तर्क नहीं श्रद्धा प्रधान

January 1984

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भौतिक क्षेत्र की प्रगति में बुद्धि की प्रखरता को महत्व दिया जाता है। उसे बढ़ाने के लिए हर सम्भव उपाय भी किये जाते हैं पर आध्यात्मिक प्रगति में श्रद्धा को प्रमुख स्थान दिया जाता है। एकाँगी बुद्धिमता के सहारे भौतिक जीवन की गाड़ी किसी प्रकार लुढ़कती रह सकती है पर आत्म निकास की ओर एक कदम भी चलना सम्भव नहीं हो पाता। श्रद्धा रूपी धुरी पर ही उपासना एवं आराधना की गाड़ी चलती है। बुद्धि के परिष्कृत स्वरूप विवेक का सम्बल मिल जाने से श्रद्धा एक ऐसी प्राणवान शक्ति बन जाती है जो साधक को सतत् आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। उसकी सामर्थ्य की महिमा के गुणगान से शास्त्रों के पन्ने भरे पड़े हैं। “भवानी शंकरौ वन्दे, श्रद्धा विश्वास रूपिणी”, के रूप में अपना आन्तरिक उद्गार व्यक्त करते हुए मानसकार ने श्रद्धा को साक्षात् भवानी और विश्वास को शंकर मानकर अभ्यर्थना की है। इसी सत्य को इस प्रकार भी व्यक्त किया गया है। “यो यच्छ्रद्धः स एव सः।” जिसकी जैसी श्रद्धा रहती है, वह वैसा ही बन जाता है।

तर्क की पहुँच विचारों तक है। विचारों से परे अनुभूतियों के कितने ही दिव्य क्षेत्र मौजूद हैं जो उनकी पकड़ में नहीं आते। मानवी श्रद्धा ही उन्हें अनुभव कर सकती है। मनुष्य के पारस्परिक रिश्ते श्रद्धा से ही संचालित होते हैं। जीवन से उसे निकाल दिया जाये तो भाई-भाई के, भाई-बहन के, माता-पिता के, पिता-पुत्र के रिश्तों का कुछ विशेष मूल्य नहीं रह जाता। प्यार एवं स्नेह की बहने वाली निर्झपिणी सूखे तर्क के आतप में सूखकर मरुस्थल का रूप ले लेती है। वे परिवार, परिवार न रहकर सराय बन जाते हैं। जब सामान्य जीवन में श्रद्धा के बिना काम नहीं चलता तो आध्यात्मिक क्षेत्र में कैसे चल सकता है ?

पर मानव बुद्धि की सीमा होते हुए भी वह इतनी सक्षम तो है ही कि विराट् को विराट् बना सके। बुद्धि की इस स्वीकारोक्ति से भावों को अपना काम करने का आधार मिल जाता है। तब भावनाओं का ज्वार यदि विराट् के चरणों का अभिनन्दन करता है तो इसमें हानि ही क्या है? इसकी सराहना दर्शन को भी करनी चाहिए और विज्ञान को भी। मानव को बुद्धि का वरदान परमात्मा ने इसीलिए दिया है कि वह अच्छे-बुरे का, शुभ-अशुभ का, पूर्ण-अपूर्ण का, सत्य-असत्य का, श्रेष्ठ-निकृष्ट का भेद कर सके।

यह सच है कि धर्म के लिए श्रद्धा एवं आस्था का आधार आवश्यक है किन्तु इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि तर्क बुद्धि को वह बिल्कुल महत्व नहीं देता। ऐसा रहा होता तो तर्क को ऋषि की संज्ञा देकर उसकी अभ्यर्थना शास्त्रकार नहीं करते। मनुस्मृति में वर्णन है- “यस्तर्केणानुसन्धते स धर्म वेद नेतरः”, अर्थात् तर्क से अनुसन्धान करने वाला धर्म को जानता है- दूसरा नहीं।

पर यदि तर्क मात्र वितण्डावाद है तो वह किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचने में मदद नहीं कर सकता। न ही धर्म के मर्म को- उसके वास्तविक प्रयोजन को समझने में ही सफल हो सकता है। सच्चाई यह है कि संसार में ऋषि तुल्य सत्य के जिज्ञासु तार्किक गिने-चुने होते हैं, अधिकाँश तो वितण्डावादी ही होते हैं। जो तर्क जिज्ञासावृत्ति से अभिप्रेरित होगा निश्चित रूपेण श्रद्धा का पक्षधर होगा क्योंकि उसके बिना खोज की राह पर एक कदम भी आगे बढ़ सकना सम्भव नहीं है।

किसी सिद्धान्त, किसी आदर्श अथवा किसी लक्ष्य के प्रति श्रद्धा भी तभी उमड़ती है जब ज्ञान द्वारा उनकी गरिमा की बुद्धि सामर्थ्य के समस्त आवेश के साथ आत्मसात् कर लिया जाता है। एक बार पूरे मन से उनको स्वीकार कर लेने पर तर्क नहीं जन्म लेता। दोष देखने वाली प्रवृत्ति नहीं रहती। “दोष दर्शनानुकूल वृत्ति प्रतिबन्धकवृत्तिः”, श्रद्धा की उपज है पर उसमें भी बुद्धि के पक्ष का सर्वथा अभाव नहीं होता। ऐसा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी असम्भव है। श्रद्धा कभी अकारण नहीं पैदा होती। यह हो सकता है कि उसका कारण समझ में न आये, पर वह होती है कारण से जुड़ी हुई। जहाँ कारण है वहाँ बौद्धिक दृष्टि प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कार्य अवश्य कर रही होगी।

श्रद्धा की वृत्ति वस्तुतः मानव मन की गहरी परतों में आबद्ध है। तर्क को जो सर्वोपरि महत्व देते हैं वे व्यक्ति भी श्रद्धा की सर्वथा उपेक्षा नहीं कर सकते। तर्क को सर्वोपरि मानना भी एक प्रकार से तर्क में श्रद्धा रखना है। उद्भव विद्वान, तार्किक भी अपनी मान्यताओं के प्रति दृढ़ होते हैं। यह एक प्रकार की मान्यता निष्ठ श्रद्धा ही है। तर्कशास्त्र एवं दर्शन के महान ऋषि आचार्य शंकर को भी यह स्वीकार करना पड़ा कि तर्क की एक सीमा है। बिना श्रद्धा के उच्चस्तरीय प्रयोजनों को पूरा कर सकना सम्भव नहीं है।

वस्तुतः मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन श्रद्धा से परिचालित है। पारिवारिक जीवन की सरसता, सफलता पारस्परिक श्रद्धा पर ही अवलम्बित है। श्रद्धा के टूटते ही दाम्पत्य जीवन को टूटते तथा परिवारों को बिखरते देरी नहीं लगती। जो परिवार श्रद्धा से अभिसिंचित होते हैं,उनमें स्वर्गोपम दृश्य दृष्टिगोचर होता है।

श्रद्धा के बिना जब सामान्य जीवन में काम नहीं चलता तो आध्यात्मिक जीवन में कैसे चल सकता है। ऐसी स्थिति में एक साधक अपनी श्रद्धा का विषय किन्हीं श्रेष्ठ सिद्धान्तों को अथवा इष्ट को बनाकर तद्नुरूप कार्यप्रणाली अपनाता है तो इसमें हानि ही क्या है ? अस्वाभाविकता कहाँ है? यह बात अवश्य है कि आध्यात्मिक पथ के साधक को श्रद्धा का विषय कुछ और होगा तथा वैज्ञानिक की श्रद्धा का विषय कुछ और धार्मिक की श्रद्धा वैज्ञानिक की अपेक्षा अधिक प्रगाढ़, दृढ़ तथा आवेगयुक्त होगी। पर यह अन्तर विषयों के अन्तर के कारण होता है। साधना का लक्ष्य है- परमात्मा का साक्षात्कार, जिसकी अनुभूति अपने अंचल में जड़ चेतन की समस्त स्थूल, सूक्ष्म अनुभूतियों को समेटे हुए है। जबकि विज्ञान का विषय इतना विस्तृत- इतना विराट् नहीं है। ब्रह्माण्ड का एक छोटा-सा भाग ही उसका कार्यक्षेत्र होता है।

श्रद्धाविहीन किसी शंकालु व्यक्ति को साधक की अनुभूति एक कपोल कल्पना या पागलपन प्रतीत हो सकती है पर इससे यथार्थता पर कुछ आँच नहीं आती। ईश्वरीय अनुभूति के उच्च लोक में पहुँचने के बाद व्यक्ति का व्यवहार सामान्य लोगों की दृष्टि में असामान्य तथा असंगत प्रतीत होता है तो इसमें कुछ विशेष आश्चर्य नहीं करना चाहिए। संकीर्णता, चिन्ता, उदासीनता आदि मानसिक व्यतिरेकों के ऊपर उठा हुआ व्यक्ति यदि अपने बन्धनों को तोड़ते हुए आगे बढ़ जाता है तथा ‘वासुदेवः सर्वंमिति’- सभी कुछ ईश्वर है मानकर चलता है तो इसमें अस्वाभाविकता ही क्या है?

ऐसे में दिव्य अनुभूतियों से वंचित रहने वाला तथा मनुष्य को अपनी ही सहज प्रवृत्तियों का गुलाम मानने वाला पाश्चात्य मनोविज्ञानी यदि धर्मानुभूति को भ्रम मानता तथा ईश्वर के प्रति दिव्य प्रेम को- ‘इंडिपस काम्पलेक्स’ कहता है इसमें आश्चर्य ही क्या है? अर्थ के आइने में मनुष्य के समस्त जीवन को देखने वाला मार्क्स यदि धर्मानुभूति को गरीबों की अफीम तथा पूँजीपतियों की धूर्त्तता मानता है तो इसे बुद्धि का दुराग्रह ही कहा जायेगा।

वस्तुतः मानव बुद्धि सब कुछ समझने में सक्षम नहीं है। बुद्धि के द्वारा तो केवल मानवीय जीवन स्तर की वस्तुओं को ही जाना जा सकता है। प्रख्यात दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन ने सत्य ही लिखा है कि “मनुष्य की बुद्धि एक ऐसे विषय के सन्दर्भ में विश्वसनीय घोषणा करने में नितान्त अक्षम है जो उसकी सीमा के परे है किन्तु मानवीय हृदय उस पर तत्व को समझने में पूर्ण रूप से सफल होता है।”

रूसो जैसे उद्भट विद्वान ने लिखा है कि- “श्रद्धावान व्यक्ति ईश्वर सम्बन्धी चर्चा को चमकीले तर्क को स्तर से ऊपर उठा लेता है तथा ईश्वर की अनुभूति हृदय की गहराई में अपनी श्रद्धा के सहारे करता है।”

इस सम्बन्ध में महर्षि अरविन्द का कहना है कि- “तर्क अस्तित्व की गहराई नापने में अक्षम है, वह तो सिर्फ इस विश्व के क्षेत्र का मात्र पर्यवेक्षण भरकर कसता है।”


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