अधर्म निवारण भर के लिए होता है। व्यक्ति विशेष से न उन्हें राग है न द्वेष। श्रेय ही उन्हें प्रिय है। दिव्य ही उनका चयन है। अतएव साधना के क्षणों में ईश्वरीय विधि व्यवस्था गतिविधियों का स्मरण करने भर से शिक्षण और धारण के उभय पक्षीय प्रयोजन पूरे होते रहते हैं। यहाँ उन पौराणिक उपाख्यानों की अवहेलना भी करनी चाहिये जो किसी नीति निष्कर्ष पर नहीं पहुँचाते और महिमा बखानने के लिए ऐसे कुलावे मिलाते हैं जिनमें उत्कृष्टता की कसौटी पर चरित्र नायकों को भी खोटा सिद्ध होना पड़े। पौराणिक उपाख्यानों में भगवान का ऐसा बेतुका चित्रण भी कम नहीं है। ग्रन्थ विशेष को महत्व देकर ऐसी भगवत् कथाओं को भी दूध के साथ मक्खी निगलने की भूल विचारशील को नहीं ही करना चाहिए। भगवत् कथा में उत्कृष्टता के परिपोषण और निकृष्टता के उन्मूलन के अतिरिक्त अन्य कोई घटनाक्रम जुड़ता ही नहीं।

साधना की ध्यान धारणा के पूर्वार्द्ध में दैवी क्षेत्र में संव्याप्त सत्प्रवृत्तियों की गरिमा की व्यापक विवेचना के लिये परिपूर्ण गुंजाइश है। चिन्तन और मनन की प्रक्रिया इसी आधार पर चलती है। प्रार्थना, मनुहार, पूजन सान्निध्य, समर्पण, विलय के रूप में भगवान से तादात्म्य स्थापित करने के आधार पर आत्म शिक्षण का अध्ययन तथा धारण का उभय पक्षीय प्रयोजन पूरा होता है।

स्मृति के लिए चित्र स्थापना और मान्यता के लिए उपचार ऊर्जा की परिपक्वता से इष्ट का स्मरण अनायास ही हो आता है, उसकी छवि दिव्य चक्षुओं के सम्मुख आकर बिना किसी प्रयत्न के खड़ी हो जाती है किन्तु आरम्भिक दिनों में वैसा नहीं हो पाता। इसके लिए प्रतीक स्थापना की आवश्यकता होती है। प्रतिभाएँ इसी निमित्त गढ़ी जाती हैं। चित्रों के सहारे अथवा मूर्ति स्थापना से स्मरण को प्रखर किया जाता है। मन को इधर-उधर भागने से रोकने के लिए भी यह एक बड़ा अवलम्बन है। मन की प्रवृत्ति जल्दी-जल्दी स्थान बदलने की है। प्रतिमा के अंग अवयवों, वाहनों, अस्त्रों वस्त्रों की परिधि इतनी विस्मृत होती है कि उतने क्षेत्र में मन को भागने दौड़ने की छूट भी मिल सकती है और साथ ही इतना प्रतिबन्ध भी रहता है कि उसे आगे न बढ़े, अन्य प्रसंगों की ओर कदम न बढ़ाये। उपासना का इष्ट भगवान है। इसलिए उतने समय तक उसी पर चित्त को बाँधकर रखा जाये तो भविष्य में ऐसा मानस बनता है जिसे यथा समय आत्म शिक्षण के लिए नियोजित उपक्रमों में संलग्न किया जा सके।

रीकाग्नीजेशन का तात्पर्य मान्यता है। प्राण प्रतिष्ठा के आरम्भिक संस्कार से यह भावना परिपक्व की जाती है कि प्रतिमा मात्र पाषण नहीं है उसमें भगवान के प्राण का प्रवेश हो चुका है। वह जीवन्त तुल्य है। इसी मान्यता को परिपक्व करने के लिए षोडशोपचार या पंचोपचार से आतिथ्य सत्कार के निमित्त प्रयुक्त होने वाले शिष्टाचार सम्पन्न किये जाते हैं। पाद्य, अर्ध, आचमन, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, भारतीय शिष्टाचार के अन्तर्गत मान्यजनों के सत्कार में आवश्यक अंग माने गये हैं। भगवान के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति हेतु ऊर्जा उपचारों का प्रयोग किया जाता है। यह मान्यता को अधिकाधिक परिपक्व करने के लिए है। जिसके जीवन्त प्राणवान होने पर विश्वास न होगा, उसका पूजा सत्कार करेगा ही क्यों?

पूजा पद्धति से भगवान को क्या मिला? उनकी प्रसन्नता किस कारण हुई? इन प्रश्नों का यथार्थवादी उत्तर दे सकना कठिन है। क्योंकि सामान्य व्यक्तियों की तरह खुशामद करने पर रिश्वत देने का शिष्टाचार निभाने से भगवान प्रसन्न अप्रसन्न नहीं होते। निराकार, समदर्शी होने के कारण किसी व्यक्ति विशेष से उसका राग द्वेष भी नहीं हो सकता। पूजा उपचार की समूची विधि व्यवस्था आत्म शिक्षण के निमित्त बनाई गई है। आदर्शों के प्रति आस्थावान होना ही आत्मोत्कर्ष का एक मात्र आधार है। इस प्रयोजन की पूर्ति में पूजा उपचार के साधना विधानों का मनोवैज्ञानिक महत्व है इस तथ्य को सहज ही समझा और समझाया जा सकता है।


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