योग साधना के दो रथ चक्र

January 1984

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योगाभ्यासों को दो भागों में विभाजित किया गया है- एक ध्यानयोग। दूसरा क्रिया योग। ध्यानयोग वर्ग में अभ्यास आते हैं जिनमें अन्तर्मुखी होकर अन्तःक्षेत्र में गुहा प्रवेश किया किया जाता है और गहराई में उतरकर समुद्र तली में छिपे मणि मुक्तक ढूँढ़ने जैसा प्रयत्न किया जाता है। इस प्रक्रिया को खदान खोदने और बहुमूल्य खनिज निकालने की भी उपमा दी जा सकती है। चिन्तन का बिखराव होते रहने पर उसकी सामर्थ्य का पता नहीं चल पता, पर जब उसे एकाग्र कर लिया जाता है तो बन्दूक की नली से बारूद दागने और गोली के निशाना बेधने जैसी परिणति हाथ लगती है केन्द्रीभूत चिन्तन कितना सशक्त होता है इसे मैस्मरेजम, हिप्नोटिज्म आदि प्रयोगों के रूप में प्रत्यक्ष भी देखा जा सकता है। उसके परोक्ष परिणाम तो और भी अधिक आश्चर्यजनक पाये गये हैं।

क्रियायोग वह है जिसमें शरीरगत चेष्टाओं की सहायता से मन के निरोध का अभ्यास किया जाता है। काम करते समय उसमें लगे श्रम मनोयोग के सहारे उद्देश्य पर भी ध्यान जमता है और उस जमाव की छाप से मनःक्षेत्र प्रभावित होता है। विचार और कर्म के समन्वय से संस्कार बनने के तथ्य को मनःशास्त्र के विद्यार्थी भी जानते हैं। मात्र चिन्तन से भी स्वसम्मोहन और स्वसंवेदन, अनुशासन, स्व निर्देशन सम्भव तो है पर इसके लिए मनःशक्ति की प्रखरता अर्जित करनी होती है, अन्यथा कल्पना की उड़ाने उड़ने भर से बात बनती नहीं। अपने आपको दबोचने-घसीटने के लिए संकल्प शक्ति चाहिए। इसके अर्जित करने पर भी ध्यान द्वारा उपलब्ध हो सकने वाली सफलताओं का द्वार खुलता है। इसलिए ध्यानयोग को उच्चस्तरीय साधना माना गया है। इससे पहले की बाल कक्षा, क्रियायोग के रूप में ही सम्पन्न करनी पड़ती है।

क्रिया योग के सरल साधनों में तीर्थयात्रा, परिक्रमा आसन, प्राणायाम, जप, हवन, पूजा, अर्चा, दान-पुण्य, व्रत, उपवास आदि की गणना होती है। उच्च उद्देश्यों के निमित्त अपनाई गई शारीरिक हलचलों को क्रियायोग कहा गया है। श्रम नियोजन के पीछे उच्च उद्देश्यों का समावेश रहे तो फिर उस मानसिक एकीकरण का प्रतिफल संकल्प शक्ति विकसित होने के रूप में हस्तगत होता है। इस बढ़े हुए मनोबल का उपयोग ध्यानयोग की परिधि में आने वाली साधनाओं के निमित्त किया जा सकता है।

कुछ साधनाएँ ऐसी हैं जिनमें क्रिया परक साधनाओं के साथ अपेक्षाकृत अधिक मनोयोग लगाना होता है। तीर्थयात्रा, व्रत, उपवास में शरीर को अधिक और मन को कम काम करना होता है। किन्तु कुछ योगाभ्यासों में झूलने भर से काम नहीं चलता उनमें मात्रकृत्यों की ही प्रधानता नहीं है साथ में अधिक मनोयोग लगाने की भी आवश्यकता पड़ती है। बँध और मुद्राओं का स्वरूप ऐसा ही है। खेचरी मुद्रा में यदि तालु से जीभ भर सटा ली जाय तो ब्रह्मरन्ध्र से अमृत टपकने के रसास्वादन पर मनोयोग केन्द्रित न हो सके तो समझना चाहिए कि प्रयास अधूरा रहा और श्रम निरर्थक चला गया। सोहम् साधना के सम्बन्ध में भी यही बात है उसमें श्वासोच्छास के सन्तुलित रखने के साथ-साथ महाप्राण के परब्रह्म स्वरूप प्रवेश की भावभरी अनुभूति भी होनी चाहिए, साथ ही अहंता के निष्कासन का भी श्वास के बहिर्गमन के साथ-साथ सघन विश्वास जुड़ना चाहिए। क्रिया की सार्थकता इससे कम में बनती नहीं।

विशुद्ध ध्यान योग में शारीरिक हलचलों का उपयोग नहीं के बराबर ही करना पड़ता है। इसमें अधिकाँश प्रयास भावना स्तर का ही होता है। एकाग्रता और संकल्प के समन्वय से प्रचण्ड आत्मशक्ति का प्रादुर्भाव होता है और उसका प्रहार अन्तराल के प्रसुप्त शक्ति केन्द्रों पर करते हुए उन्हें जागृत करने का प्रयत्न किया जाता है। षट्चक्र वेधन और कुण्डलिनी जागरण की साधना इसी आधार पर सम्पन्न होती है।

मन्त्र जप के साथ इष्ट का ध्यान आवश्यक है। मात्र शब्दों को रटने दुहराने भर से काम नहीं चलता। यह कार्य तो तोता भी कर सकता है और टेप रिकार्डर द्वारा भी किन्हीं शब्दों की पुनरावृत्ति कराई जा सकती है। इतने भर में मंत्र फल उत्पन्न हो सकना सम्भव नहीं। जप के समय मन जहाँ-तहाँ भागता रहे तो एकाग्रता नहीं सधेगी। भावना का समन्वय न हो तो श्रद्धा कैसे जागेगी। ज्वाला जलने, लपटें उठने के लिए आग-ईंधन और हवा तीनों ही चाहिए। इनमें से एक तो हो पर दूसरे दो न हों तो उद्देश्य पूरा न हो सकेगा। इसी प्रकार मन्त्रोच्चार में इष्ट की छवि पर कल्पना जुड़नी चाहिए और साथ ही उसके साथ स्नेह समर्पण का श्रद्धा का भी गहरा पुट रहना चाहिए। भावना, विचारणा के साथ-साथ जप प्रक्रिया का समन्वय सधे तो समझना चाहिए कि कृत्य समग्र हुआ और उसके उपयुक्त प्रतिफल की सम्भावना बनी। मन्त्र की शब्द रचना और उच्चारण प्रक्रिया का अपना महत्व है तो भी उसके साथ ध्यान और श्रद्धा का समन्वय आवश्यक है। अधूरी चिन्ह पूजा करने वाले प्रायः असफलता की शिकायत करते पाये जाते हैं।

इसके विपरीत हानि में आवश्यक पवित्रता एवं सतर्कता बरतने भर से काम चल जाता है। प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं के सही होने- विधि विधान की सतर्कता एवं समग्रता रहने से वैसा वातावरण बनने लगता है जिसके सहारे अग्निहोत्र के सम्बन्ध में वर्णित माहात्म्य को प्रत्यक्ष किया जा सके। यों प्रसंग के अनुरूप भावना का होना तो प्रत्येक धर्म कृत्य एवं साधना विधान में आवश्यक है पर, क्रियायोग प्रधान प्रसंगों में उनकी मात्रा कम होने पर भी काम चल जाता है।

भावना प्रधान लोगों के लिए भक्तियोग, बुद्धिवादियों के लिए ज्ञानयोग और पुरुषार्थ परायणों के लिए कर्मयोग रुचिकर भी होता है और सरल भी पड़ता है। आत्मीयता, घनिष्ठता, एकात्मता को रस कहा गया है दाम्पत्य-जीवन में इसी आधार पर दो शरीर एक आत्मा की उक्ति चरितार्थ होती है। मित्र मित्रों पर जान निछावर करते हैं। माता और बच्चे के बीच कुलकन इसी कारण छाई रहती है। परमात्मा सत्ता के साथ दीप-पतंग जैसा, नदी-नाले जैसी सिन्दु-बिन्दु जैसी, दूध चीनी जैसी एकात्मता स्थापित करने की भाव सम्वेदना में भक्त जा खोता है उससे अधिक पाता है। ईंधन का समर्पण उसे अग्निवत् बना देता है। भक्त भी अपनी अहंता को विराट् की महानता में घुलाकर अपने को तत्सम अनुभव करता है।

ज्ञानी को दूरदृष्टि और दिव्यदृष्टि प्राप्त होती है। दूरदर्शिता के आधार पर वह इस जीवन से पूर्व वाले भूत और पश्चात् वाले भविष्य को देखता है। दोनों के मध्य सुखद संगीत बिठाने वाले वर्तमान का निर्धारण करता है। दिव्य दृष्टि मिलने पर ज्ञानी को कलेवर की कठपुतली को नचाने वाली आत्मा दिखती है जबकि सामान्यजनों को मात्र काया की ही प्रतीति और प्रीति रहती है। ज्ञानी दृष्टा होता है उसे भव-बंधनों से मुक्ति मिलती है और इसी विश्व उद्यान में परिभ्रमण करते हुए, तृप्ति तुष्टि और शान्ति का रसास्वादन करने की स्वर्ग सम्पदा हस्तगत होती है।

कर्मयोगी का चिन्तन, चरित्र और व्यवहार कर्त्तव्य पालन के आधार पर विनिर्मित होता है। वह सामाजिक उत्तरदायित्व को पहचानता और मर्यादा का अनुशासन पालते हुए उदारता की रीति-नीति अपनाता है। गरिमा का बोझ रहने से वह भटकता नहीं। शालीनता के राजमार्ग पर बिना भटके ठहरे अनवरत गति से चलता रहता है। ये सभी साधनापरक योगाभ्यास हैं। इन योगों को ज्ञान और कर्म दो में भी बाँटा जा सकता है। ध्यानयोग से व्यक्तित्व का परिष्कार बन पड़ता है। क्रियायोग से जीवन प्रवाह ऐसे प्रयासों के साथ जुड़ता है जिनमें आत्मकल्याण और लोकमंगल के दोनों ही लक्ष्य समान रूप से सध सकें। ध्यानपूर्वक सतर्कता के साथ जीवनचर्या की क्रिया-प्रक्रिया अपनाने पर कोई भी व्यक्ति योगी बन सकता है।


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