महत्वपूर्ण कार्यों के लिए उपयुक्त स्थान एवं सुसंस्कारित वातावरण का चयन एक ऐसा सूक्ष्मदर्शी सिद्धान्त है जिसकी उपयोगिता सामान्य बुद्धि की समझ से परे है। फिर भी फलश्रुतियों को देखते हुए उसके पीछे ठोस तत्वों का समावेश पाया जाता है। साधनादि के क्षेत्र में समय समय पर वातावरण के चयन के सम्बन्ध में महामानवों ने दूरदर्शिता बरती है। ऐसी स्थिति आने पर स्थान विशेष के संस्कारों को परखा एवं तदुपरान्त ही स्वयं को विशिष्ट बनाने वाली तप साधनाओं हेतु वहाँ शेष रूप से योगाभ्यास सम्पन्न किये हैं। उत्तराखण्ड हिमालय का हृदय कहा गया है। लगभग सभी अवतारों, देवदूतों, महामानवों एवं इस सदी मध्यकाल के महापुरुषों ने यहाँ कुछ विशिष्टता पायी एवं आत्मबल सम्पादन हेतु इसी परिधि के विभिन्न स्थानों को चुना और आने वाली पीढ़ी के लिये भी उस स्थान को संस्कारित किया है। ऐसे ही उदाहरण कुसंस्कारी वातावरण के श्रवणकुमार के मय प्रदेश में माता-पिता की अवहेलना तथा कुरुक्षेत्र को महाभारत हेतु श्रीकृष्ण द्वारा चयन किये जाने के रूप में मिलते हैं।
पुराणों में ऐसी अनेकानेक घटनाओं का वर्णन है जिसमें बताया गया है कि क्षेत्र विशेष में अपनी-अपनी प्रभाव क्षमता पाई जाती है। ऐतिहासिक या प्रकृति सम्बद्ध कितने ही कारण ऐसे होते हैं जिनका प्रभाव किन्हीं स्थानों पर छाया रहता है। फलतः वहाँ के निवासियों के विचारों और कार्यों पर उनका भला बुरा असर पड़ता है। इसी सूक्ष्म वातावरण को ध्यान में रखते हुए ये महत्वपूर्ण कार्यों के लिए कर सकें। व्यासजी ने पुराण लिखने के लिए जो स्थान चुना था, वह बद्रीनाथ के आगे व्यास गुफा के नाम से प्रख्यात है। गंगा अवतरण से लेकर ऋषि दधीचि की वज्र साधना इसी क्षेत्र में सम्पन्न हुई। सातों ऋषियों की बहुमुखी गतिविधियाँ इसी परिधि में चलती रहीं। आध शंकराचार्य केरल में जन्मे थे तो उनने अपना कार्य क्षेत्र हिमालय चुना और केदारनाथ के समीप शरीर का समापन किया। अभी भी इस क्षेत्र में सरलता, सज्जनता, सात्विकता अन्यत्र की तुलना में वहीं अधिक है। शाँति कुँज के लिए उद्देश्य के अनुरूप स्थान चयन इसी सूक्ष्म पर्यवेक्षण के आधार पर हुआ है।
वैज्ञानिकों ने भी अनेक स्थानों को अनेक प्रकार की विभिन्नताओं से सम्पन्न पाया है। अमेरिका में वाहनों को नीचे से ऊपर की ओर घसीटने वाली चुम्बकीय पहाड़ियाँ प्रसिद्ध हैं। बारमूडा त्रिकोण में कितने ही जलयानों वायुयानों के अदृश्य होते रहने की बात सभी जानते हैं। ध्रुव प्रदेशों के विचित्र परिस्थितियों और दृश्यावलियों को देखकर अनजान दर्शकों को वह परीलोक सा लगता है। छह महीने का दिन और छह महीने की रात आकाश में उड़ते रहने वाली रंग-बिरंगी ज्योतियाँ विचित्र प्रति ध्वनियों को देखते हुये सामान्य बुद्धि उसे जादू तिलिस्म जैसा क्षेत्र ही मान सकती है। रोती-हँसती और गाती हुई बालू के समीप पहुँचकर मनुष्य हतप्रभ रह जाता है।
स्थान विशेष की यह विचित्रताएँ बताती हैं कि वहाँ के वातावरण में कुछ न कुछ अद्भुत होना चाहिए। ऐसी विलक्षणताओं में एक नई कड़ी आसाम क्षेत्र के साथ जुड़ती है। कारण तलाशने वाले उस रहस्य को अनबूझ पहेली कहकर मौन पाये गये हैं।
आसाम प्रान्त में बरले पहाड़ियों पर हांफलाँज के निकट समुद्र तल से 736 मीटर ऊँचाई पर बसा एक गाँव है जातिंगा। शिलांग पठार के दक्षिणी सिरे पर पूर्व की दिशा में विरल पहाड़ियाँ हैं। ये वर्मा भारत सीमा पर अवस्थित लुशारी पर्वत शृंखला में जाकर विलीन हो जाती हैं। जतिंगा गाँव इसी क्षेत्र में बसा है। उसका व्यास दो वर्ग किलोमीटर है। सभी जानते हैं कि पहाड़ों पर बसावट बिरल होती है। घर एक दूसरे से दूर बनते हैं इसलिए क्षेत्र अधिक घिरने पर भी आबादी कम ही रहती है।
इस गाँव के इर्द-गिर्द एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें रात्रि के समय तेज प्रकाश जलाने पर उस क्षेत्र की चिड़ियाँ अनायास ही दौड़ पड़ती हैं। दीपक पर जल मरने वाले पतंगों जैसा उपक्रम तो नहीं करती पर प्रकाश के इर्द-गिर्द चक्कर काटने के उपरान्त जमीन पर आ गिरती है और फिर छूने छेड़ने पर भी उठने भागने का प्रयास नहीं करती। अर्ध मूर्छित स्थिति में पड़ी रहती हैं। चीखने चिल्लाने, बचने भागने जैसा प्रयास उनका तनिक भी नहीं होता। प्रकाश में कभी-कभी कोई टकरा भी जाती हैं पर उनसे ऐसा कुछ नहीं होता जिसे जलने-झुलसने जैसा कहा जा सके।
ऐसा क्यों होता है? उसी गाँव के इर्द-गिर्द ऐसा घटनाक्रम क्यों चलता है? उस क्षेत्र में अन्यत्र ऐसा क्यों नहीं होता? इन प्रश्नों का विगत अस्सी वर्षों से कोई समाधान कारक उत्तर नहीं मिल सका है।
जातिंगा गाँव सन् 1895 में एक बर्मी नस्ल के सुचिंग नामक व्यक्ति ने बसाया था। उसके निमन्त्रण पर समीपवर्ती गाँववासी जयंतिया पुर से आकर वहाँ अधिक सुविधा देखकर बसने लगे और आबादी इतनी हो गई जिसे गाँव कहा जा सके।
सन् 1905 के सितम्बर की बात है। गाँव के लोग खोई भैंसों की तलाश के लिए निकले थे। अँधेरी रात में मशालें जलाकर चलना आवश्यक था। वही किया गया। भैंस ढूँढ़ने के प्रयास को अवरुद्ध करता हुआ एक नया घटना क्रम इसी बीच घटित होने लगा। रात्रि के सन्नाटे में अपने घोसलों से निकलकर ढेरों चिड़ियाँ उन मशालों के इर्द-गिर्द चक्कर काटने लगी और कुछ देर मँडराने के बाद धरती पर ढेले की तरह गिरने लगीं।
ऐसा कौतुक उन लोगों ने पहले कभी नहीं देखा था। समझे कोई प्रेतात्मायें उन्हें डराने के लिए इस प्रकार प्रकट हो रही हैं। इसलिए और कुछ तो न सूझा जोर-जोर से हल्ला मचाकर उन्हें भगाने का प्रयत्न करते रहे। उलटे पैरों भागे और घरों में जाकर छिप गये। सवेरा होने पर रात्रि वाले स्थान पर वे लोग कारण का पता लगाने की दृष्टि से फिर पहुँचे। देखा कि कितनी ही चिड़ियाँ उस स्थान पर मूर्च्छित जैसी पड़ी हैं। उलट-पुलट कर देखने पर जब प्रेतात्मायें न होकर मात्र चिड़ियाँ ही मान ली गई। तब यह सोचा जाने लगा आखिर ऐसा होता क्यों है। प्रकाश को देखकर पतंगे उड़ने लगने की बात तो देखी हुई है पर घोंसले छोड़कर चिड़ियाँ रात्रि का विश्राम छोड़कर इस प्रकार दौड़ पड़ें और मूर्छित होकर गिर पड़े इसका कारण तब भी समझ से बाहर ही बना रहा।
सोच विचार होता रहा। अन्त में यह बात जमी कि देवता इस गाँव वालों पर प्रसन्न है और उनकी भूख बुझाने के लिए घर बैठे इन चिड़ियों को आहार उपहार के रूप में भेजते हैं। तब से जातिंगा निवासी समय समय पर मशाल जलाकर रात्रि के समय उस क्षेत्र में पहुँचने लगे और जितने चिड़ियाँ आवश्यक होती उतने टोकरों में भरकर घर लौट आते। चिड़ियाँ टोकरे में चुपचाप बैठी रहती उन्हें ढकने रोकने की भी आवश्यकता न पड़ती जब जितनों की तरकारी बनानी होती तब उस टोकरी में से उठा ली जाती। यह आश्चर्य यह भी कहता है कि जीवित होने पर भी जब उनके सामने दाना पानी रखा जाता तो उसकी ओर तनिक भी आकर्षित नहीं होती।
सिलसिला इसी प्रकार चलता रहा। इस जादुई घटनाक्रम की चर्चा तो दूर-दूर तक फैलती रही पर किसी ने इसे छोटी बात समझकर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता न समझी। फिर भी अचम्भे की बात तो थी ही विवरण जब दूर-दूर तक पहुँचा तो इनका रहस्य जानने के लिए प्रकृति अन्वेषणकर्ताओं का ध्यान उधर गया।
सन् 1977 में डॉ. सुधीर सेन गुप्ता के नेतृत्व में एक दल इस सम्बन्ध में तथ्यों का पता लगाने के लिए पहुँचा। उसने विभिन्न स्थानों पर बाँस गाढ़ कर उस पर रात्रि के समय गैस की लालटेन टांगी और चिड़ियों के अनायास ही टूट पड़ने का दृश्य आँखों देखा। जैसा सुना गया था ठीक वैसा ही दृश्य सामने आया। चिड़ियाँ पेड़ों से उतर कर आतीं, मंडरातीं और अर्धमूर्छित होकर जमीन पर गिर पड़तीं।
अनुसंधान अठारह दिन तक चलता रहा। कारण की तलाश में स्थानों एवं उपक्रमों में अदल-बदल करते रहने का प्रयास भी हुआ। एक अर्धमूर्छित चिड़िया को वे लोग वापसी में अपने साथ लाये। वह कंधे पर यथा स्थान बैठी रही और 124 मील की यात्रा के बाद मर गयी इस बीच में उसने दाना-पानी सामने रखने पर उसे लेने की कोई चेष्टा नहीं की और न उड़ने की ही।
अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि ऐसा वातावरण वहाँ एक सीमित क्षेत्र में ही है सर्वत्र नहीं। जातिंगा रेलवे स्टेशन के गाँव के स्वास्थ्य केन्द्र तक प्रायः एक किलोमीटर लम्बी पट्टी में ही यह विलक्षणता देखी गयी। सो भी जब बादल हों और अंधेरी रात हो। चाहे जब और चाहे जहाँ घटना क्रम घटित नहीं होता।
अनुसंधानकर्ता किसी निश्चित निर्णय पर तो नहीं पहुँचे पर उनने कई अनुमान लगाये हैं। एक यह कि उन परिस्थितियों से उत्पन्न प्रकाश में कोई इन्फारेड किरणों जैसी विशेषता रहती है और वह चिड़ियों की संवेदनशीलता को प्रभावित करके अपनी ओर खींचती है। यह भी हो सकता है कि क्षेत्र में कोई ऐसी चुम्बकीय पट्टी है जो उपरोक्त परिस्थितियों में प्रकाश जलने पर सक्रिय बनती हो और उस आधार पर विशेष संरचना वाली चिड़ियाएँ प्रभावित होकर खींचती हैं। एक विचार यह भी है कि प्रकाश से दृष्टि भ्रम उत्पन्न होता है और पतंगों के दीपक की और दौड़ने जैसी मनःस्थिति में जा फँसती हो। यह भी हो सकता है कि उस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति चुम्बकीय बल-आकर्षण में कुछ विलक्षणता हो।
इन अनुमानों से भी उस आश्चर्य का समाधान नहीं होता कि उस क्षेत्र में पाई जाने वाली सभी चिड़ियाँ क्यों इस प्रकार का आचरण नहीं करतीं। कुछ सीमित जातियों की चिड़ियाँ ही क्यों इस प्रकार के व्यामोह में फँसती हैं। फिर एक और भी अनबूझी पहली यह है कि वे आरम्भ से लेकर मरण पर्यन्त सम्मोहित जैसी स्थिति में किस कारण बनी रहती हैं। जीवन के सभी चिन्ह उनमें विद्यमान रहते हुए भी वे अपनी स्वाभाविक चेष्टायें क्यों गँवा बैठती हैं। इसका कोई उत्तर नहीं है।
सही निष्कर्ष न निकल सकने पर यथावत् है कि क्षेत्र विशेष में कुछ अद्भुत प्रभाव पाये जाते हैं। इसके कारण प्रकृति परक भी हो सकते हैं और किसी सचेतन स्थिति के कारण शाप-वरदान स्तर के भी हो सकते हैं। जो हैं अनेक स्थानों में समाहित स्थानीय विलक्षणताओं का होना असंदिग्ध है। उनका कारण विदित न होने पर भी इतना मानना ही पड़ेगा कि कुछ स्थानों में ऐसी विशेषतायें पाई जाती हैं जहाँ कुछ महत्वपूर्ण कार्य अधिक अच्छी तरह हो सकते हैं। इस दृष्टि से उपयुक्त कार्यों के लिए उपयुक्त स्थान एवं वातावरण का चयन भी एक ऐसी आवश्यकता है जिससे इनकार नहीं किया जा सकता।